44 श्रम क़ानून ख़त्म करने की तैयारी, 4 लेबर कोड से काम चलाएगी मोदी सरकार
By बच्चा सिंह
सरकार को श्रम कानूनों में बदलाव व निरस्त करने की जरूरत को मैं इस प्रकार देखता हूं कि अब सरकार खुल्लम खुल्ला देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों की जी-हूजूरी में लग गई है।
इसलिए सरकार के अपने मालिक को सस्ता श्रम उपलब्ध कराने में आड़े आ रहे श्रम कानूनों को खत्म कर देना ही एकमात्र विकल्प दिखा।
श्रम कानूनों को लचीला कर मालिकों के हक में करने की प्रक्रिया में ब्राह्यणवादी हिन्दुत्व फासीवादी मोदी सरकार ने 44 श्रम कानूनों को खत्म करने का फैसला लिया है।
इस 44 श्रम कानूनों की जगह 4 श्रम संहिताएं (लेबर कोड) – मजदूरी संहिता, औद्योगिक सुरक्षा व कल्याण संहिता, सामाजिक सुरक्षा संहिता और औद्योगिक संबंध संहिता – लागू की जाएगी।
इन संहिताओं में यह स्पष्ट है कि श्रम संहिताएं मालिकों के लिए इस हक को सुनिश्चित करेगी कि मालिक अपने मर्जी के मुताबिक मजदूरों को काम पर रख सके व जब चाहे उन्हें मशीन के पुर्जे की तरह काम से बाहर निकाल सके।
स्थायी प्रकृति के रोजगार को खत्म कर ठेकेदारी प्रथा को और भी धड़ल्ले से लागू किया जाएगा। ओवरटाइम के घंटों पर कोई पाबंदी नहीं होगी। कार्यस्थल निरीक्षण की पूरी प्रणाली को खत्म किया जाएगा।
- वर्कर्स यूनिटी को आर्थिक मदद देने के लिए यहां क्लिक करें
- वर्कर्स यूनिटी के समर्थकों से एक अर्जेंट अपील, मज़दूरों की अपनी मीडिया खड़ी करने में सहयोग करें
चार लेबर कोड
44 श्रम कानूनों को खत्म कर 4 लेबर कोड के निर्माण के बाद की स्थिति का अगर अनुमान लगाया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि मजदूरों के सारे अधिकार छीनकर एकबार फिर से मालिकों केे हाथ की उन्हें कठपुतली बना दिया जाएगा।
इसके पीछे एकमात्र कारण सरकार की कारपोरेटपरस्त नीति ही है।
लॉकडाउन के पहले श्रम कानूनों में बदलाव और कोरोनाबंदी के दौरान कई राज्य सरकारों द्वारा श्रम कानून के निरस्तीकरण ने मजदूर वर्ग को बहुत ही ज्यादा प्रभावित किया है।
इसने जहां एक तरफ संगठित मजदूरों से मजदूर होने का सारा हक छीन लिया है, वहीं दूसरी तरफ असंगठित मजदूरों, जिनकी एक बड़ी आबादी खेत मजदूर व निर्माण मजदूर है, के लिए 8 घंटा कार्यदिवस एक सपना जैसा ही है।
संगठित क्षेत्र में काम करने वाले ठेका व कैजुअल मजदूरों के लिए भी 8 घंटा कार्यदिवस गुजरे जमाने की बात हो गयी है।
श्रम कानून पहले से ही असंगठित मजदूरों के लिए बेमानी हो चुके थे और अब तो खुल्लम-खुल्ला श्रम कानूनों में काॅरपोरेट हित में सरकार द्वारा किये गये बदलाव ने असंगठित मजदूरों के शोषण के और भी कई द्वार खोल दिए हैं।
भवन एवं अन्य सन्निमार्ण कर्मकार अधिनियम, 1996 को निरस्त कर सामाजिक सुरक्षा बिल में जोड़ने का मतलब 4 करोड़ भवन निर्माण मजदूरों का पंजीकरण रद्द करना है। नये लेबर कोड लागू होने के बाद मजदूरों की सुरक्षा की गारंटी से भी मालिक मुक्त हो जाएगा।
यूनियनों की सीमाएं
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत में औसतन रोजाना 38 भवन निर्माण मजदूरों की मौत दुर्घटना में होती है, आने वाले दिनों में ये संख्या और बढ़ेगी।
अगर एक पंक्ति में कहें तो श्रम कानूनों में बदलाव व उनके लम्बे समय तक निरस्तीकरण से संगठित व असंगठित मजदूर आबादी चैतरफा प्रभावित होगी और उनके सामने जीवन-मरण का संकट खड़ा हो जाएगा।
आज के समय में श्रमिक आंदोलन की चुनौतियां बहुत ज्यादा बढ़ी है, क्योंकि तथाकथित मुख्यधारा की तमाम श्रमिक यूनियनें मजदूरों के सामने बेनकाब हो चुकी है और क्रांतिकारी श्रमिक यूनियनों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है।
आज हम कह सकते हैं कि तमाम बड़े ट्रेड यूनियन संशोधनवाद व अर्थवाद के दलदल में फंस चुकी है, इन ट्रेड यूनियनों में भारतीय क्रांति का हीरावल दस्ता बनने का कोई लक्षण मौजूद नहीं है।
इसलिए आज क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनों के सामने चुनौती यह है कि कैसे मजदूर आंदोलन को संशोधनवाद व अर्थवाद के दलदल से निकालकर भारतीय क्रांति का हीरावल दस्ता बनायें।
आज यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत की अर्थव्यवस्था नयी साम्राज्यवादी व्यवस्था के साथ चलने के लिए पुरानी सामंती व्यवस्था की ओर तेजी से लौट रही है, उससे यह लगने लगा है कि यह खात्मे की ओर बढ़ रही है।
लेकिन इसका खात्मा अपने आप नहीं होगा। आज जो मजदूर शहरों से गांवों की ओर लौट रहे हैं, वे गांव के भूमिहीन किसान के साथ मिलकर इस काम को अंजाम देंगे।
मजदूर व किसानों के बीच चट्टानी एकता लाकर इस व्यवस्था केे खिलाफ खड़ा करना भी आज श्रमिक आंदोलन की प्रमुख चुनौती है।
मौजूदा मज़दूर आंदोलन की मांगें
- सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में बेचना बंद करो, श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी संशोधन और मालिकोें की गुलामी के चारों श्रम कोड रद्द करो, 21 हजार रूपये मासिक न्यूनतम मजदूरी और 10 हजार रूपये मासिक पेंशन दो।
- तय न्यूनतम मजदूरी लागू करो, नई पेंशन योजना वापस लो, पुरानी पेंशन बहाल करो, सभी स्कीम कर्मियों (आशा, मिड-डे-मिल, आंगनबाड़ी समेत) को श्रमिक का दर्जा दो।
- इस स्कीमों के निजीकरण व एनजीओकरण पर रोक लगाओ, बीमार व बंद उद्योगों और बगानों को चालू करो, सभी ग्रामीण एवं शहरी परिवारों के लिए कारगर रोजगार गारंटी कानून बनाओ, मनरेगा को मजबूत बनाओ।
- रोजगार का स्थायीकरण, ठेका मजदूरों को नियमितिकरण करो, ठेका/ आउटसोर्सिंग खत्म करो, समान काम के लिए समान वेतन व लाभ दो।
- रेल, बैंक, बीमा, डिफेंस, कोयला, इस्पात समेत सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं का निजीकरण बंद करो, 100 प्रतिशत एफडीआई वापस लो, राष्ट्रीय संपत्ति बेचना बंद करो।
- प्रवासी समेत असंगठित, मनरेगा व सभी मजदूरों को 10 हजार रूपये लाॅकडाउन भत्ता व प्रति व्यक्ति 10 किलो अनाज दो।
- प्रवासी समेत सभी मजदूरों को गृह जिले में स्थायी रोजगार दो तथा 500 दैनिक या 15 हजार मासिक न्यूनतम मजदूरी लागू करो आदि। अभी के समय में यही न्यायोचित मांग है।
(झारखंड क्रांतिकारी मजदूर यूनियन के केन्द्रीय अध्यक्ष बच्चा सिंह का साक्षात्कार हरियाणा से स्वतंत्र पत्रकार राजकुमार तर्कशील ने लिया है। ये आलेख ट्रेड यूनियन लीडर बच्चा सिंह के इसी साक्षात्कार पर आधारित है। दूसरा और अंतिम भाग।)
(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।)