श्रम क़ानूनों की कब्र बनाने के ख़िलाफ़ मज़दूर आंदोलन की सुनामी से पहले का सन्नाटा
By बीपी सिंह
अपने देश में सुधारों की ट्रेन काफी तेजी से दौड़ रही है। 90 के दशक से ही उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों को लागू करने के जरिए सुधारों के सिलसिले की शुरुआत हुई। फिर इन सुधारों की चपेट में भारत की अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्र आते चले गये। पर 2014 के बाद से इन सुधारों की गति में हमने भारी तेजी आती देखी।
दरअसल 2007-2008 के अमरीका के भयावह सब प्राइम संकट के बाद जैसे-जैसे उस सामग्रिक संकट का फैलाव होता रहा, वैसे-वैसे इन संकटों से निजात पाने के लिए वित्तीय पूंजी के बड़े खिलाड़ियों और बड़े कॉरपोरेटों ने सुधारों के दूसरे चरण को काफी तेजी से और सख्ती से लागू करना शुरू कर दिया। खासकर पिछड़े देशों पर वे अपने संकट को लादते चले गये।
नतीजतन हम यहां इन सुधारों को लागू करने में भयावह तेजी और सख्ती गौर करते हैं. अपने देश में 2014 के बाद से तो राजग नीत सरकारों ने अंतरराष्ट्रीय पूंजी के बड़े खिलाड़ियों के लिए सुधारों के नाम पर भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को पूरी तरह उनके हवाले करने पर सारी ताकत झोंक दी. जब हम सुधारों के सिलसिले पर व्योरेवार गौर करते हैं, तो साफ़ देखते हैं कि ये सुधार दरअसल अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों के कॉरपोरेटीकरण के सिवा और कुछ नहीं हैं.
इसी क्रम में कृषि को और कृषि से जुड़ी समूची अर्थनीति को पूरी तरह कॉरपोरेटों के हवाले कर देने के लिए पिछले साल तीन कृषि-क़ानून पहले अध्यादेश के रूप में लाये गये और फिर कानून के रूप में। इन कृषि-अध्यादेशों और कानूनों को लाने की पद्धति कितनी अलोकतांत्रिक रही, इनके नतीजे कितने खतरनाक और देशव्यापी होंगे और कितने दीर्घकालीन दुष्परिणाम देने वाले होंगे, इसपर समूचे देश के किसान और जागरूक जन काफी चिंतित और आंदोलित हैं।
तभी तो इधर हमसभी देख और महसूस कर रहे हैं कि इन कृषि-कानूनों के भयावह जन-विरोधी, देश-विरोधी और किसान-विरोधी स्वरूप को इस देश का किसान, आम जन और जागरूक जनमानस कितनी गंभीरता से ले रहा है।
परिणामतः हमारे सामने है आंदोलन के एक सुनामी की तरह गरजता, उछाल मारता और पूरे देश में पसरता जा रहा किसान-आंदोलन जो कदम-ब-कदम एक भारी जन-आंदोलन का रूप लेता जा रहा है। पर अभी आप भारत की खेती-किसानी पर कॉरपोरेटपरस्त भारत सरकार के इस हमले से निपटें तबतक केंद्र सरकार के श्रम मंत्रालय ने भारत के श्रमिक पर भी एक सुनियोजित आक्रमण शुरू कर दिया है।
हम जानते हैं कि भारत को देशी-विदेशी पूंजीपतियों और कॉरपोरेशनों के लिए सस्ते श्रम के एक विशाल बाजार में तब्दील करने के लिए केंद्रीय और राज्य सरकारें 90 के दशक से ही एक-पर-एक श्रमिक-विरोधी काले कानून लाती जा रही हैं। पर 2014 के बाद से तो ऐसे श्रमिक-विरोधी कानूनों को श्रमिकों पर सख्ती से लादने की प्रक्रिया काफी तेज हो गयी है।
साथ ही इन कानूनों के खिलाफ उभर रहे मजदूर-आंदोलनों पर भी उतनी ही सख्ती से दमन ढाये जा रहे हैं। पर 2019 के बाद से तो हद हो गयी। उधर भारत की खेती-किसानी के कॉरपोरेटीकरण की प्रक्रिया जैसे-जैसे तेज हुई, वैसे-वैसे श्रमिक-विरोधी कानूनों को भी और भी नंगई एवं सख्ती से थोपने का सिलसिला तेज हुआ।
पहले न्यूनतम मजदूरी, पेशेगत सुरक्षा, कार्य-स्थलों की स्थिति, सामाजिक सुरक्षा, हड़ताल के अधिकार, कार्य-संस्थानों के नीति-निर्माण में भूमिका, विवादों का निपटारा जैसे सारे मसलों पर श्रम और श्रमिकों से संबंधित 44 श्रम कानून थे। ये कानून भी श्रमिक-विरोधी और मालिकपरस्त ही थे, पर इनसे श्रमिकों के श्रम की मनमानी लूट, उतनी लूट जितनी कि उनके मालिक चाहते थे, शायद संभव नहीं हो रही थी।
अतः 2019 से ही इन 44 श्रमिक-कानूनों को घटाकर मात्र चार श्रम कोड कानून (समझने की सुविधा के लिए हम इन कोड बिलों को श्रम कानून ही कहेंगे) बनाने का सिलसिला शुरू हुआ।
पहले मजदूरी से संबंधित वेज कोड बिल पास कराया गया अगस्त 2019 में। पर मजदूरों और मजदूर-संगठनों के द्वारा जब पूरे देश में इसका विरोध शुरू हुआ तो इसके अमल को तत्काल के लिए रोका गया। रोका गया यह कहकर कि हम जिन 44 श्रम-कानूनों को मिलाकर मात्र चार श्रम-कानून ही बनाना चाहते हैं, उनमे से यह पहला है।
सरकार ने कहा कि हम बाकी तीन श्रम-कानून भी लेकर आ रहे हैं और फिर चारों को एकसाथ लागू करेंगे। मजदूरों के देशव्यापी विरोध के जारी रहने के बावजूद सरकार का श्रम मंत्रालय सितम्बर 2020 में बाकी तीन श्रम-कानूनों को लेकर आया। पहला तो वेज कोड बिल, 2019 था ही।
दूसरा था, सामाजिक सुरक्षा कानून, 2020, तीसरा था, पेशेगत सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थलों की स्थिति कानून,2020 और चौथा था, औद्योगिक संबंध कानून,2020.
मजदूरी तय करने से संबंधित पहले चार कानून थे। अब उन्हें मिलाकर सरकार ने एक ही कानून ला दिया है। इस वेज कोड (वेतन संहिता) के जरिए केन्द्र सरकार ने न्यूनतम मजदूरी सहित अन्य सभी किस्म की मजदूरी तय करने का अधिकार राज्यों से छीनकर अपने हाथों में ले लिया।
इस तरह राज्य सरकारों के अधिकारों में यह कटौती भारत के संघात्मक ढांचे को कमजोर करना और एक अधिनायकवादी शासन थोपने की दिशा में बढ़ता हुआ एक कदम तो है ही।
दूसरे, सरकार जो न्यूनतम मजदूरी तय कर रही है, वह है 178 रुपये प्रतिदिन। तो इस हिसाब से न्यूनतम मासिक वेतन 4628 रुपये हो जाएगा, जबकि भारत की सभी ट्रेड यूनियनें न्यूनतम मासिक वेतन 18000 रुपये करने की मांग कर रही हैं। वैसे बहुत सारे राज्यों में न्यूनतम या मासिक मजदूरी अभी ही जो केंद्र सरकार तय कर रही है उससे अधिक है।
सरकारी कर्मचारियों के लिए भी न्यूनतम मासिक वेतन सातवें वेतन आयोग ने कैलकुलेट किया था 18000 रुपये। ट्रेड यूनियनों की मांग थी 26000 रुपयों की और फिर संयुक्त कमेटी की सिफारिश थी 21000 रुपये प्रति माह। अभी केंद्र सरकार तय कर रही है 18000 रुपये प्रति माह, वह भी कुशल मजदूरों के लिए। इस तरह जो मांग 26000 रुपयों की थी उसे ये 18000 रुपये प्रति माह पर ले आये और अकुशल मजदूरों सहित आम मजदूरों के लिए जो मांग 18000 रुपये प्रति माह की थी उसे ये 5000 रूपये से भी कम पर ले आये।
और अब इस कॉरपोरेटपरस्त एवं मजदूर-विरोधी कानून को ये थोपने पर आमादा हैं। तो यह वेज लेबर कोड, 2019 राज्य सरकारों के अधिकारों का हनन करने के साथ-साथ पूरे देश को कॉरपोरेटों के लिय एक सस्ते श्रम के एकताबद्ध और अनुशासित बाजार में बदल देने की एक पक्की कोशिश के सिवा और कुछ नहीं है।
सामाजिक सुरक्षा कानून, 2020 के तहत सामाजिक सुरक्षा से संबंधित नौ कानूनों को मिलाकर एक कानून बनाया गया है। इसमें भी देखें तो 93 प्रतिशत के करीब असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को विभिन्न बहानों के जरिए सामाजिक सुरक्षा के नेट से व्यवहारतः बाहर कर दिया गया है।
पेशेवर सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थलों की स्थिति से संबंधित पहले तेरह कानून थे। केंद्र सरकार ने इन सभी को मिलाकर अब एक ही कानून बना दिया है। अब ये कह रहे हैं कि सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थलों की स्थिति से संबंधित यह कानून केवल ऐसे कार्य-संस्थानों पर ही लागू होगा जिनमें दस या उससे ज्यादा कर्मचारी होंगे।
इसका मतलब है करीब 93 प्रतिशत वर्कफोर्स इस कानून के दायरे से बाहर होगा। मजदूरों की यह भारी बहुसंख्या दरअसल अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों एवं दिहाड़ी पर और ठेकेदारी में काम करने वाले मजदूरों की ही होगी। इनकी सुरक्षा, सेहत और न्यूनतम सुविधाओं को भी लात मार दी गयी और इन्हें पूंजीपतियों के मुनाफे की खुराक के रूप में उनके सामने ढकेल दिया गया।
अब आप बीड़ी मजदूरों, पत्थर तोड़ने वाले मजदूरों और निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले, रिक्शा व ठेला चलाने वाले, सीवर में उतरने वाले तथा अन्य जगहों में भारी खतरा उठाकर काम करने वाले मजदूरों की सुरक्षा, सेहत और सुविधाओं के बारे में सोचे! किस प्रकार बड़े निगमों और पूंजीपतियों के मुनाफों के लिए इनकी बलि चढ़ाई जा रही है।
औद्योगिक संबंधों से जुड़े कानून पहले तीन थे। अब उन्हें मिलाकर एक बनाया जा रहा है। इस औद्योगिक संबंध कानून, 2020 के तहत सदियों से लड़कर भारत के मजदूर वर्ग ने जिस हड़ताल का अधिकार हासिल किया था, उसे छीना जा रहा है। इसके तहत प्रावधान है कि यदि 50 प्रतिशत लोग कैजुअल लीव (आकस्मिक अवकाश) लेकर हड़ताल करते हैं, तो उसे अवैध हड़ताल माना जाएगा और दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी।
अगर आप ग्रुप बनाकर मैनेजमेंट के पास अपनी मांगों को लेकर जाते हैं तो इसे भी कार्य में व्यवधान डालना माना जाएगा और तदानुसार दंडात्मक कार्रवाई होगी। धरने का अधिकार भी खत्म कर दिया जा रहा है इस कानून में। औद्योगिक विवादों के निपटारे के लिए भी ऐसे प्रावधान किए गए हैं, जो अंततः सख्ती और स्पष्टता से मजदूरों के खिलाफ और मालिकों के पक्ष में जाते हैं।
देशी-विदेशी पूजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों के पक्ष में लाये गये इन चारों श्रमिक-विरोधी कानूनों का स्वरूप सिर्फ मजदूर-विरोधी ही नहीं, बल्कि जन-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी भी है। मजदूर वर्ग और भारत की मेहनतकश जनता ने भारतीय मेहनतकशों पर देशी-विदेशी पूंजी के इस हमले को ठीक-ठीक समझा भी है।
इसकी अभिव्यक्ति हम तब देखते हैं जब भारत की सभी ट्रेड यूनियनें इनके खिलाफ एकजुट हो गयीं। इन्होंने एक-पर-एक कई देशव्यापी हड़तालें कीं जिनमें हाल की 8 दिसम्बर,2020 वाली हड़ताल काफी सफल व प्रभावशाली रही। इन हड़तालों में भारत के मजदूर वर्ग के अलावा भी अन्य मेहनतकशों एवं जागरूक जनता ने सक्रियतापूर्वक भाग लिया।
इन हड़तालों और विरोध-प्रदर्शनों का ही नतीजा था कि केंद्र सरकार ने तत्काल के लिए इन कानूनों के कार्यान्वयन पर रोक लगा दी थी या कहें तो इनके कार्यान्वयन को थोड़े समय के लिए टाल दिया था।
पर आज वित्तीय पूंजी का यानी, देशी-विदेशी पूंजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों का संकट काफी गहरा और सर्वव्यापी है। ऐसे में अपने लूट-खसोट की मात्रा और उसकी तीव्रता को सभी क्षेत्रों में जबर्दस्ती बढ़ाते जाना, सभी क्षेत्रों में सर्वोच्च मुनाफे की गारंटी करने के लिए हर मुमकिन कदम उठाना और उसे कानून, लाठी, गोली, बंदूक के बल पर जैसे भी हो लागू करना उनके अस्तित्व के लिए जरूरी हो उठा है।
अतः जैसे ये भारत की खेती-किसानी पर पूरी तरह नियंत्रण कायम करने के लिए काले कृषि-कानूनों को हर हालत में लादने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं, वैसे ही भारत को सस्ते श्रम के एक बड़े और सुनिश्चित बाजार में तब्दील करने के लिए चारों श्रम-कानूनों को भी हर हालत में लागू करने, यथाशीघ्र लागू करने को कटिबद्ध हैं।
स्पष्ट है कि देशी-विदेशी पूंजी एवं कॉरपोरेटों की चाकर यह सरकार किसान-आंदोलन के इस भारी उभार के बावजूद कृषि-कानूनों को हर हालत में थोपने तक ही सीमित नहीं रहेगी।
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