जानें मार्क्स के वे 4 विचार जो अभी भी उतने ही सच साबित हो रहे हैं

जानें मार्क्स के वे 4 विचार जो अभी भी उतने ही सच साबित हो रहे हैं

मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक कार्ल मार्क्स का पांच मई 2020 को 202वां जन्मदिवस है।

उन्होंने 19वीं शताब्दी में काफ़ी कुछ लिखा, लेकिन आज भी इसमें कोई विवाद नहीं है कि उनकी दो कृतियां ‘कम्युनिस्ट घोषणा पत्र’ और ‘दास कैपिटल’ यानी ‘पूंजी’ ने एक समय दुनिया के कई देशों और करोड़ों लोगों पर राजनीतिक और आर्थिक रूप से निर्णयात्मक असर डाला था।

रूसी क्रांति के बाद सोवियत संघ का उदय इस बात का उदाहरण रहा है। बीसवीं शताब्दी का पूरा इतिहास समाजवादी खेमे के मज़बूत होने का गवाह रहा है।

हालांकि मज़दूर वर्ग की ये जीत बहुत स्थाई साबित नहीं हो पाई लेकिन आज भी जब मंदी, महामारी, ग़रीबी, बेरोज़गारी, महंगाई दबा हुआ ज्वालामुखी फूट पड़ता है, मार्क्स की कही बातें सच लगने लगती हैं।

मार्क्स ने मुख्य रूप से चार बातें कहीं थीं आईए उन पर एक नज़र डालते हैं।

1- मज़दूरों का राजनीतिक कार्यक्रम क्या हो?

‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ और अपने अन्य लेखों में मार्क्स ने पूंजीवादी समाज में ‘वर्ग संघर्ष’ की बात की है और बताया है कि कैसे अंततः संघर्ष में सर्वहारा वर्ग पूरी दुनिया में बुर्जुआ वर्ग को हटाकर सत्ता पर कब्ज़ा कर लेगा।

अपनी सबसे प्रसिद्ध कृति ‘पूंजी’ में उन्होंने अपने इन विचारों को बहुत तथ्यात्मक और वैज्ञानिक तरीके से विश्लेषित किया है।

उनके प्रतिष्ठित जीवनी लेखक ब्रिटेन के फ़्रांसिस व्हीन कहते हैं, “मार्क्स ने उस सर्वग्राही पूंजीवाद के ख़िलाफ़ दार्शनिक तरीक़े से तर्क रखे, जिसने पूरी मानव सभ्यता को ग़ुलाम बना लिया।”

20वीं शताब्दी में मज़दूरों ने रूस, चीन, क्यूबा और अन्य देशों में शासन करने वालों को उखाड़ फेंका और निज़ी संपत्ति और उत्पादन के साधनों पर कब्जा कर लिया।

ब्रिटेन के स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में जर्मन इतिहासकार अलब्रेख़्त रिसल कहते हैं कि ‘भूमंडलीकरण के पहले आलोचक थे मार्क्स। उन्होंने दुनिया में बढ़ती ग़ैरबराबरी के प्रति चेतावनी दी थी।’

जब जब मंदी आती है, मार्क्सवाद और प्रासंगिक होकर उभरता रहा है।

2-पूंजीवाद ख़त्म होने तक मंदी आती रहेगी

पूंजीवाद के ‘पिता’ एडम स्मिथ के ‘वेल्थ ऑफ़ नेशन’ से उलट मार्क्स का मानना था कि बाज़ार को चलाने में किसी अदृश्य शक्ति की भूमिका नहीं होती।

बल्कि वो कहते हैं कि मंदी का बार बार आना तय है और इसका कारण पूंजीवाद में ही निहित है।

अलब्रेख़्त के अनुसार, “उनका विचार था कि पूंजीवाद के पूरी तरह ख़त्म होने तक ऐसा होता रहेगा।”

1929 में शेयर बाज़ार औंधे मुंह गिर गया और इसके बाद आने वाले झटके 2007-08 के चरम तक पहुंच गए, जब दुनिया का वित्त बाज़ार अभूतपूर्व रूप से संकट में आ गया था।

विशेषज्ञ कहते हैं कि हालांकि इन संकटों का असर भारी उद्योगों की जगह वित्तीय क्षेत्र पर अधिक पड़ा।

3-आतिरिक्त मूल्य कहां से पैदा होता है?

मार्क्स के सिद्धांत का एक अहम पहलू है- ‘अतिरिक्त मूल्य।’ ये वो मूल्य है जो एक मज़दूर अपनी मज़दूरी के अलावा पैदा करता है।

मार्क्स के मुताबिक़, समस्या ये है कि उत्पादन के साधनों के मालिक इस अतिरिक्त मूल्य को ले लेते हैं और सर्वहारा वर्ग की क़ीमत पर अपने मुनाफ़े को अधिक से अधिक बढ़ाने में जुट जाते हैं।

इस तरह पूंजी एक जगह और कुछ चंद हाथों में केंद्रित होती जाती है और इसकी वजह से बेरोज़गारी बढ़ती है और मज़दूरी में गिरावट आती जाती है।

ब्रिटिश मैग्जीन ‘द इकोनॉमिस्ट’ के एक विश्लेषण के अनुसार, पिछले दो दशकों में अमरीका जैसे देशों में मज़दूरों का वेतन स्थिर हो गया है, जबकि अधिकारियों के वेतन में 40 से 110 गुने की वृद्धि हुई है।

4-भूमंडलीकरण और ग़ैरबराबरी

मुनाफा बढ़ाने के क्रम में मार्क्स ने कहा था कि पूंजीवाद खुद अपनी कब्र खोदता है।

पेरिस विश्वविद्यालय में दर्शन के प्रोफ़ेसर और मार्क्सवादी विचारक जैक्स रैंसियर का कहना है कि, “चीनी क्रांति की वजह से आज़ाद हुए शोषित और ग़रीब मज़दूरों को आत्महत्या की कगार पर ला खड़ा किया गया है ताकि पश्चिम सुख सुविधा में रह सके, जबकि चीन के पैसे से अमरीका ज़िंदा है, वरना वो दिवालिया हो जाएगा।”

भले ही मार्क्स अपनी भविष्यवाणी में असफल हो गए हों, पूंजीवाद के वैश्विकरण की आलोचना करने में उन्होंने ज़रा भी ग़लती नहीं की।

‘कम्युनिस्ट घोषणा’ पत्र में उन्होंने तर्क किया है कि पूंजीवाद के वैश्विकरण ही अंतरराष्ट्रीय अस्थिरता का मुख्य कारण बनेगा। और 20वीं और 21वीं शताब्दी के वित्तीय संकटों ने ऐसा ही दिखाया है।

यही कारण है कि भूमंडलीकरण की समस्याओं पर मौजूदा बहस में मार्क्सवाद का बार बार ज़िक्र आता है।

(ये लेख 2017 में बीबीसी मुंडो में प्रकाशित हुआ था जिसके लेखक हैं मैक्स सीत्ज़। ये लेख बीबीसी से साभार प्रकाशित किया जा रहा है।)

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