निजीकरण-2ः क्या सरकारें कोयला खदानों को अपनी जागीर समझती हैं?
By ए. प्रिया
मोदी जी ने कोयले को भारतीय अर्थव्यवस्था का एक अतिआवश्यक स्तम्भ बताते हुए बड़ी धूर्तता से इस स्तम्भ को खोखला कर निजी कंपनियों को सौंपने के कई फायदे भी बता दिए हैं।
उन्होंने कहा कि, “वाणिज्यिक खनन से कोल सेक्टर दशकों के लॉकडाउन से बाहर निकलेगा।”
पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए समर्पित सरकार से और क्या ही उम्मीद की जा सकती है। पहले तो सरकारी कंपनियों में विनिवेश और सरकारी भ्रष्टाचार कर उसे ध्वस्त कर दो, फिर जब वह घाटे में जाने लगे तो उसे ‘बीमार यूनिट’ घोषित करके उसे “बचाने” के नाम पर औने-पौने दामों में निजी कंपनियों के हवाले कर दो।
मोदी सरकार के आने के पहले भी कोल जगत को पूंजीपतियों को सौंपने की तैयारी चल रही थी। 1993-2008 के बीच 214 कोल ब्लॉक निजी कंपनियों को आवंटित किया गया था जिस पर सीएजी की मार्च 2012 की रिपोर्ट में सरकार पर कोल के आवंटन में ‘अक्षम’ होने का आरोप था।
और इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने ना तो सरकार की दलीलें सुनीं और ना निजी मालिकों का निवेदन और 2014 में इन सारे 214 आवंटनों को ख़ारिज़ कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि, “… सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि वे देश के प्राकृतिक संसाधनों को चंद लोगों की जागीर नहीं समझें जो इन्हें अपनी इच्छा अनुसार कभी भी कैसे भी नष्ट कर सकते हैं।”
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कोयला खदानों के बाद भारतीय रेलवे का नंबर
इसका साफ अर्थ है कि तब सर्वोच्च न्यायालय ने आम जनमानस के हितों के खिलाफ जा कर मुट्ठीभर पूंजीपतियों की जेबें भरने वाले वाणिज्यिक खनन की नीति के विरुद्ध अपना फैसला सुनाया था।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के पीछे की मंशा साफ थी कि देश के संसाधनों का खनन आम जनता के कल्याण और हित के लिए किया जाए और इन्हें उन बड़े धन्नासेठों और पूंजीपतियों को ना सौंपा जाए जो इसका अपने मन मुताबिक भक्षण करें।
लेकिन आज की स्थिति इसके बिलकुल विपरीत हो गई है। अब सत्ता की बागडोर एक फासीवादी पार्टी के हाथ में है जिसने बखूबी सभी जनतांत्रिक संस्थाओं को खोखला कर उन्हें भीतर से कब्जे में कर लिया है।
और अब उनका इस्तेमाल ठीक वही करने के लिए कर रही है जिसका 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने विरोध किया था।
मौजूदा सरकार अभूतपूर्व तेजी से निजीकरण के रास्ते पर बढ़ गई है और सभी सरकारी कंपनियों एवं प्राकृतिक व अन्य संसाधनों को पूंजीपतियों की झोली में डालते जा रही है।
विगत 1 जुलाई को सरकार ने रेलवे में निजीकरण करने का फैसला भी सुना ही दिया, जिसके तहत 109 रूट पर पैसेंजर ट्रेनें चलाने का जिम्मा निजी कंपनियों को सौंपने का फैसला किया गया है।
लेकिन इसके खिलाफ अब किसी जनतांत्रिक संस्थान से कोई आवाज नहीं उठ रही, क्योंकि न्याय व्यवस्था और अन्य सभी संस्थानों को मूकदर्शक बना दिया गया है जिनके पास सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ बोलने की कोई क्षमता नहीं बची है।
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राज्यों में शुरू हो गए विरोध
लेकिन कुछ विरोधी आवाजें अभी भी बाकी हैं। जैसे, छत्तीसगढ़ के 20 ग्राम पंचायत के प्रतिनिधियों ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख कर कोल ब्लॉक की नीलामी रोकने और उनके इलाके में हमेशा के लिए खनन प्रतिबंधित करने का आग्रह किया है।
छत्तीसगढ़ की कांग्रेस की सरकार ने भी पर्यावरण और जैव विविधता को होने वाले नुक्सान को कारण बताते हुए केंद्र की वाणिज्यिक खनन के लिए नीलामी की प्रक्रिया की मुख़ालफ़त की है।
हालांकि कांग्रेस के चरित्र को देखते हुए यह दिखावा मात्र ही है। भारत के सबसे बड़े कोयला-उत्पादन करने वाले राज्य, झारखंड, की सरकार ने भी केंद्र के इस फैसले के खिलाफ 3 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय में केंद्र सरकार के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया है।
कोरोना महामारी ने पूरे पूंजीवादी व्यवस्था की कमियों को उजागर करते हुए यह साफ कर दिया कि किसी महामारी को संभालने में क्या नहीं करना चाहिए।
कोरोना महामारी से निबटने का पहला पाठ है निजीकरण को पीछे करके लोक कल्याण प्रणाली और पब्लिक सेक्टर को बेहतर करना। जो देश अपने निजी स्वाथ्य सेवाओं के बल पर स्वास्थ्य सुविधाओं में दुनिया में अव्वल आते थे, वे कोरोना के बढ़ते मामलों के सामने पूरी तरह धराशाई हो गए हैं। पूंजीवाद के सारे स्वर्ग देखते ही देखते जमीन पर आ गिरे हैं।
अब उन सुविधा संपन्न देशों में लाखों लोग मारे जा रहे हैं और सरकार के पास उन्हें दफनाने के लिए भी जगह नहीं बची है। ऐसा क्यों हुआ कि ये तथाकथित समृद्ध और विकसित देश अपनी जनता की जान तक नहीं बचा पाए? ऐसा इसलिए क्योंकि इनकी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का उद्देश्य कभी लोगों को बचाना था ही नहीं।
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कोयला मज़दूरों पर हमला
ये तो बनी ही थी केवल मुनाफा कमाने के मकसद से। भारत की बात करें तो हमने देखा है कैसे बढ़ते संक्रमित मामलों का भार सरकारी अस्पतालों के कमजोर कंधों पर ही आ पड़ा।
वे कितने भी जर्जर अवस्था में क्यों ना हों, उनके समकक्ष के निजी अस्पतालों ने पहली बुरी खबर के साथ ही अपने दरवाजे जनता के लिए बंद कर लिए।
मुनाफे पर टिकी निजीकरण की व्यवस्था घोर रूप से जनविरोधी या कम से कम जनता की जरूरतों से पूरी तरह बेखबर होती है और पूंजीपति वर्ग बेबस और लाचार जनता का भक्षण करके अपनी तिजोरियां भरता जाता है।
मोदी सरकार द्वारा कोल जगत के मजदूरों पर यह अभी तक का सबसे बड़ा हमला है।
हालांकि सीआईएल ने अपने बयान में कहा है कि वाणिज्यिक खनन उन्हें “प्रभावित नहीं करेगा”, लेकिन यह समझना मुश्किल नहीं कि आधुनिक तकनीक, सस्ते श्रम और सरकार के समर्थन के साथ उतरी इन निजी कंपनियों के बीच की प्रतिस्पर्धा में सरकारी कोल इंडिया लिमिटेड को केवल बाजार में बने रहने के लिए भी मशक्कत करनी होगी, अपने मुनाफे की दर को बरकरार रखने की तो बात ही छोड़िए।
और जैसे-जैसे कंपनी का मुनाफा गिरना शुरू होगा, इसकी सबसे बड़ी मार मजदूरों पर ही पड़ेगी। स्थाई मजदूरों की बकाया पगार और अन्य सुविधाएं स्थगित की जा सकती हैं।
बाजार की कट्टर प्रतिस्पर्धा के कारण बढ़ी हुई मांग की पूर्ति के लिए काम के घंटे बढ़ाए जा सकते हैं। हायर एंड फायर की मजदूर विरोधी नीति और फिक्स्डटर्मएम्प्लॉयमेंट (एफ.टी.ई.) के कारण मजदूर अपनी पीएफ, पेंशन और बाकी अधिकार भी खो दे सकते हैं।
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भारत के मज़दूर वर्ग के सामने संकट की घड़ी
मजदूरों की दुर्घटना में हुई मौत या काम करने योग्य नहीं रह जाने की स्थिति में उनके आश्रितों को दी जाने वाली नौकरी भी खतरे में आ सकती है। खबर है कि अभी कुछ दिन पहले (26 जून) को ही सीआईएल के अधिकारियों के लिए वीआरएस का आदेश आ चुका है।
श्रम कानूनों में किए जा रहे मजदूर विरोधी बदलावों के तहत मजदूर अपने सभी अधिकार जैसे, न्यूनतम मजदूरी, यूनियन बनाना, हड़ताल करना, आदि खो देंगे और उनसे उनकी सुविधाओं के लिए मोल-भाव करने की शक्ति भी छिन जाएगी।
इससे लड़ने के लिए मजदूरों को अपने सुविधापरस्त जीवन से बाहर निकला होगा और इन अधिकारों के लिए एकजुट हो कर सरकार की इन दमनकारी नीतियों के खिलाफ संघर्ष करना होगा।
बीती 2 जुलाई से कोल जगत के मजदूर यूनियनों ने मुख्यतः वाणिज्यिक खनन के लिए कोल ब्लॉक नीलाम करने के विरोध में तीन दिवसीय हड़ताल बुलाई थी। सेंट्रल ट्रेड यूनियनों ने भी अपनी 3 जुलाई की अखिल भारतीय विरोध प्रदर्शन में इस हड़ताल का समर्थन किया था। लेकिन इन सबके बाद क्या? क्या निजीकरण की प्रक्रिया रोक दी गई? नहीं।
अपनी अपूर्ण मांगों की पूर्ति के लिए केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के पास अब आगे की कार्रवाई की कोई दिशा मौजूद नहीं है। हड़ताल मजदूर वर्ग का एक प्रबल हथियार है। इससे वे मालिकों पर दबाव बना कर उन्हें अपनी मांग मानने पर मजबूर कर सकते हैं।
लेकिन इस हथियार को अपने असली लक्ष्य से दूर, केवल रस्म-अदाएगी तक सीमित करके इसे कमजोर और भेद्य बना दिया गया है। अतः मालिक वर्ग/सरकार उन्हें तव्वजों नहीं देती। लेकिन आशा है की यह स्थिति जल्द ही बदलेगी।
भारत के संगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए जल्दी ही एक निर्णायक घड़ी आने वाली है।
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लड़ने को कितने तैयार मज़दूर?
उन्हें तय करना होगा कि क्या वे मजदूर यूनियनों की पुतला दहन, नारेबाजी और दो-तीन दिवसीय हड़ताल से संतुष्ट रह कर अपने लड़ कर हासिल किये गए अधिकारों को यूंही गंवा देना चाहते हैं या मजदूर वर्ग की सच्ची क्रांतिकारी एकता बना कर निजीकरण, वाणिज्यिक खनन, श्रम कानूनों में बदलाव और अन्य सभी मजदूर-विरोधी नीतियों के खिलाफ आर-पार की लड़ाई तेज करना चाहते हैं।
केंद्रीय ट्रेड यूनियनों को भी अपनी पुरानी बेड़ियों को तोड़ कर इस फासीवादी राज्य के खिलाफ आखिरी दम तक लड़ने के लिए तैयारी करनी होगी, नहीं तो यूंही खत्म हो जाने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जायेगा।
इतिहास के इस मोड़ पर जरूरत है मजदूर वर्ग के एक ऐसे जुझारू केंद्र की, जो अभी तक के सबसे दमनकारी और शातिर पूंजीपति वर्ग के खिलाफ मजदूर वर्ग का एक बड़ा और सशक्त आंदोलन खड़ा कर सके और उनके सामने एक ऐसा मांग-पत्र पेश कर सके जिसमें उनकी आर्थिक मांगों के लिए तात्कालिक संघर्ष के साथ मजदूर वर्ग का दीर्घकालिक लक्ष्य का भी गूंथा हुआ हो।
यह लक्ष्य और कुछ नहीं बल्कि इस लूट और शोषण पर टिके समाज को बदलकर एक सुन्दर, शोषणमुक्तसमाज बनाने का सपना है। अब मजदूरों के समक्ष यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि बिना इस निर्णायक लड़ाई के पूंजीपति वर्ग का हमला रुकने वाला नहीं है।
यह भी साफ हो कि बिना इस निर्णायक लड़ाई के पूंजीपतियों का कोई हमला रुकने वाला नहीं है।
(मज़दूर मुद्दों पर केंद्रित ‘यथार्थ’ पत्रिका के अंक तीन, 2020 से साभार)
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