क्या कोरोना के गले में मोदी सरकार ने सरकारी पट्टा डाल दिया है? – नज़रिया
By धर्मेंद्र जोशी
विहार चुनाव के पूर्ण शोर शराबे व बड़ी-बड़ी रैलियों के साथ सम्पन्न हो जाने के बाद अब फिर से मीडिया व नेताओं को कोरोना नज़र आने लगा है।
कोरोना एक महामारी नहीं बिजली का स्विच हो गया जब चाहे उसे ऑफ़ (निष्क्रिय) कर दो फिर जब चाहे ऑन (सक्रिय) कर दो।
अब ज़रा कोरोना के मामले और मोदी सरकार की संवेदनशीलता पर एक नज़र डाल लेते हैं ताकि इसे समझा जा सके कि आखिर अधिक केस आना भी क्यों मामूली बात होती है और कम केस आना भी क्यों इमरजेंसी जैसे हालात दिखते हैं।
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सरकार के इशारे पर फैलता मीडिया का कोरोना
जब ट्रम्प का नमस्ते इंडिया जैसा मेगाइवेंट होना था, देश विदेश से लाखों लोग एक जगह इकट्ठा होने थे तब शायद मोदी जी ने कोरोना को सुला दिया या फिर उसके दाँत व नाखून निकाल दिये रहे होंगे, मध्यप्रदेश में सरकार उल्टा पलटी करने के दौरान भी कोरोना की तटस्थ भूमिका रही।
फिर मार्च के तीसरे हफ़्ते में कोरोना पहली बार भारत में ज़ोर शोर से ऐक्टिवेट किया गया, 100-200-400 मामले मीडिया की सुर्ख़ियाँ बनने लगी, प्रधानमंत्री इसी बीच जनता कर्फ़्यू लेकर सामने आये, उसके दो दिन बाद ही आनन फ़ानन में 21 दिनों का सम्पूर्ण लॉक्डाउन घोषित कर दिया गया।
उस बीच शुरुआत में कोरोना को आंशिक रूप से सक्रिय किया गया; मंदिरों व तीर्थस्थलों में अटके हुए लोगों के बीच कोरोना को जाने की मनाही थी लेकिन तबलिग़ी जमात पर उसे पूरी ताक़त के साथ टूट पड़ना था। देश भर के एक तिहाई कोरोना तबलीगियों की दाढ़ी व टोपी पर ही उलझे पाये गये।
प्रवासी मज़दूरों की वापसी के जत्थों का कोरोना शायद कुछ अलग मिज़ाज का था, वह पुलिस के डंडों से मर जाता रहा होगा, यही नहीं शायद सरकार के पास इस बात की ख़ुफ़िया जानकारी भी थी कि ट्रेनों व बसों से मज़दूरों को वापस भेजने पर उनका वाला कोरोना पगला जायेगा, वह न केवल बहुत तेज़ी से फैल जायेगा बल्कि ट्रेनों का रास्ता भी भटका देगा।
शायद सरकार के पास मज़दूरों के कोरोना की कमज़ोरी की भी जानकारी थी, हो न हो उन मज़दूरों के शरीरों को भूखा-प्यासा रखकर हज़ारों मील पैदल चलाकर उनके शरीर में घुसे सम्भावित कोरोना को मज़दूरों की मौत मारना ही सरकार का लक्ष्य था।
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कोरोना कैसे बना अवसर?
इसी बीच एक के बाद एक लॉकडाउन लगे, शायद तब तक कोरोना से भी मोदी ने तू तड़ाक वाली दोस्ती गाँठ ली थी, इसीलिये शायद वह उनके कान पर बोल के गया हो कि मुझसे निबटने के लिये मेडिकल सुविधाओं को बढ़ाने के बजाय जन विरोधी, मज़दूर विरोधी बिल पास करना ही आपदा में अवसर होगा, यही रास्ता है, तेज़ी से आगे बढ़ो!
लॉकडाउन में ढील देते ही कोरोना को शराबियों के बीच घुलने मिलने दिया गया, शायद इसके पीछे भी कोई मास्टरस्ट्रोक वाला आयडिया काम कर रहा हो जिसके तहत कोरोना को शराबियों के शरीर में टल्ली कर देना रहा हो।
हैरानी की बात है कीं यह तरकीब काफ़ी हद तक कारगर भी दिखी, इसके बाद कोरोना संक्रमितों की संख्या भले ही बढ़ी हो, मरने वालों की संख्या भी भले बढ़ी हो पर इस शराबी हो चुके कोरोना ने हमारे मीडिया कर्मियों व सरकारों को अपने मादक अदाओं से मोहित कर दिया, अब सबको यह एक भला वाइरस नज़र आने लगा, इससे मरने वालों की चिंता के बजाय इसके द्वारा संक्रमित करके भी ज़िन्दा छोड़ दिये गये लोग ज़्यादा नज़र आने लगे।
अब जब सब मुख्य काम निबट गये तब मौक़ा पाकर सरकार ने फिर से कोरोना को ज़ंजीर से खोल दिया है, अचानक से मामले भी ज़्यादा नज़र आने लगे, मरने वालों की संख्या भी अचानक बढ़ने लगी, मास्क न पहनने पर भारी भरकम उसूली होने लगी।
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असल दोषी कौन?
लेकिन इस बार शायद कोरोना के साथ सरकारों की डील हुई है कि सामाजिक दूरी वाले रूल को रद्द करते हैं अब केवल मास्क-मास्क खेलेंगे, इसीलिये बाज़ारों, गाड़ियों, राजनैतिक कार्यक्रमों में कितनी भीड़ जा रही है वह चिन्ता नहीं है बस मास्क होना ज़रूरी है।
मोदी जी ने कोरोना से दोस्ती की है तो कोरोना भला क्यों न अपनी दोस्ती का फ़र्ज़ अदा करता, उसने मीडिया, बुद्धिजीवियों के दिमाग़ से यह विस्मृत कर दिया कि कोरोना फैलाने के लिये असल दोषी कौन है?
किसने समय रहते विदेशों से विमानों का आना रोकने या उन यात्रियों को क्वॉरंटीन करवाने का काम नहीं किया?
कौन लोग थे जो गौमूत्र, यज्ञों, दीयों व अन्य देशी नुस्ख़ों से कोरोना को भगाने का भ्रम फैला रहे थे?
वो कौन लोग थे जो समय रहते मास्क, टेस्टिंग किट, क्वॉरंटीन सेंटर तैयार नहीं किये?
अब तो लगने लगा है कि यह कोरोना केवल जनता को दोषी ठहराने, ठिकाने लगाने आया है, सरकार के सारे दोष तो बस मानवीय भूल भर हैं। लगता है कोरोना भी फ़ासिवादी रंग में रंग गया है।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)
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