भारत के सबसे पुराने जंगलों की छाती चीर बनेंगे 40 कोयला खदान, 6000 आदिवासी होंगे बेघर

भारत के सबसे पुराने जंगलों की छाती चीर बनेंगे 40 कोयला खदान, 6000 आदिवासी होंगे बेघर

By हन्ना एलिस पीटर्सन, द गार्जियन की दक्षिण एशिया संवाददाता

पिछले एक दशक में, उमेश्वर सिंह अमरा ने अपनी मातृभूमि को एक युद्ध के मैदान के रूप में देखा है। एक समृद्ध और जैव विविधता वाले भारतीय जंगल, हसदेव अरंद में युद्ध चल रहा है। स्वदेशी लोग, प्राचीन पेड़ और हाथी जो एक मात्र उद्देश्य कोयला खदान से कोयला निकासी को रोकने के लिए बुलडोजर, ट्रक और हाइड्रोलिक जैक की ताकत से लगातार लड़ रहे हैं।

फिर भी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एक नई “आत्मनिर्भर भारत” योजना के तहत, कोविड -19 के बाद अर्थवयवस्था को बढ़ावा देने और महंगे आयातों को कम करने के लिए, भारत के सबसे संवेदनशील और पुराने जंगलों में 40 नए कोयला खदान खोले जाने की घोषणा की गई है।

छत्तीसगढ़ के परसा में घने हसदेव अरंद जंगल में चार बड़े कोयला ब्लॉक 4,20,000 एकड़ में फैले जंगलों पर बनेंगे। यहां ओपन कास्ट कोल माइनिंग को मंज़ूरी मिली है। इस खदान की क्षमता पांच लाख टन प्रतिवर्ष है और इसे राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम (आरवीयूएनएल) को आवंटित किया गया है।

यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है। भारत में कोयला उद्योग सरकार के स्वामित्व में है, लेकिन 40 नए कोयला ब्लॉकों की इस नीलामी से भारत में निजीकृत, वाणिज्यिक कोयला खदान का निर्माण होगा।

इसके लिए बोली लगाने वालों में भारत के सबसे अमीर और शक्तिशाली औद्योगिक दिग्गज शामिल हैं, जिसमें भारतीय अरबपति गौतम अडानी द्वारा संचालित 14 अरब डॉलर संपत्ति वाला अडानी समूह भी शामिल है। अडानी ग्रुप भारत के सबसे बड़े कोयला बिजली संयंत्रों का संचालन करता है और मोदी के साथ उसके घनिष्ठ संबंध हैं।

6000 आदिवासियों पर संकट

कोयला नीलामी पहले ही स्थानीय और राजनीतिक दोनों स्तरों पर विवादास्पद रही है। नीलामी के लिए कोयले के कम से कम सात खंडों को पहले उनके पर्यावरणीय रूप से मूल्यवान स्थिति के कारण खनन के लिए ‘प्रवेश वर्जित’ क्षेत्रों के रूप में छोड़ दिया गया था।

साथ ही लगभग 80% ब्लॉक स्वदेशी समुदायों के घर और घने जंगल से घिरा है। चार राज्य सरकारों – पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, झारखंड और छत्तीसगढ़ ने इसके विरोध में मोदी को पत्र लिखा है और नीलामी पर कानूनी आपत्तियां जताई हैं।

अमरा जो एक आदिवासी हैं, कहते हैं, “अगर सरकार ने मुझे जंगल में होने वाले अधिक खनन के बदले अपनी जान देने का विकल्प दिया, तो मैं एक पल भी नहीं लगाऊंगा अपनी कुर्बानी देने में।”

इसके अलावा नौ स्थानीय सरपंचों ने भी हाल ही में प्रधान मंत्री मोदी से हसदेव अरंद में नीलामी पर रोक लगाने की मांग की है।

अमरा ने खुले हाथों से कोयला खदानों से होने वाले पर्यावरण तबाही को पहली बार तब देखा जब 2011 में दो विशाल ओपन-कास्ट खदानों की खुदाई जंगल के एक छोर पर की गई थी।

इसने जंगल को चीर कर और आसपास के वातावरण को प्रदूषण, धुएं, गर्मी, शोर और ज़हर से भर दिया था। इस क्षेत्र में अपराध बहुत तेजी से बढ़े और जंगल में रहने वाले हाथी, नई शत्रुतापूर्ण परिस्थितियों से भटक कर आक्रामक हो गए, जिससे दर्जनों मौतें हुईं।

भारत में सबसे बड़े जंगल के महत्वपूर्ण ब्लॉकों को निजी खनन कार्यों के लिए सौंपे जाने की संभावना अमरा के लिए बर्दाश्त से बाहर है।

यदि ऐसा हुआ तो पांच गाँवों को खाली करा दिया जाएगा और 6,000 से अधिक आदिवासियों को विस्थापित कर दिया जाएगा, साथ ही हजारों हेक्टेयर में फैले पुरातन पेड़ों को खदान और सड़कों के लिए काट डाला जाएगा।

forest

कोई भी मुआवज़ा भरपाई नहीं कर सकता

अमरा कहते हैं, ,”यदि अधिक खनन होता है तो सब कुछ बदल जाएगा प्राकृतिक संसाधन समाप्त हो जाएंगे, हमारी आजीविका ख़त्म हो जाएगी, सब कुछ खतरे में पड़ जाएगा, हम आदिवासी लोग हैं, हम ना ही बाहर जा सकते हैं और ना ही शहरों में रह सकते हैं और कोई भी राशि कभी भी हमें इसका मुआवजा नहीं दे सकती है क्योंकि दुनिया में ऐसा कोई जंगल नहीं है जिसे काट कर दुबारा बनाया जा सके।”

दुनिया भर की सरकारों ने “ग्रीन रिकवरी” के माध्यम से पोस्ट कोविड -19 की स्थिति को ठीक करने का प्रयास किया है, हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुट्रेस ने कहा कि रिकवरी योजनाओं में किसी भी देश कोयले को शामिल करना कोई अच्छा कदम नहीं है।

वहीं भारत महामारी को आर्थिक अवसर में बदलने की अपनी रणनीति में मुख्यत: प्राकृतिक ईंधन का इस्तेमाल कर रहा है।

मोदी कोयला खदान की नीलामी की घोषणा के वक़्त पूछते हैं, ‘भारत कोयले का सबसे बड़ा निर्यातक देश क्यों नहीं बन सकता?’

अंतराष्ट्रीय बाजार में भारत के कोयले को पसंद नहीं किया जाता है, क्योंकि कोयले का 45% हिस्सा राख बन जाता है। इसलिए दुनिया के सबसे प्रदूषित कोयले में इसकी गिनती होती है।

इसी कारण भारत में कई बड़े कारखाने “गंदे” घरेलू कोयले पर नहीं चल पाते, जिसका अर्थ है कि उन्हें अभी भी इसे विदेशों से आयात करना होगा।

भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उपभोक्ता देश है और सालाना 247 मिलियन टन का आयात करता है, जिसकी लागत 20 अरब डॉलर है।

chattisgargh forest

कोयला नुकसानदेह और खर्चीला माध्यम

आर्थिक मंदी और कोविड 19 के कारण भारत की बिजली मांग अगले पांच वर्षों में 15% तक घटने का अनुमान है। इस बीच, सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत की सरकारी कोयला कंपनी के पास 2030 तक जितनी  मांग होगी उसके मुकाबले अभी भी 20% अधिक कोयला उत्पादन की क्षमता है।

पर्यावरण कार्यकर्ता यह भी सवाल उठाते हैं कि घरेलू ऊर्जा, जैसे सौर ऊर्जा में निवेश कर क्रमिक वृद्धि के माध्यम से विदेशी कोयले का सफाया क्यों नहीं किया जा सकता है?

इसी महीने, मोदी ने मध्य प्रदेश में एशिया के सबसे बड़े सौर फार्म का उद्घाटन किया। भारत सौर ऊर्जा का दुनिया का सबसे सस्ता उत्पादक है और एक नए सौर संयंत्र के निर्माण की लागत एक नए कोयला संयंत्र के निर्माण की तुलना में 14% कम है।

यह अनुमान लगाया गया है कि सौर ऊर्जा उद्योग 2022 तक भारत में 1.6 मिलियन नौकरियों पैदा कर सकता है, जो कि घरेलू कोयले के क्षेत्र से ज्यादा रोज़गार है।

भारत में कोयला मंत्रालय के संयुक्त सचिव, मदिरला नागराजू ने कहा कि देश के सभी ऊर्जा खपत के अनुमानों से पता चलता है कि कोयले की मांग बढ़ेगी और घरेलू कोयले की बढ़ती हुई वृद्धि “लोगों की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने का सबसे सस्ता तरीका” है।

नागराजू ने कहा, “हम दुनिया के चौथे सबसे बड़े कोयला भंडार वाले देश हैं और हमें एक अरब से अधिक लोगों को ऊर्जा सुरक्षा मुहैया कराने की जरूरत है जिसके लिए कोयला ही एकमात्र रास्ता है।”

हालांकि उन्होंने माना कि ‘संरक्षित जंगलों को कोयला खनन के लिए खोलना बहुत खर्चीला होगा’, लेकिन उन्होंने कहा कि ‘इसके लिए स्थानीय लोगों का समर्थन है जो भूमि अधिग्रहण करवाना चाहते हैं क्योंकि उन्हें बढ़िया मुआवज़ा मिलेगा है।’

छह सालों में संरक्षित वन 30% से 5% पर आ गए

उन्होंने कहा, “हां, कुछ लोगों ने आपत्ति जरूर की है, लेकिन खनन से इन क्षेत्रों में बहुत विकास, रोजगार और पैसा आएगा वरना हम मध्य भारत में इन आदिवासी लोगों को कैसे विकसित कर सकेंगे?”

इस परियोजना के प्रमुख विरोधियों में पूर्व पर्यावरण मंत्री, जयराम रमेश हैं, जिन्होंने मोदी को एक पत्र भी लिखा है, जिसमें कोयले के खदानों की नीलामी की निंदा की गई है।

उनके कार्यकाल के दौरान 2010 में भारत के सबसे बड़े कोयला क्षेत्रों पर एक सर्वेक्षण किया गया था और यह निर्धारित किया गया था कि बाघों, हाथियों और जैव विविधता को सरंक्षित करने के लिए 30% प्रवेश वर्जित क्षेत्र हैं। लेकिन 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद से यह क्षेत्र 30% से घटकर लगभग 5% रह गया है।

जयराम रमेश ने आरोप लगाया है कि यह विशेष रूप से शक्तिशाली कॉर्पोरेट कोयला लॉबी अडानी के दबाव का सीधा परिणाम है।

अडानी समूह को हसदेव अरंड में वर्तमान में खुली हुई दो खदानों के संचालन के लिए अनुबंधित किया गया है, जो वर्षों से जंगल में खनन कार्यों का विस्तार करने पर जोर दे रहा है। यहां तक कि स्थानीय आदिवासी लोगों को अपने पक्ष में लाने के लिए छोटे लोन देने की पेशकश भी की गई है।

उनका का दावा है, “इसके पीछे अडानी हैं जो सरकार पर सबसे प्रभावशाली ताकतों में से एक हैं।”

hasdev arand adivasi

मोदी की कुल्हाड़ी आदिवासियों पर

रमेश ने कहा, “मोदी विश्व स्तर पर एक महान पर्यावरण कार्यकर्ता हैं, लेकिन उनके कदम पर्यावरणीय कानूनों और अधिनियमों को ढीला करने में लगे हुए हैं। कॉर्पोरेट लॉबी बहुत शक्तिशाली है और व्यवसाय विस्तार के लिए कुछ भी करने पर उतारू होती है जिसका खामियाजा पर्यावरण को भुगतना पड़ता है।”

अडानी समूह ने आरोपों को निराधार और राजनीति से प्रेरित बताते हुए खारिज कर दिया और कहा है कि, “कंपनी हमेशा से ही ऊर्जा से वंचित 1.3 अरब आबादी को संतुलित और सस्ती बिजली मुहैया कराने पर जोर देती रही है। दश में प्रति व्यक्ति बिजली खपत दुनिया के औसत से आधी है और तमाम विकसित देशों के मुकाबले दसवां हिस्सा भी नहीं है।”

“अडानी ग्रुप संतुलित एनर्जी मिक्स के भारत के विज़न में योगदान करने वाला अगुवा समूह रहा है और पेरिस समझौते के लक्ष्य को हासिल करने में मददगार है।”

अडानी ग्रुप ने कहा कि इसका लक्ष्य 2025 तक दुनिया की सबसे बड़ी नवीकरणीय ऊर्जा कंपनी बनना है।

(द गार्जियन से साभार। अनुवाद दिव्या।)

(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसकेफ़ेसबुकट्विटरऔरयूट्यूबको फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिएयहांक्लिक करें।)

Workers Unity Team