कोरोना की दवाईयां क्यों हैं इतनी महंगी? कोरोना नहीं, पूंजीवाद ही सबसे बड़ी महामारी भाग-2
अस्पतालों की लूट के बारे में हम पहले बता चुके हैं पर कोविड के इलाज के नाम पर नई-नई दवाओं की बिक्री भी ज़ोर-शोर से ऊँची कीमतों पर हो रही है।
सबसे पहले तो खुद सरकारी आयुष मंत्रालय ने रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के नाम पर होम्योपैथी‘दवा’ आर्सेनिका-30 का प्रचार कर इसकी बिक्री बढ़वाई।
फिर गंभीर साइडइफैक्ट के बावजूद हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन को प्रभावी बचाव करने वाली दवा घोषित कर दिया गया। हालत ये हुई कि गैरज़रूरी पर भारी बिक्री से यह दवा दुकानों से गायब ही हो गई और इसकी वास्तविक जरूरत वाले गंभीर रोगियों को दवा के बगैर भारी तकलीफ उठानी पड़ी। हालत यह हुई कि इसे बनाने वाली कंपनियों को उत्पादन बढ़ाना पड़ा।
उसके बाद ग्लैनमार्क,सिप्ला तथा हेटेरोफार्मा जैसी कंपनियों को ‘फाविपिरावीर’ व ‘रेमदेसीविर’ जैसी दवाइयों को कोविड के इलाज में परीक्षण के तौर पर इस्तेमाल के लिए बिक्री के आकस्मिक लाइसेंस जारी कर दिये गये।
जबकि इसके वास्तविक परीक्षण द्वारा इनके असर का कोई वास्तविक सबूत भी नहीं मिला था।
इन कंपनियों ने भी इन दवाओं को ऊँची कीमत पर बेचना शुरू कर दिया। ग्लेनमार्क एक पत्ते की कीमत 3500/- रु वसूल कर रहा है जिससे एक मरीज को 14 दिन के लिए यह 20 हजार रु से अधिक पड़ती है।
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हेटेरो व सिपला भी उस दवा की एक वायल लगभग 5000 रु में बेच रही हैं जो एंड्रू हिल नाम के शोधकर्ता ने कई साल पहले प्रमाणित किया था कि एक डॉलर में बनाई जा सकती है। इसका कुल इलाज भी लगभग 25 हजार रु पड़ता है।
ऊपर से ये अब बाजार में कृत्रिम कमी पैदाकर 50-60 हजार रु प्रति मरीज तक बेची जाने की खबर है। फिर लाला रामदेव जैसे भी टीवी चैनलों के भारी प्रचार के जरिये अपनी फ्रॉडकोरोनिल की बिक्री शुरू करने में पीछे क्यों रहते जिसका अब पता चल रहा है कि इसका न कोई परीक्षण हुआ है, न इसका कोई असर प्रमाणित है, न किसी दवा नियामक ने कोई अनुमति दी है!
क्या तालाबंदी सही रणनीति है?
मार्च में खुद संक्रमणकी तादाद को बहुत कम बताने वाली सरकार ने विश्व में सबसे सख्त और नृशंसता पूर्वक लागू की गई तालाबंदी का ऐलान किया था।
किन्तु महामारी के चहुंतरफा व्यापक प्रसार के बावजूद अब वही सरकार एक-एक कर प्रतिबंधों को हटाने में जुटी है क्योंकि पूंजीपति वर्ग को पता चला कि तालाबंदी से उनकी मुनाफा कमाई भी बंद हो गई है।
मुनाफे का स्रोत तो मजदूरों द्वारा अपनी श्रमशक्ति द्वारा उत्पादित मूल्य में से उन्हें दी गई मजदूरी के ऊपर सरमायेदारों द्वारा हथिया लिए जाने वाला अधिशेष मूल्य ही है।
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जब तालाबंदी द्वारा उद्योग बंद कर श्रमिकों को ही खदेड़ दिया गया है और मूल्य उत्पादन ही लगभग शून्य हो गया है तो पूंजीपतियों को अधिशेष मूल्य ही कहाँ से हासिल हो सकता है?
चुनांचे, अब उद्योगपतियों ने ताला खोलने की माँग ऊंचे सुर में उठाई बल्कि नारायणमूर्ति जैसे ‘नैतिकता’ के प्रतिमान बताये जाने वाले सरमायेदारों ने तो यहाँ तक कहा कि पूंजीपति वर्ग को हुये नुकसान के मुआवजे के तौर पर अब श्रमिकों को और अधिक अर्थात सप्ताह में 72 घंटे कामकर खोये हुये मुनाफे की भरपाई करनी चाहिये।
तुरंत अनेक राज्य सरकारों ने श्रम क़ानूनों में संशोधन कर इसकी व्यवस्था भी कर दी।
उधर पहले स्वास्थ्य विज्ञान द्वारा सुझाई गई व्यापक जाँच और संक्रमित रोगियों को अलग कर उनके इलाज के लिए व्यापक स्वास्थ्य सेवा ढांचा खड़ा करने की रणनीति के बजाय ताली-थाली, बर्तन-भांडे बजा, मोमबत्ती जला, पटाखे छोड़ पूरी तरह तालाबंदी करने की हिमायत करने वाले मध्य वर्ग के वही पेटू और कुंददिमाग भक्त अब ताला खोलने को ही सर्वश्रेष्ठ उपाय बताने लगे क्योंकि उन्हें पता चला कि खदेड़े जाने का काम सिर्फ मजदूरों के साथ होने वाला नहीं है बल्कि पूरी तरह ठप अर्थव्यवस्था में खुद उनके अपने काम-धंधे दिवालिया होने और छंटनी किए जाने से सुरक्षित नहीं हैं।
अपनी कॉलोनियों की ऊँची दीवारों और ‘फ्लैटों के समाज’ में खुद को सुरक्षित समझ तालियाँ बजाने वालों को जैसे ही पता चला कि उनका आका पूंजीपति सिर्फ श्रमिकों की मजदूरी ही हजम कर नहीं रुकेगा बल्कि श्रमिकों का खून चूसने में उनकी सारी वफादार खिदमत के बावजूद मध्यवर्गीय प्रबंधकों को भी निकाल बाहर करेगा या उनकी पगार में कटौती कर देगा क्योंकि उनकी पगार तो मजदूरों की श्रम शक्ति की लूट से ही दी जाती है तो वे अब उतनी ही दृढ़ता से तालाबंदी उठा लेने के हिमायती हो गये जितने पहले तालाबंदी करने के थे।
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(मज़दूर मुद्दों पर केंद्रित ‘यथार्थ’ पत्रिका के अंक तीन, 2020 से साभार)
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