बैंकों में जमा 150 लाख करोड़ रुपये की जनता की पूंजी कारपोरेट के हवाले करने की तैयारी- नज़रिया
बीते एक फरवरी को पेश हुए केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री निर्मला सितारमण ने कई सरकारी क्षेत्र के बैंकों को निजी हाथों में सौंपने का एलान किया था। जिसके बाद बैंक कर्मचारियों के संगठनों ने सरकार के इस कदम की आलोचना करते हुए हड़ताल की घोषणा की थी।
बीते फरवरी महीने में प्रदर्शन करते हुए एआईबीईए के महासचिव सी एच वेंकटचलम ने कहा था कि बैंक कर्मचारी सरकार के फैसले के खिलाफ 10 मार्च को बजट सत्र के दौरान संसद के सामने धरना प्रदर्शन करेंगे साथ ही यह भी बताया कि मार्च महीने के ही 15-16 तारीख को बैंकों के कर्मचारी और अधिकारी हड़ताल पर रहेंगे।
लेकिन सवाल वही है कि बैंककर्मियों के लगातार विरोध के बाद भी सरकार पर कोई असर क्यों नहीं हो रहा जबकि बैंकों की एक दिन की भी बंदी देश की आर्थिक क्रियाओं को पूरी तरह से रोक देती है।
वर्कर्स यूनिटी ने बैंककर्मियों के मौजूदा प्रतिरोधों पर बैंक यूनियनों के संगठन के पूर्व पदाधिकारी विश्वास उतगी से बात की।
उन्होंने कहा, “मौजूदा सरकार आंदोलनों को नज़रअंदाज इसलिए करता है क्योंकि इस सरकार का कॉपोरेटपक्षीय एजेंडा पूरी तरह से स्पष्ट है। सरकार को बैंक चलाने ही नहीं इसलिए उन्हें इन हड़तालों से फर्क ही नहीं पड़ता। किसान इतने दिनों से आंदोलन कर रहे है, कितने ही किसानों की मृत्यु हो गई आंदोलन के दौरान लेकिन सरकार अपने रुख पर कायम है। ये हिम्मत सरकार को कहां से आई ये असल सवाल है।”
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बैंकों की पूंजी पर सरकार की नज़र
हमारी आंखों के सामने लगातार सरकारी उपक्रमों को बेचा जा रहा है। रेलवे, बीएसएनएल, एयर इंडिया यहां तक विशाखापत्तनम् स्टील प्लांट जैसे लाभ देनेवाले उपक्रमों को भी ये सरकार बेच रही है, लेकिन जनता सड़क पर क्यों नहीं है?
उतगी का कहना है कि अगर मान लिया जाये कि बैंक एनपीए ( नॉन परफार्मिंग एसेट) की वजह से घाटे में है तो आप बैंक का कोई एक हिस्सा बेच कर उस घाटे को पूरा कर लें। क्योंकि अभी बैंकों के घाटे की मुख्य वजह एनपीए की रिकवरी न होना है, हालत अभी इतनी बुरी नहीं हुई है कि बैंकों को पूरा बेच दिया जाये। लेकिन ये सरकार बैंकों को चलाना ही नहीं चाहती है। नज़र उस बड़ी पूंजी पर है जो इन बैंकों के पास है।
उतगी ने आगे बताया कि इन बैंकों को बेचने की असली वजह बैंकों के पास मौजूद 150 लाख करोड़ रुपये की जमा पूंजी पर कब्जा करना है। आप इस संपत्ति का अदांजा इस बात से लगाइये की हमारे देश के कुल जीडीपी का साइज 200 लाख करोड़ रुपये का है। देश के कुल जीडीपी के लगभग की जनता की जमा पूंजी इन कॉरपोरेट घरानों के नज़र चढ़ चुकी है।
देश में सार्वजनिक क्षेत्र की बैंको को अगर सही तरीके से चलाना है तो उनके द्वारा दिये गये 105 लाख करोड़ रुपये के कर्जे में से 20 फीसदी बैंकों तक वापस लाना होगा। लेकिन सरकार कर्ज वसुलने की जगह कर्ज माफी करेंगी और फिर बैंक को घाटे में दिखा कर बेच देगी।
उतगी ने हमें बताया कि 2016 के नोटबंदी के बाद से बैंकों की हालत खराब हो गई है। बैंक सुबह खुल रहे हैं और शाम को बंद हो रहे हैं लेकिन उनमें बैंकिंग नहीं हो रही है। कर्जा वसुल नहीं हो रहा हैं, नया कर्जा नहीं दिया जा रहा हैं, नये जमा खाते नहीं खुल रहे हैं तो आखिर बैंक कब तक चलने वाले हैं। बैंकों को पुराने पीपल- बरगद के पेड़ बना दिये गये हैं,जिनकी शाखाएं तो बहुत हैं लेकिन वो अंदर से खोखली हो चुकी हैं।
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बैंकिंग क्षेत्र में संकट खुद सरकार ला रही
साल 2008 में जैसी हालत सिटी बैंक, गोल्डमैन सैक्स या लीमैन ब्रदर्स की बाजार में आई मंदी के कारण हुई थी बिल्कुल वैसी ही हालत सरकार ने जानबूझ कर अपने बैंकों की कर दी है ताकि इन्हें निजी हाथों में सौपा जा सके।
जब हमने उतगी से पूछा कि आखिर बैंकों के हड़ताल का सरकार पर कोई असर क्यों नहीं हो रहा है तो उन्होंने इसका जवाब देते हुए कहा कि सरकार चाहती है कि बैंककर्मी हड़ताल पर जाये। सरकार इस हड़ताल को एक मौके के तौर पर इस्तेमाल करेगी कि देखो बैंककर्मी काम नहीं कर रहे,इनकी वजह से बैंक घाटे में जा रहे है और हमारे पास इनको बेचने के सिवाए दूसरा कोई उपाय नहीं है।
उन्होंने आगे बताया कि हड़ताल हर लड़ाई में कारगर नहीं हो सकती है। जब नौकरी बचानी हो या वेतन बढ़ोतरी का सवाल हो तब हो सकता है कि हड़ताल का सरकार पर कोई असर हो। लेकिन अब सवाल बैंक को ही बचाने का है और ये लड़ाई देश के 5 लाख बैंककर्मियों के अकेले बूते की नहीं रहीं बल्कि अब यह लड़ाई देश की समुचे मेहनतकश जनता की भी हो गई है जिनकी गाढ़ी मेहनत की कमाई इन बैंकों के पास है।
यदि जनता अपने पैसों चाहे वो बीमा में हो या बैंकों के पास हो को बचाने के लिये कर्मचारियों के साथ सड़कों पर नहीं उतरती तब तक मोदी सरकार अपने मंसूबों से पीछे नहीं हटने वाली हैं।
(फ़ोन पर हुई बातचीत का रुपांतरण किया है अभिनव कुमार ने।)
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