योगी के शासन ‘काल’ में पत्रकारों को सच दिखाने के लिए जेलों में डाला गया, पार्ट-2
उत्तर प्रदेश में पांच साल का योगी शासन भले ही आरएसएस, बीजेपी और उसके सहयोगी दलों और कुनबों के लिए अच्छे दिन के सबब रहे हों लेकिन पत्रकारों के लिए किसी बुरे ख्वाब से कम नहीं रहे। पत्रकारों के खिलाफ़ पूरा योगी प्रशासन मैदान में रहा और सच रिपोर्ट दिखाने पर मुकदमे दर्ज किए गए और पत्रकारों को जेलों में डाला गया।
पत्रकारों पर हमले के विरुद्ध समिति (CAAJ) और मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल) द्वारा बीते गुरुवार को जारी की गई एक रिपोर्ट में सामने आया है कि इन पांच सालों में 12 पत्रकारों की हत्या हुई और 66 मामलों में मुकदमे और गिरफ़्तारियां हुईं। मीडिया की घेराबंदी के नाम से जारी इस पूरी रिपोर्ट को यहां पढ़ा जा सकता है।
ये भी पढ़ेंः मानवाधिकार हनन में UP अव्वल, फिर भी क्यों नहीं बन रहा चुनावी मुद्दा, PUCL ने पूछा राजनीतिक दलों से सवाल
रिपोर्ट पढ़ें
बीते पांच वर्षों के दौरान उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर हमलों की सघनता कोरोना महामारी के कारण लगाये गये लॉकडाउन की शुरुआत से देखने में आयी जो अब तक जारी है। सभी श्रेणियों में हमले के कुल 138 प्रकरणों में अकेले 107 मामले 2020 और 2021 को मिलाकर हैं यानी केवल महामारी के ये दो वर्ष 78 फीसदी हमलों के लिए जिम्मेदार रहे।
2019 में कुल हमलों (19) से अचानक 2020 में 250 गुना उछाल देखा गया। यह उछाल 2021 में मामूली बढ़ोतरी के साथ जारी रहा। 2017 और 2018 में केवल दो-दो केस से तुलना करें तो करीब हजार गुना उछाल दिखायी देता है। प्रेस की आजादी में 2019 से आये इस अभूतपूर्व उछाल को कैसे समझा जाय?
राजनीतिक परिस्थितियां इस परिघटना के केंद्र में हैं। 2019 की जितनी भी घटनाएं रिपोर्ट में गिनवायी गयी हैं उनमें ज्यादातर साल के अंत के आसपास की हैं जब संशोधित नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन देश में जोर पकड़ चुका था। दिल्ली के जामिया मिलिया से शुरू हुए आंदोलन की अनुगूंज उत्तर प्रदेश में आज़मगढ़ से लेकर अलीगढ़ तक बराबर सुनायी दे रही थी। इस आंदोलन को कवर करने वाले पत्रकारों के साथ पुलिस और इलाकाई लोगों की बदसलूकी की खबरें आ रही थीं। यह पहला ऐसा मौका रहा जब पत्रकारों को उनका धर्म और उनका आइडी कार्ड देखकर बख्शा जा रहा था। लखनऊ के ओमर राशिद और खुर्शीद मिस्बाही का मामला ऐसा ही रहा, जिसके बारे में विस्तार से CAAJ की मार्च 2020 में प्रकाशित ‘रिपब्लिक इन पेरिल’ रिपोर्ट में जि़क्र है।
(मारे गए, हमले में घायल और एफआईआर-गिरफ्तारी के शिकार पत्रकारों की पूरी लिस्ट को यहां पर देखा जा सकता है।)
यह आंदोलन हालांकि अल्पजीवी था लिहाजा यह परिघटना तीन से चार महीने चली, फिर ध्रुवीकरण शांत हुआ तो धर्म और बैनर के आधार पर पत्रकारों की खुली शिनाख्त भी बंद हो गयी। इस बीच हालांकि दो ऐसे मामले 2019 में सामने आए थे जो भविष्य में पत्रकार उत्पीड़न के ट्रेंड की आहट दे रहे थे। दो मामले तो एक ही अखबार जनसंदेश टाइम्स के पत्रकारों से जुड़े थे- पवन जायसवाल और संतोष जायसवाल। एक और मामला बच्चा गुप्ता का था। इन तीनों मामलों में समान रूप से यह पाया गया था कि खबर दिखाने पर इनके खिलाफ षडयंत्र का आरोप लगाते हुए मुकदमे किये गये। तीनों मामले बनारस और उसके आसपास के हैं। यह शुरुआत थी जिला प्रशासन द्वारा पत्रकारों की नियमित कवरेज को झूठा और षडयंत्रकारी बताने की और बदले में उनके ऊपर मुकदमा लादने की एक ऐसी परिपाटी शुरू हुई जिसका उत्कर्ष हमें 2020 में यूपी के कोने-कोने में देखने को मिलता है।
इस परिघटना को निम्न चरणों में बांटकर समझा जा सकता है। पत्रकार द्वारा अपनी आंखों के सामने घट रहे अन्याय, मसलन मिड डे मील में नमक रोटी (पवन जायसवाल), बच्चों द्वारा स्कूल की सफाई (संतोष जायसवाल) और बाढ़ग्रस्त थाने में कीचड़ की सफाई (बच्चा गुप्ता) की खबर या तस्वीर प्रकाशित करने पर प्रशासन का तय रवैया कुछ यूं रहता है:
1) सबसे पहले सरकारी प्रेस नोट में खबर को अफवाह और झूठ बताया जाय;
2) फिर अधिकारियों की मार्फत खबर को माहौल बिगाड़ने वाला, सौहार्द खराब करने वाला और सरकार को बदनाम करने वाला बताया जाय;
3) इसके बाद पत्रकार को नोटिस भेजा जाय;
4) पत्रकार और संपादक पर मुकदमा कायम किया जाय।
सामान्य तौर पर यह मुकदमा सरकारी काम में बाधा डालने, अफवाह फैलाने (आजकल प्रशासन ऐसी खबरों को फेक न्यूज़ कहने लगा है), सौहार्द बिगाड़ने, प्रशासन और सरकार को बदनाम करने, आदि की धाराओं में किया जाता है जिसमें महामारी अधिनियम आदि बोनस में नत्थी होते हैं। यह मामला देशद्रोह तक जा सकता है जिसमें जानबूझ कर सरकार की छवि खराब करने का आरोप लगाकर पत्रकार को जेल में डाला जा सकता है। बनारस में दैनिक भास्कर के पत्रकार आकाश यादव के साथ यही काम एक निजी पार्टी ने पुलिस के साथ मिलकर किया। आकाश यादव ने खबर की थी कि एक निजी अस्पताल को एक अयोग्य डॉक्टर चला रहा है। उन्होंने अपनी खबर में निजी स्वास्थ्य माफिया और पुलिस की साठगांठ को उजागर किया था। बदले में आकाश यादव सहित पांच और पत्रकारों पर डकैती व यौन उत्पीडन का मुकदमा ठोंक दिया गया। इसी तरह मिर्जापुर में हिंदुस्तान अखबार के कृष्ण कुमार सिंह पर हिंसक हमला हुआ। वे पार्किंग माफिया के खिलाफ खबर लिख रहे थे। उनकी बुरी तरह पिटाई की गयी। जब वे थाने में शिकायत करने पहुंचे तो उनकी तहरीर लेने में छह घंटे से ज्यादा समय लगाया गया।
पूर्वांचल से कइ किलोमीटर दूर नोएडा में भी यही फॉर्मूला प्रशासन ने अपनाया जबकि नोएडा दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का अभिजात्य हिस्सा है जहां से ज्यादातर राष्ट्रीय टीवी चैनल प्रसारण करते हैं। यहां नेशन लाइव नाम के एक टीवी चैनल से इशिका सिंह और अनुज शुक्ला को इस आरोप में गिरफ्तार किया गया कि उन्होंने हिंसा भडकाने की कोशिश की है और मुख्यमंत्री की मानहानि की है। बाद में चैनल के प्रमुख अंशुल कौशिक की भी गिरफ्तारी हुई। तीनों को अंतत: ज़मानत तो मिल गयी लेकिन चैनल बंद करवा दिया गया यह कह कर कि उसके परिचालन के लिए मालिकान के पास पर्याप्त सरकारी मंजूरी नहीं है।
यह परिपाटी उत्तर प्रदेश में पूरब से लेकर पश्चिम तक 2019 में आजमायी जा रही थी। खबर दिखाने का मतलब प्रशासन को बदनाम करना स्थापित किया जा रहा था जो देश को बदनाम करने और अंतत: मुख्यमंत्री को बदनाम करने तक आ चुका था। कुल मिलाकर संदेश यह दिया जा रहा था कि नियमित पत्रकारिता का कर्म दरअसल देशद्रोह की श्रेणी में आ सकता है; देश का मतलब है मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री का मतलब है स्थानीय प्रशासन। इस तरह देश, नौकरशाह और नेता को एक कर दिया गया था। इसे साबित करने का कार्यभार जिला प्रशासन यानी जिलाधिकारी के सिर पर था कि पत्रकार की खबर कैसे देशद्रोह हो सकती है। जिलाधिकारी इस मामले मे दो कदम आगे बढ़कर काम कर रहे थे। बनारस के जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा का मामला इस संदर्भ में दिलचस्प है जिन्होंने यह साबित करने के लिए कि लॉकडाउन से उपजी भुखमरी में मुसहरों द्वारा खायी गयी घास जंगली नहीं थी, खुद अपने छोटे से बच्चे के साथ वह घास खाते हुए फेसबुक पर एक फोटो डाल दी और बदले में भुखमरी की खबर लिखने वाले पत्रकारों को नोटिस भेज दिया।
2020 और 2021 में धड़ल्ले से इस फॉर्मूले को पूरे राज्य में लागू किया गया और राजद्रोह की धाराओं में बहुत से पत्रकारों पर मुकदमे दर्ज किये गये। एक पत्रकार के लिए अपनी नौकरी बजाना यानी सामान्य खबर करना भी मुश्किल हो गया। कब कौन सी खबर को सरकार झूठा बताकर उसमें साजिश सूंघ ले और केस कर दे, कुछ नहीं कहा जा सकता था। इसके बावजूद कुछ पत्रकारों और संस्थानों ने हार नहीं मानी। खासकर भारत समाचार और दैनिक भास्कर ने विशेष रूप से लॉकडाउन में सरकारी कुप्रबंधन और मौतों पर अच्छी कवरेज की। उन्हें इसकी कीमत छापे से चुकानी पड़ी।
सरकारी मुकदमों के बोझ तले दबी पत्रकारिता की आज स्थिति यह हो चली है कि पत्रकारों के उत्पीड़न पर पत्रकार खुद पीडि़त पत्रकार का पक्ष नहीं लेते हैं बल्कि पुलिस के बयान के आधार पर खबर लिख देते हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण गाजियाबाद से समाचार पोर्टल चलाने वाले पत्रकार अजय प्रकाश मिश्र का है जिनके ऊपर चुनाव कवरेज के दौरान 7 फरवरी 2022 को उत्तराखंड के उधमसिंहनगर में एक आरटीओ अधिकारी ने एफआइआर करवायी है। सड़क पर व्यावसायिक नंबर वाले वाहनों को रुकवा कर चुनावी ड्यूटी में लगाने जैसी सामान्य घटना मुकदमे तक कैसे पहुंच गयी इसे समझना हो तो स्थानीय अखबारों में अगले दिन छपी खबर को देखा जा सकता है जिसमें पत्रकारों को पत्रकार तक नहीं लिखा गया है, बल्कि ‘तीन व्यक्ति’ और ‘दबंग’ लिखा गया है। हिंदुस्तान, अमर उजाला और दैनिक जागरण तीनों की खबरों ने लिखा है कि तीन व्यक्तियों ने परिवहन अधिकारी के साथ दुर्व्यवहार किया।
प्रशासनिक-राजनीतिक संस्कृति के मामले में उत्तराखंड का तराई उत्तर प्रदेश से कुछ खास अलग नहीं है, इसलिए यह घटना वहां नहीं तो यूपी में कहीं और भी ऐसे ही होती। आशय यह है कि बीते दो साल में रेगुलर पत्रकारीय कर्म की स्पेस को इतना संकुचित कर दिया गया है कि संस्थाओं में काम करने वाले पत्रकार भी अब घटनाओं को प्रशासन की नजर से देखने और लिखने लगे हैं, यह जानते हुए कि वह सफेद झूठ होगा। ऐसे में स्वतंत्र पत्रकारों और डिजिटल पत्रकारों की नाजुक स्थिति को समझना मुश्किल नहीं है, जो अकेले अब तक ‘जस देखा तस लेखा’ की नीति पर काम कर रहे हैं।
इस संदर्भ में 2021 में केंद्र सरकार द्वारा लाये गये सूचना प्रौद्योगिकी (आइटी) नियमों का जिक्र करना बहुत जरूरी है। सरकार के नए इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस) नियम 2021 के प्रावधान इस प्रकार से बनाये गये हैं कि असहमति और विरोध के स्वरों को सहजता से कुचला जा सके। ऐसा लगता है कि इन नियमों के लागू होने के बाद डिजिटल मीडिया से जुड़े मसलों पर निर्णय लेने की अदालती शक्तियां कार्यपालिका के पास पहुंच चुकी हैं और सरकार के चहेते नौकरशाह डिजिटल मीडिया कंटेंट के बारे में फैसला देने लगेंगे। गौर से देखें तो बीते महीनों में ऐसा ही हुआ भी है। समसामयिक विषयों पर आधारित कोई भी प्रकाशन न केवल संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित होता है बल्कि यह नागरिक के सूचना प्राप्त करने के अधिकार और भिन्न-भिन्न विचारों और दृष्टिकोणों से अवगत होने के अधिकार का भी प्रतिनिधित्व करता है। कार्यपालिका को न्यूज़ पोर्टल्स पर प्रकाशित सामग्री के विषय में निर्णय लेने का पूर्ण और एकमात्र अधिकार मिल जाना संविधानसम्मत नहीं है, लेकिन यह काम तो अघोषित रूप से बीते दो साल से हो ही रहा था। अब कार्यपालिका को एक कानून की आड़ मिल गयी है जिसका सहारा लेकर वह किसी भी खबर को मानहानिपूर्ण बता सकती है और किसी भी पत्रकार को गैर-पत्रकार साबित कर सकती है।
पत्रकार उत्पीड़न के हालिया मामलों में जिलाधिकारियों और जिला स्तर के छोटे अफसरों तक की मनमानी को इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए। इस संदर्भ में उन्नाव की एक घटना सतह के नीचे चल रही स्थितियों को बहुत साफ़ दिखाती है। यहां 10 जुलाई, 2021 को ब्लॉक प्रमुख के चुनाव को कवर कर रहे एक पत्रकार कृष्णा तिवारी के साथ मारपीट का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था। मारपीट करने वाला दिव्यांशु पटेल नाम का अफसर मुख्य विकास अधिकारी (सीडीओ) था। इस घटना की चौतरफा निंदा हुई और 12 जुलाई को संपादकों की सर्वोच्च संस्था एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने एक औपचारिक निंदा बयान जारी करते हुए अधिकारी के खिलाफ उचित कार्रवाई की मांग कर दी। तब तक काफी देर हो चुकी थी क्योंकि अधिकारी द्वारा पीडि़त पत्रकार को घर में बुलाकर लड्डू खिलाकर मामला निपटाया जा चुका था। पत्रकार भी वीडियो में संतुष्ट दिख रहा था। अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, जैसा कि गिल्ड ने मांग की थी।
ऐसे मामलों से स्थानीय स्तर पर पत्रकारिता के द्वंद्व को भी समझा जाना चाहिए। आखिर पीडि़त पत्रकार के पास अधिकारी से सुलह करने के अलावा और क्या रास्ता बचता है? उसे वहीं पर रह कर खाना कमाना है और काम भी है। ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर उसका प्रकरण उठ जाने पर भी उसकी कार्यस्थितियों में कोई बदलाव आ जाए, इसकी गुंजाइश कम होती है। हां, इस मामले में एडिटर्स गिल्ड से जरूर एक संकेत लिया जाना चाहिए कि नयी कार्यकारिणी आने के बाद संस्था ने लगातार उत्तर प्रदेश पर केंद्रित बयान जारी किये हैं, बगैर मुंह देखे कि पीडि़त पत्रकार का कद और रसूख क्या है। नेशन लाइव टीवी की गिरफ्तारियों से लेकर सुलभ श्रीवास्तव की मौत पर संदिग्ध पुलिस जांच और रमन कश्यप की हत्या तक तकरीबन हरेक मामले में गिल्ड ने जिस तरीके से हस्तक्षेप किया और मुख्यमंत्री के नाम पत्रकार सुरक्षा को लेकर पत्र लिखा, वह अपने आप में उत्तर प्रदेश में प्रेस की आजादी पर एक गंभीर टिप्पणी है (देखें अनुलग्नक)।
न सिर्फ एडिटर्स गिल्ड बल्कि प्रेस क्लब ऑफ इंडिया से लेकर सीपीजे, आरएसएफ और प्रादेशिक पत्रकार संगठनों की चिंताओं के केंद्र में उत्तर प्रदेश की घटनाओं का होना बताता है कि चारों ओर से पत्रकारों की यहां घेराबंदी की जा रही है। नये आइटी कानून के माध्यम से डिजिटल पत्रकारों के पर कतरने के बाद इस कड़ी में ताजा उदाहरण 8 फरवरी 2022 को केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा जारी किया गया एक ‘केंद्रीय मीडिया प्रत्यायन दिशानिर्देश’ है। यह दिशानिर्देश मान्यता प्राप्त पत्रकारों पर केंद्रित है जिसमें कहा गया है कि देश की ”सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता” के साथ-साथ ”सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता” के लिए प्रतिकूल तरीके से काम करने वाले पत्रकार अपनी सरकारी मान्यता खो देंगे। इस किस्म के आदेश की आहट कुछ महीने पहले ही सुनायी पड़ गयी थी जब पत्रकारों को संसद का सत्र कवर करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
बीते पांच वर्षों के दौरान उत्तर प्रदेश का पत्रकारिता परिदृश्य जिस तरह विकसित हुआ है, कहा जा सकता है कि पेगासस के संदर्भ में अभिव्यक्त सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की ‘ऑरवेलियन’ चिंताएं यहां एक नहीं बारम्बार चरितार्थ हो चुकी हैं और हर आये दिन एक नये आयाम में सामने आ रही हैं। महामारी के बहाने निर्मित किये गये एक भयाक्रान्त वातावरण के भीतर मुकदमों, नोटिसों, धमकियों के रास्ते खबरनवीसी के पेशेवर काम को सरकार चलाने के संवैधानिक काम के खिलाफ जिस तरह खड़ा किया गया है, पत्रकारों की घेरेबंदी अब पूरी होती जान पड़ती है।
पाँच साल के आंकड़ों पर एक नज़र
उत्तर प्रदेश में 2017 से फरवरी 2022 के बीच पत्रकारों के उत्पीड़न के कुल 138 मामले पत्रकारों पर हमले के विरुद्ध समिति (CAAJ) ने दर्ज किये हैं। ये मामले वास्तविक संख्या से काफी कम हो सकते हैं। इनमें भी जो मामले ज़मीनी स्तर पर वेरिफाई हो सके हैं उन्हीं का विवरण यहां दर्ज है। जिनके विवरण दर्ज नहीं हैं उनको रिपोर्ट में जोड़े जाने का आधार मीडिया और सोशल मीडिया में आयी सूचनाएं हैं।
जैसा कि ऊपर दी हुई तालिका से स्पष्ट है, पाँच साल के दौरान 75 फीसद से ज्यादा हमले के मामले 2020 और 2021 में कोरोना महामारी के दौरान दर्ज किए गए हैं। कुल 12 पत्रकारों की हत्याओं का आंकड़ा सामने आया है, हालांकि ये कम हो सकता है। हमलों की प्रकृति के आधार पर देखें तो सबसे ज्यादा हमले राज्य और प्रशासन की ऑर् से किए गए हैं। ये हमले कानूनी नोटिस, एफआइआर, गिरफ़्तारी, हिरासत, जासूसी, धमकी और हिंसा के रूप में सामने आए हैं। इन हमलों के विश्लेषण और निहितार्थ पर आगे के अध्यायों में चर्चा है। नीचे वर्ष और श्रेणी के हिसाब से नामवार तालिका देखी जा सकती है।
(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।)
योगी के शासन ‘काल’ में पत्रकारों को सच दिखाने के लिए जेलों में डाला गया, पार्ट-2