आम जनता के लिए क्यों बेमानी हो चुके हैं पंच वर्षीय चुनाव? -नज़रिया
By मुनीष कुमार
देश में एक बार पुनः 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। उत्तराखंड उत्तर प्रदेश, पंजाब, मणिपुर व गोवा में राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दल तथा निर्दलीय प्रत्याशी एक बार पुनः चुनाव मैदान में हैं। प्रचार माध्यमों से जनता को बताया जा रहा है कि वोट के अधिकार से आप शासन-सत्ता में बदलाव ला सकते हैं अतः मतदान अवश्य करें। चुनाव प्रत्याशी स्वयं को जनता का सबसे अच्छा हितैषी व देशभक्त साबित करने में लगे हैं तथा विपिक्षियों को जनता दुश्मन व देशद्रोही तक बता रहे हैं।
चुनाव आयोग ने प्रत्याशियों के खर्च की सीमा को बढ़ाकर 40 लाख रुपये निर्धारित कर दिया है। जिसका सीधा सा मतलब है कि चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी के पास चुनाव में यदि खर्च करने के लिए न्यूनतम 40 लाख रुपये भी नहीं हैं, तो उसके लिए चुनाव लड़ना औचित्यहीन है।
‘आजादी’ के 74 वर्षों बाद भी जिस देश में 100 करोड़ लोगों की आज भी हालत रोज कुआं खोदकर रोज पानी पीने जैसी हो, उन 100 करोड़ लोगों में कोई भी व्यक्ति इस देश की राज्य विधानसभाओं के चुनाव में खड़े होने की तो बात ही छोड़ दीजिए, उसके लिए नामांकन कराने के लिए 10 हजार रुपये भी उसके लिए जुटा पाना भी बेहद मुश्किल है। यदि कोई व्यक्ति जोड़-तोड़ करके 10 हजार रु से नामांकन कर भी दे तो प्रचार वाहन, विज्ञापन, पर्चा, पोस्टर जनसम्र्पक व प्रचार के लिए किए जाने वाले लाखों रुपये खर्च करने के लिए वह कहां से लेकर आएगा।
चुनाव आयोग ने विधायक प्रत्याशी के लिये 40 लाख व सांसद प्रत्याशी के लिये 70 लाख रुपये खर्च की सीमा निर्धारित की है। वहीं राष्ट्रीय दलों के प्रत्याशियों के लिए खर्च की कोई सीमा नहीं है। अप्रैल माह में संपन्न हुये 4 राज्यों के विधानसभा चुनावों में चुनाव आयोग की बेबसाइट के अनुसार भाजपा के प. बंगाल, पुंडुचेरी, असम व तमिलनाडू के चुनाव में कुल 415 प्रत्याशियों का चुनाव खर्च 252 करोड़ रु. से कुछ अधिक था। यानी कि एक प्रत्याशी ने खर्च की सीमा 40 लाख के मुकाबले डेढ़ गुना राशि खर्च की।
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के 437 प्रत्याशियों ने कुल 1264 करोड़ रुपये की धनराशि खर्च की। एक संसदीय सीट पर 70 लाख के मुकाबले चार गुना से भी ज्यादा 2.89 करोड़ रुपये। उक्त राशि तो वह है जो चुनाव आयोग को भाजपा ने बताकर न. 1 में खर्च की है। सेंटर फाॅर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में राजनैतिक दलों ने लगभग 60 हजार करोड़ रुपये खर्च किए। एक सीट पर 100 करोड़ रुपये से भी ज्यादा। इसमें से सवार्धिक 20 से 25 हजार करोड़ रुपये विज्ञापनों पर खर्च किए गये। सीएमएस के अनुसार इसका 45 प्रतिशत अकेले भाजपा के द्वारा किया गया। जिसका मतलब है कि भाजपा ने अकेले ही चुनाव जीतने के लिए 27 हजार करोड़ रुपये फूंक दिये। एक संसदीय सीट पर 70 लाख की खर्च सीमा के मुकाबले 61.78 करोड़ रुपये। ऐसे में भारत की चुनावी प्रक्रिया को निष्पक्ष व लोकतांत्रिक कहना मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं हैै।
दल बदल में कौन किसी पार्टी का
सच्चाई ये है कि देश के किसी भी राज्य की विधानसभा अथवा लोकसभा हो, इनमें जीतकर पहुंचने वाला व्यक्ति कोई भी मजदूर छोटा/मध्यम किसान, बेरोजगार, छोटा दुकानदार, रिक्शा-टैम्पों चालक, बस- ट्रक ड्राईवर अथवा निम्न आयवर्ग का कोई भी व्यक्ति विधायक अथवा सांसद का चुनाव नहीं जीत सकता। देश की विधानसभा व लोकसभा में जो भी लोग अभी तक जीत कर पहुंच रहे हैं, इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए जो वे सभी धनी व पूंजीपति वर्ग से ही हैं।
पिछले चुनावों की तरह इन चुनावों में भी जनता के जीवन से जुड़े वास्तविक मुद्दों के मुकाबले जाति-धर्म ही प्रधान है। किसी भी विधानसभा सीट पर मतदाताओं का मूल्यांकन उनके वर्ग के अनुसार नहीं किया जा रहा है। मसलन विधान सभा सीट पर मजदूर, गरीब व मध्यम किसान, धनी किसान, कर्मचारी, छात्र, बेरोजगार व विभीन्न पेशों में लगे लोगों की अलग-अलग संख्या कितनी है। बल्कि जनता के बीच में जातिवाद व धार्मिक भेदभाव का जहर घोला जा रहा है। मतदाताओं की संख्या का मूल्यांकन उनकी जाति व धर्म के अनुसार किया जा रहा है।
मीडिया के माध्यम से बताया जा रहा है किस दल ने कितने ठाकुर पंडित, मुसलमान आदि को टिकट दिया है। ये नहीं बताया जा रहा है कि किस दल ने किस मजदूर अथवा रिक्शाचालक को टिकट दिया है। मीडिया व विभीन्न राजनैतिक दलों द्वारा ये काम जनता के ऊपर शासन करने के लिए अंग्रेजो द्वारा अपनाई गयी फूट डालो और राज करो की नीति का ही एक हिस्सा है।
चुनाव में कुर्सी पाने की चाहत ने राजनैतिक दलों के बीच की राजनैतिक विचारधारा के फर्क को लगभग मिटा दिया है। कुर्सी पाने की चाहत में किसी भी दल का नेता रातों-रात पार्टियां बदल रहा है। पता ही नहीं चल पा रहा है कि कौन से दल का नेता अब किस दल में है। ‘बड़े-दिग्गज’ नेता अपने पुत्र पुत्रियों को चुनावी टिकट के लिए मोलभाव कर रहे हैं। एक दल से दूसरे दल में जाने में उनकी आंख में जरा भी शर्म व हया नहीं बची है।
स्वयं को धर्म निरपेक्ष घोषित करने वाले कांगेस, सपा, बसपा व आप जैसे दलों में भाजपा से आए नेताओं को टिकट व पार्टी की सदस्यता देने में कोई हिचक नहीं है। इसी तरह भाजपा भी उन लोगों को टिकट देने मेें छड़ भर की देरी नहीं कर रही है जो भाजपा को कल तक दंगा कराने वाली पार्टी कहते रहे हैं।
भाजपा कांगेस से लेकर सपा बसपा समेत ज्यादातर दलों के बीच की वैचारिक विभाजक रेखा बेहद महीन व धुंधली है। उ.प्र में बसपा भाजपा व सपा के साथ गठबंधन में सरकार चला चुकी है। पिछले 2019 के लोकसभा चुनावों में सपा बसपा एकसाथ मिलकर उ.प्र में चुनाव लड़ रहे थे। इस बार ये दोनो दल आमने-सामने हे। पंजाब में कांगेस को गाली देने वाले पूर्व क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू भाजपा छोड़कर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं।
कांगेस के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह पंजाब लोक कांग्रेस के नाम अपना अलग दल बनाकर भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ रहे है। उत्तराखंड में हरीश रावत की कांग्रेस सरकार गिराने के लिए जिम्मेदार हरक सिंह रावत, यशपाल आर्या भाजपा छोड़कर पुनः कांगेस में हैं। सरिता आर्या व कांगेस के पूर्व उत्राखंड अध्यक्ष किशोर उपाध्याय अब कांगेस छोड़कर भाजपा के टिकट से चुनाव लड़ रहे हैं। उ.प्र. भाजपा सरकार में मंत्री रहे स्वामी प्रसाद मौर्य इस बार सपा से चुनाव लड़ हैं।
सांप्रदायिक राजनीति का मालिक बीजेपी अकेले नहीं
देश का विपक्ष जो स्वयं को धर्मनिरपेक्ष राजनीति का ठेकेदार मानता है, देश का सबसे बड़ा अवसरवादी है। यदि आज देश में साम्प्रदायिकता की बिष बेल पनपी है और मोदी का फासीवादी राज कायम हुआ है तो इसमें इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की भी कम बड़ी भूमिका नहीं है।
इमरजेंसी के बाद 1977 में कांग्रेस विरोध के नाम पर गैर कांग्रेसी विपक्ष दलों द्वारा भारतीय जनसंघ (भाजपा का पूर्ववर्ती संगठन) के साथ जनता पार्टी बनाई थी तथा मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी देश की गद्दी पर काबिज हुयी थी। तब सत्ता पाने के लिए विपक्ष को साम्प्रदायिक भारतीय जनंसघ से कोई आपत्ति नहीं हुयी थी। अटल विहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवानी उस सरकार में मंत्री थे। जनता पार्टी की सरकार 3 वर्ष भी नहीं चल पायी और वह कांग्रेस का ही दूसरा संस्करण साबित हुयी।
राजीव गांधी द्वारा किए गये बोर्फोंस तोप घोटाले व भ्रष्टाचार के सवाल के खिलाफ गैर कांग्रेसी विपक्ष एक बार पुनः एकजुट हुआ और बीपी सिंह के नेतृत्व में 1989 में संयुक्त मोर्चा की सरकार अस्तित्व में आयी। कांग्रेस विरोध के नाम पर अस्तित्व में आयी इस सरकार की खासबात ये थी कि इस कथित धर्मनिरपेक्ष सरकार को देश के नामधारी कम्युनिस्ट तथा भाजपा, दोनों ने एक साथ समर्थन दिया हुआ था। ये वो दौर था जब देश में भाजपा का राम मंदिर आंदोलन जोरों पर था। उस समय संयुक्त मोर्चा व मोर्चे में शामिल लालू यादव को इस साम्प्रदायिक भाजपा से समर्थन लेने में कोई परहेज नहीं था। संयुक्त मोर्चे की सरकार दो साल भी नहीं चल पायी और भाजपा द्वारा समर्थन वापस लेने के कारण गिर गयी थी।
सच्चाई यह है कि कुर्सी ही भारतीय राजनीति की विचारधारा बन चुकी है। जनता को अलग-अलग नामों व झंडों के साथ दिखाई देने वाले इस सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच खिंची हुयी विचारधारात्मक विभाजक रेखा इतनी महीन व कमजोर है कि उसे लांघने में किसी भी दल या नेता को बिल्कुल भी वक्त नहीं लगता।
भाजपा को साम्प्रदायिक बताने वाले नेता, रातों-रात पाला बदलकर भगवा चोला धारण कर भाजपा में चले जाते हैं। वहीं कट्टर भाजपा नेता को पार्टी छोड़कर दूसरे दलों में शामिल होने के लिए बिल्कुल भी संकोच नहीं होता।
2001 में ममता बनर्जी वाजपेयी के नेतृन्व वाली एनडीए सरकार में रेल मंत्री के पद पर विराजमान थीं। वहीं ममता बनर्जी व अन्य आजकल भाजपा को साम्प्रदायिक बताकर ‘भाजपा भारत छोड़ो’ का नारा दे रही हैं।
भाजपा खुली साम्प्रदायिक राजनीति करती है तो कांग्रेस व दूसरे दल छुपकर साम्प्रदायिक राजनीति करने की माहिर खिलाड़ी हैं। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेसी शासन में हुए सिख विरोधी दंगों को देश आज तक भूला नहीं है। इन दंगों के बाद राजीव गांधी 425 लोकसभा सीटों के साथ प्रचंड बहुमत बहुमत से प्रधानमंत्री बने थे। 80 के दशक में भागलपुर, मेरठ, मुरादाबाद आदि दंगे कांग्रेस शासन की ही देन थे। जबकि कांग्रेस आज जो स्वयं को धर्मनिरपेक्षता व विपक्षी एकता का सिरमौर बता रही है।
भाजपा को हराने के बाद क्या?
साल 1980 में चौधरी चरण सिंह की केन्द्र सरकार कांग्रेस ने ही गिराई थी। 1996-1997 में कांग्रेस के समर्थन से चल रही संयुक्त मोर्चा सरकार गिराकर भाजपा के केन्द्र में काबिज होने का रास्ता कांग्रेस ने ही प्रशस्त किया था।
हमारे देश का राजनीति तंत्र इस तरह से विकसित किया गया है जिसमे एक बार वोट देने के बाद जनता के हाथ 5 साल तक के लिए काट दिये जाते हैं। जनता द्वारा चुने गये नेता व दल अपनी मनमानी करने लगते हैं। सांसद व विधायक जनता के सेवक की जगह जनता का मालिक बन शासन चलाते हैं। हमारे देश की जनता 5 साल में एक बार इन्हें गद्दी तक पहुंचा तो सकती है परन्तु इन्हें गद्दी से उतारने की ताकत जनता के हाथ में नहीं है। देश का संविधान चुने हुये सांसदों व विधायकों को वापस बुलाने का अधिकार जनता को नहीं देता है।
जितने भी मुख्य दल चुनाव लड़ रहे हैं वे सभी दल नवउदारवादी नीतियों के पैरोकार हैं। कुछ वामपंथी दल भी भाजपा को हराने का अभियान चला रहे हैं। उनका ये अभियान नवउदारवादी नीतियों के प्रति जनता के संघर्षों की धार को कुंद करने वाला है तथा जनता के बीच विभ्रम पैदा कर रहा है कि देश की समस्याओं के लिए मात्र भाजपा ही जिम्मेदार है।
सवाल उठता है कि भाजपा को हराने के बाद क्या? भाजपा को हराने के बाद जो दल सत्ता में आएंगे, वे सत्ता में आने के बाद क्या करेंगे। पंजाब में कांग्रेस सत्ता में है तो क्या वहां पर आम आदमी की जिंदगी देश के दूसरे राज्यों से बेहतर है? क्या उत्तराखंड में 2012 से 2017 तक कांग्रेस की सरकार ने तथा उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार ने जनता को एक अच्छा शासन व अच्छा जीवन दिया था जिसे भाजपा ने आकर बरबाद कर दिया? ये बात सही है कि भाजपा ने देश की जनता के जीवन को पिछले 7-8सालों में बहुत तेजी के साथ तबाह-बरबाद किया है। परंतु इस तबाही बरबादी में देश के दूसरे राजनैतिक दलों की भूमिका भी कम नहीं है।
किसानों की जमीन छीनने में कांग्रेस व सपा जैसी सरकारे भी कभी पीछे नहीं रही हैं। 2006 में मुलायम सिंह यादव की सरकार द्वारा दादरी में किसानों की जमीने छीनकर रिलायंस को सुपुर्द करने की घटना शायद जनता की याद से विस्मृत हो गयी है। 1991 की जनविरोधी आर्थिक नीतियों की जनक कांग्रेस ही रही है। 2013 में वालमार्ट को खुदरा व्यापार के लिए 100 प्रतिशत निवेश की छूट मनमोहन सिंह सरकार द्वारा ही दी गयी थी।
भाजपा कांग्रेस सपा बसपा आप व यहां तक की सीपीआई सीपीएम जैसे राजनैतिक दलों में से कोई भी दल ऐसा है जो देश में साम्राज्यवादपरस्त नीतियों के खिलाफ हो । जिसके एजेंडे में विश्व व्यापार संगठन, अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक की नीतियों को त्यागकर देश को आत्मनिर्भर विकास तरफ उन्मुख करना हो।
वित मंत्रालय के अधीन निवेश और लोक परिसम्पत्ति प्रबंधन विभाग के अनुसार 1991 से लेकर अब तक 5 लाख करोड़ रु. की सरकारी सम्पत्ति बेची जा चुकी हैं। इस दौरान दौरान केन्द्र में कांग्रेस गठबंधन भाजपा गठबंधन व सीपीआई सीपीएम वाली संयुक्त मोर्चा की सरकारें शासन कर चुकी हैं। सभी ने मिलकर इस विनिवेश नीति को आगे बढ़ाया है। फर्क इसमें मात्र इतना है भाजपा इसे तेजी कर कर रही है शेष ने इसे अपेक्षाकृत धीमी गति से किया है।
गैर-भाजपा सरकारें क्या कर रही हैं?
देश में अमारी व गरीबी की खाई को बढ़ाने व बनाए रखने के लिए भी देश की विधानसभा व लोकसभा जिम्मेदार हैं। देश की जनता के ऊपर एक तरफ जीएसटी उत्पाद कर वैट आदि के माध्यम से करों का बोझ लाद दिया गया है। वहीं दूसरी तरफ पूंजीपतियों पर लगने वाले कारपोरेट कर की दर लगातार कमी की गयी है। पैट्रोलियम पदार्थाें- डीजल-पैट्रोल पर राज्य सरकारें भी वैट के रुप में 25-30 रु प्रति लीटर से भी अधिक का टैक्स वसूल रही हैं।
पैट्रोल-डीजल की उत्पादन की उत्पादन लागत 30 रु लीटर से भी कम है। परन्तु राज्य व केन्द्र सरकारे इस पर मिलकर 50-60 रु. प्रति लीटर का टैक्स वसूल कर रही हैं। पंजाब-राजस्थान की कांग्रेस सरकार हो या दिल्ली की आप सरकार अथवा प. बंगाल की ममता बनर्जी की सरकार हो सभी सरकारें पैट्रोलियम मूल्य वृद्धि के लिए केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहराती हैं। परन्तु अपने द्वारा वैट के रुप में वसूला जाने वाला प्रत्यक्ष कर वे हटाने के लिए तैयार नहीं हैं।
जनता के वोटों से चुने विधायक व सांसद को 2 लाख से लेकर 5 लाख रु. प्रतिमाह वेतन व भत्ते मिलते हैं। पेंशन अलग से। वहीं दूसरी ओर इन्हें वोट करने वाली जनता के लिए आवास रोजगार शिक्षा स्वास्थ्य की हालत बेहद खराब है। सरकारों ने श्रमिकों के लिए न्यूनतम वेतन की दर बेहद कम निर्धारित की है। हालत यह है कि लगभग सभी राज्यों में पूंजीपति वर्ग की तो बात ही क्या राज्य सरकारें स्वयं भी न्यूनतम वेतन देने के लिए तैयार नहीं है।
महिलाओं का तो ये सरकारें बेहद निर्ममता के साथ शोषण कर रही हैं। भोजन माता, आशा कार्यकर्तियों, व आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को सरकार वेतन के स्थानपर नाममात्र का मानदेय ही देती है। एक बार विधायक बनने के बाद जीवन भर पेंशन पाने वाले विधायक वृद्धों, विधवाओं आदि के लिए इन्होंने नाममात्र की पेंशन का ही प्रावधान किया है।
देश की जनता के सामने शिक्षा स्वास्थ्य रोजगार आवास महंगाई जैसी समस्याएं मुंह फाड़कर खड़ी है। इन चुनावों के बाद बनने वाली सरकारों का भी वही हश्र होगा, जो अब तक कि सरकारों का रहा है। विधानसभा में बैठकर ये मजदूर मेहनतकश वर्ग के पक्ष में नीतियां बनाने की जगह देश के कारपोरेट घरानों बहुराष्ट्रीय निगमों बड़े जमींदारों के पक्ष में नीतियां बनाएंगे। जनता को भूख अभाव लाचारी से बाहर निकालने के लिए इनके पास कोई भी कारगर योजना का अभाव है।
किसी भी सरकार का शासन आ जाए वह कोरपोरेट घरानों बहुराष्ट्रीय निगमों के हित में ही काम करेगी। पीपुल्स रिसर्च आन इंडियाज कन्ज्यूमर इकनामी के ताजा सर्वे के अनुसार देश के 20 प्रतिशत सबसे गरीब लोगों की सालाना आय में 53 प्रतिशत की कमी हुयी है। निम्न मध्यमवर्ग के 20 प्रतिशत परिवारों की सालाना आय में 32 प्रतिशत की कमी हुयी है। वहीं देश के सबसे अमीर 20 प्रतिशत लोगों की की आय 20 प्रतिशत तक बढ़ गयी है।
देश की व्यापक 80 प्रतिशत आबादी की इन चुनाव में भूमिका मात्र वोट डालने तक ही सीमित है। इनकी चुनावों में भूमिका मूक दर्शक से ज्यादा कुछ नहीं है। देश व दुनिया में अभी तक जो प्रभावशाली परिवर्तन हुए हैं वह वोट से नहीं बल्कि वह मेहनतकश जनता के संघर्षों एवं संगठन के दम पर ही हुए हैं।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और समाजवादी लोकमंच के संयोजक हैं।
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