नोएडा में घरेलू कामगारों और फ्लैट निवासियों के बीच संघर्ष की पड़तालः एक रिपोर्ट

नोएडा में घरेलू कामगारों और फ्लैट निवासियों के बीच संघर्ष की पड़तालः एक रिपोर्ट

(ये है नोएडा के सेक्टर 78 में स्थित 15 टॉवर और 2600 फ्लैट वाली महागुन मॉडर्न रेज़िडेंशियल सोसाइटी.)

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घटना, पृष्ठभूमि और घटनाक्रम

यह दक्षिण एशिया में स्वयंभू सुपर पॉवर और दुनिया में सबसे तेज ‘विकास’ कर रहे भारत देश की संसद से महज 35 किलोमीटर यानी एक घंटे की दूरी पर स्थित इलाक़ा है. ये इलाक़ा नोएडा सेक्टर 78 कहलाता है, जोकि अधबसे विश्वस्तरीय शहर ग्रेटर नोएडा और अभी बसने की खानापूर्ति में लटके ग्रेटर नोएडा एक्सटेंशन (नोएडा एक्सटेंशन नाम से पॉपुलर) से लगभग सटा हुआ है. यहां असंख्य हाईराइज़ इमारते हैं. पुराने शहरों के मुहल्ले और गांव वालों को बेशक लग सकता है कि वो किसी दूसरे देश में आ गए हैं.

नोएडा के इसी सेक्टर 78 में आस पास बसे महागुन मॉडर्न, अंतरिक्ष और सन शाइन नाम की तीन सोसाइटियां हैं जिनमें हज़ारों लोग रहते हैं हालांकि आस पास खड़ी इमारतों में युद्धस्तर पर काम चल रहा है. इन सोसाइटियों और अभी बन रही इमारतों में हज़ारों लोग काम करने के लिए देश के अलग अलग इलाक़ों से आए हुए हैं और पास ही झुग्गी बस्ती बसा ली है.

इन्हीं सोसाइटियों में से एक महागुन मॉडर्न में 11 जुलाई 2017 को फ्लैट नंबर 102, जिसमें कोई शेठी परिवार रहता है. एक घरेलू कामगार महिला, ज़ोहरा बीबी हर रोज़ की तरह सोसाइटी में काम करने गईं. आम तौर पर दोपहर 11-12 बजे तक काम ख़त्म करने के बाद लोग अपनी झुग्गी में लौट आते हैं और फिर शाम चार बजे के बाद जाते हैं. लेकिन उस दिन ज़ोहरा बीबी नहीं लौटीं. उनके पति अब्दुल भी मज़दूरी करते हैं, जब वो शाम को लौटते हैं तो उन्हें ज़ोहरा नहीं मिलती हैं. काफ़ी छानबीन के बाद वो और उनका बेटा राहुल 11 बजे महागुन मॉडर्न सोसाइटी के गेट के रिसेप्शन पर सुरक्षा गार्डों से पूछताछ करते हैं. गार्ड जब उन्हें टालने की कोशिश करते हैं, तो वो 100 नंबर पर पुलिस को फ़ोन करते हैं. दो सिपाही आते हैं. अब्दुल और उनके बेटे को लेकर सोसाइटी के 102 नंबर फ्लैट में पहुंचते हैं. सिपाही उन्हें गेट के बाहर ही रोक देते हैं और खुद अकेले अंदर दाखिल होते हैं. कुछ देर बाद वो लौट आते हैं और बताते हैं कि ज़ोहरा बीबी वहां नहीं हैं. वो गुमशुदगी की शिकायत सेक्टर 49 में स्थित संबंधित थाने में देने को कहकर चले जाते हैं. वो लोग रात में थाने जाते हैं, शिकायत दर्ज कराते हैं और तस्वीर आदि सुबह दे जाने की बात कह कर लौट आते हैं.

(ज़ोहरा बीबी का 14 साल का बेटा जिसे 12 तारीख को रात में 58 लोगों के साथ पुलिस ने उठा लिया था.)

पूरी रात ज़ोहरा बीबी का पता नहीं चलता. 12 जुलाई, 2017 को सुबह 6 बजे फिर अब्दुल अपने बेटे राहुल को लेकर सोसाइटी गेट पर पहुंचते हैं. वहां गार्ड से वो एंट्री, एक्ज़िट का रजिस्टर दिखाने को कहते हैं, जिसमें ज़ोहरा का एक्ज़िट दर्ज़ नहीं होता है. अब्दुल अड़ जाते हैं कि उनकी बीबी सोसाइटी में ही है. उन्हें ये भी शक होता है कि ज़ोहरा के साथ कोई अनहोनी तो नहीं हो गई. इसी बीच घरों में काम करने के लिए घरेलू कामगार आना शुरू कर देते हैं. गेट पर अब्दुल की हुज्जत से एंट्री का काम रुक जाता है और फ्लैटों में काम करने वाले सफ़ाई कर्मचारी, माली, मेंटेनेंस, बिजली, चौका बर्तन करने वाली महिलाएं इकट्ठा होती जाती हैं. अब्दुल अपनी बस्ती से भी आठ दस लोगों को बुला लेते हैं. शोर शराबे के बीच लोग मांग करते हैं कि या तो ज़ोहरा बीबी को खोजा जाए या फिर उन्हें अंदर जाने दिया जाए. इस बीच नौबत धक्का मुक्की की आ जाती है, मौके पर मौजूद लोगों के अनुसार, इसे नियंत्रित करने के लिए ‘गार्ड एक के बाद एक तीन हवाई फ़ायर’ कर देते हैं. इसके बाद भीड़ उग्र हो गई. लोग पथराव करने लगे. इस पथराव में रिसेप्शन का शीसा टूट गया. 500 की भीड़ से कुल जमा इतना नुकसान दिखाई देता है.

(गेट के रिसेप्शन का टूटा हुआ शीशा.)

विस्फोटक स्थिति के बीच मुठ्ठीभर सुरक्षा गार्ड कुछ नहीं कर पाते हैं और भीड़ धड़धड़ाते हुए फ़्लैट नंबर 102 के सामने पहुंच जाती है. रास्ते में गाड़ियां खड़ी मिलती हैं, लेकिन उन्हें खरोंच भी नहीं आई. भीड़ फ्लैट के सामने थी लेकिन दरवाज़ा नहीं खुला, जब भीड़ लौट कर गेट पर आ आई तभी ज़ोहरा बीबी को आधी बेहोशी की हालत में दो लोग पकड़ कर लाते हुए दिख जाते हैं. पुलिस और गार्ड अब्दुल को बताते हैं कि वो उसे बेसमेंट से ला रहे हैं. भीड़ ज़ोहरा बीबी को लेकर पास के चौहारे पर पहुंचती है और उसे लिटा कर प्रदर्शन करने लगती है. हालांकि इस घटना के दौरान वहां हमेशा की तरह एक सब इंस्पेक्टर और चार कांस्टेबल मौजूद रहते हैं, लेकिन भीड़ के सामने वो भी कुछ नहीं कर पाते. हंगामे के घंटों बाद, पुलिस की एक टुकड़ी महागुन मॉडर्न के गेट पर सुबह 9 बजे पहुंचती है, जबकि सेक्टर 49 का थाना यहां से महज 20 मिनट की दूरी पर है.

घटना की विस्तृत जानकारियां, दोनों पक्षों यानी मज़दूर, गार्ड और पुलिस अधिकारी के मुताबिक कमोबेश इसी क्रम में हैं. लेकिन बयान थोड़े बहुत अलग अलग हैं, जिसे बहुत आसानी से पहचाना जा सकता है कि पुलिस क्या कहेगी और पीड़ित पक्ष क्या कहेगा. मसलन सेक्टर 49 के थानाध्यक्ष परशुराम का कहना है कि ‘ज़ोहरा पर फ़्लैट मालिक शेठी परिवार ने 70,000 रुपये चोरी का आरोप लगाया, जिसे उसने क़बूल कर लिया लेकिन जब शेठी परिवार ने उसे पुलिस के सुपुर्द करने की बात कही तो वो भागकर फ्लैट नंबर 2195 में पहुंच गई, जहां वो पहले काम करती थी. वहां उसने पति से नाराज़ होने का बहाना बनाया और रात वहीं रुक गई और सुबह गेट पर खुद आ भी गई. ’ वो इस बात से इनकार करते हैं कि सुरक्षा गार्ड ने गोली चलाई थी. वो अपने तर्क के पक्ष में सीसीटीवी फुटेज का हवाला देते हैं जिसे या तो उन्होंने देखा है या सोसाइटी के लोगों ने!

लेकिन पुलिस को ये संदेह नहीं होता कि जब 11 जुलाई को दिन में उनका पैसा चोरी हुआ तो इस बारे में उन्होंने पुलिस में शिकायत क्यों नहीं दर्ज कराई? साफ़ ज़ाहिर होता है कि हंगामा होने के बाद ये कहानी आरोपी शेठी परिवार ने बनाई और पुलिस उसे पुख्ता सबूत मानने को तैयार हो गई.

ये इस कहानी की शुरुआत भर है. इसके बाद जो शुरू होता है, वो भारतीय राज्य की शासन व्यवस्था की जगज़ाहिर दास्तां है, जिसे बुकर पुरस्कार विजेता लेखिका अरुंधति रॉय ने ‘ब्राह्मणवादी पूंजीवादी स्टेट’ का नाम दिया है, जिसकी नज़र में यहां के दलित, आदिवासी, मज़दूर, मुस्लिम महिलाएं और कमज़ोर वर्ग के लोग ‘जन्मजात अपराधी’ हैं.

(नोएडा सेक्टर 49 थाने के थानाध्यक्ष परशुराम.)

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पुलिस, अदालत और अख़बार ने अपनी ड्यूटी कैसे पूरी की?

11 और 12 जुलाई की दरमियानी रात नोएडा पुलिस और उसका सचल दस्ता, बीट कांस्टेबल और सोसाइटी के गार्ड अपनी 200 साल की नींद से नहीं जगते हैं. उनकी जब नींद खुलती है तबतक हंगामा हो चुका होता है. लोग सड़क पर उतर चुके होते हैं. और फिर शुरू होती राज्य की कार्रवाई. सुबह 11 बजे ज़ोहरा बीबी को मेडिकल के लिए पुलिस अस्पताल ले जाती है और फिर तीन बजे तक उसका कोई पता नहीं चलता है. उधर 49 के थाने में शेठी परिवार के ख़िलाफ़ ज़ोहरा बीबी के साथ मारपीट, उत्पीड़न और बंधक बना कर रखने का एफ़आईआर दर्ज़ किया जाता है. लेकिन शाम होते होते अब्दुल समेत 500 लोगों पर एफ़आईआर दर्ज़ कर दी जाती है, जिसमें एक शेठी परिवार का काउंटर एफ़आईआर और दूसरा एफ़आईआर, महागुन मॉडर्न सोसाइटी का दो साल से मेंटेनेंस का जिम्मा समंभालने वाली एक बहुराष्ट्रीय अमरीकी कंपनी जेएलएल (www.joneslanglasalle.co.in) की तरफ़ से दायर कराया जाता है, जिसमें भीड़ पर जानलेवा हमले का आरोप है.

आम तौर पर शिकायत के बाद पुलिस अपनी जानकारी, जितनी भी हो, से धाराएं लगाती है. जैसा कि सेक्टर 49 पुलिस थाना के थानाध्यक्ष परशुराम कहते हैं, “उन्हें 500 लोगों पर धारा 307 लगाना उचित लगा यानी हत्या की कोशिश.” पर किसकी? इसका जवाब देना पुलिस अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझती. 12 जुलाई को रात 11 से 12 के बीच जब कामगार झुग्गियों में खा पीकर गहरी नींद में सो रहे थे, पुलिस ने छापा मारकर कुल 58 मज़दूरों को उठाया. इसमें ज़ोहरा बीबी का 14 साल का बेटा राहुल भी था. सुबह 10 बजे इस थाने से उस थाने और इस घर से उस घर ले जाने के बाद 45 लोगों को छोड़ दिया गया. ध्यान देने की बात है कि उस बस्ती में वो सभी लोग रहते हैं जो अंतरिक्ष अपार्टमेंट या सन शाइन में काम करते हैं, रेहड़ी लगाते हैं या पास की इमारतों में मज़दूरी का काम करते हैं. जिन 13 लोगों को रोका गया उनपर 307 का मुक़दमा दिखाया गया. उन्हें जज साहब ने न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया. जैसा कि 200 साल से होता आया है, हाकिम ने ये तक नहीं पूछा कि पुलिस ने किस बिना पर ये धारा लगाई है? भारतीय राज्य की न्याय प्रणाली ने अपने कर्तव्य से मुक्ति पा राहत की सांस ली. इलाके में छपने वाले एक से एक नंबर वन अख़बार के रिपोर्टर पहुंचे और सबको शेठी परिवार और पुलिस की कहानी सच्ची जान पड़ी और 13 जुलाई के अख़बारों में ज़ोहरा बीबी पर चोरी का इल्ज़ाम वाली सुर्खियां नामुदार हुईं. बस्ती के लोगों ने पूरे दिन अख़बारों में अपना बयान ढूंढते ढूंढते आंखें सुजा लीं. लेकिन भारतीय गणराज्य की शासन प्रणाली का सर्प्रराइज़ अभी ख़त्म नहीं हुआ था. व्हाट्सऐप पर मैसेज आने लगे कि ये लोग बांग्लादेशी मुस्लिम हैं, जो अवैध रूप से यहां रह रहे हैं.

जब फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग टीम घटना के पांचवें दिन 16 जुलाई, दिन रविवार को पहुंची, तबतक हर झुग्गी वाला अपने आधार कार्ड और वोटर कार्ड लोगों को दिखा दिखा कर थक चुका था. बाहर से आने वाले सूटेड बूटेड लोगों के प्रति उनके मन में घोर उदासीनता और कुछ हद तक आक्रोष व्याप्त था. कोई बात करने को तैयार नहीं था. उन्हें सिर्फ अंतरिक्ष अपार्टमेंट में रह रहे मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी के पोते तथागत भट्टाचार्या और घरेलू कामगार यूनियन के लोगों पर भरोसा था. तथागत वहां मौजूद थे, उन्होंने जो बताया वो इस प्रकार है- “ये लोग पश्चिम बंगाल के उत्तरी ज़िले कूच विहार, मालदा और वहीं आस पास के रहने वाले लोग हैं. इसमें मिलीजुली आबादी है, यानी हिंदू भी हैं और मुस्लिम भी. अगर आप पश्चिम बंगाल को अपना देश नहीं मानते हैं और मुस्लिम पहचान की वजह से उन्हें बांग्लादेशी क़रार दे रहे हैं तो ये इलाकाई विभाजन को बढ़ाने वाली बात है.” उन्होंने सवाल किया, “अगर हिंदी भाषी लोग बंगालियों के ख़िलाफ़ इस तरह उत्पीड़न को बढ़ावा देंगे तो कल को बंगाल में हिंदी भाषियों के खिलाफ़ आक्रोष पैदा होने से आप कैसे रोकेंगे? ऐसे तो जुड़ने के बजाय समाज बिखराव की तरफ़ ही बढ़ेगा.”

उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जिस दिन उत्तर प्रदेश की योगी सरकार पर बंगाली मज़दूरों के उत्पीड़न का आरोप लगाया, उसके एक दिन आगे पीछे भाजपा के एक केंद्रीय मंत्री, महेश शर्मा फ्लैट निवासियों से मिलने पहुंच जाते हैं.

इस फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग टीम को ये भी पता चला कि 2600 फ़्लैटों वाली महागुन मॉडर्न सोसाइटी, अभी दो साल पहले ही बनकर तैयार हुई है, जिसमें अभी 2000 फ्लैट के लोग ही रहने आए हैं. इन फ्लैटों में रहने वाले, कथित तौर पर संघ से जुड़े लोग व्हाट्सऐप पर ये प्रचार करने लगे हैं कि ये कामगार बांग्लादेशी नागरिक हैं. यानी यहां केवल भारतीय गणराज्य ही सक्रिय नहीं है. कुछ गैर सरकारी तत्व भी सक्रिय हैं जो विशुद्ध ‘काम के हालात’ के मुद्दे पर मज़दूरों और मालिकों के बीच हुई तकरार को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश में जुट गए हैं. जिस दिन ये टीम पहुंची, उसी दिन इसी इलाक़े से भाजपा के सांसद और केंद्र में संस्कृति मंत्री महेश शर्मा की गाड़ी उस महागुन मॉडर्न के गेट के अंदर दाख़िल होती दिखी, जहां पत्रकारों को भी जाने की इजाज़त नहीं दी जा रही थी. एसएचओ परशुराम का कहना था, “वो मंत्री हैं, इस इलाक़े से सांसद हैं, वो क्यों नहीं जा सकते? फ्लैट मालिकों की आज मीटिंग चल रही है, कुछ लोग उन्हीं बंगाली मज़दूरों से काम कराना चाहते हैं, कुछ लोग हाउस कीपिंग एजेंसियों से मदद लेना चाहते हैं. मंत्री जी उनसे बात करेंगे. जो भी तय होगा उसके अनुसार कार्रवाई होगी.”

(अंतरिक्ष अपार्टमेंट और महागुन मॉडर्न के ठीक पीछे बसी झुग्गी बस्ती.)

यानी दिहाड़ी मज़दूरी करने वाले, झुग्गी में रहने वाले 13 लोगों को जेल में भेजने के बाद भी और गिरफ़्तारियां या कुछ और कार्रवाई हो सकती है, परशुराम जिनके पीछे एक तरफ़ गांधी की और दूसरी तरफ़ हिंदुओं की देवी दुर्गा की फ़ोटो लटक रही थी, कहते हैं, “ये इस पर निर्भर है कि फ्लैटवाले क्या निर्णय लेते हैं. अगर उन्हें इन्हीं लोगों से काम कराना है तो हम क्या कर सकते हैं. लेकिन अगर नहीं तो क़ानूनी कार्रवाई करनी पड़ेगी.” और संकेत देते हैं कि ‘अभी कुछ और गिरफ़्तारियां हो सकती हैं.’

और इसका संकेत रविवार रात को ही मिल जाता है जब, इंडियन एक्स्प्रेस अख़बार के अनुसार, केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा फ्लैट वालों से मीटिंग के बाद ऐलान करते हैं कि “जिन लोगों को गिरफ़्तार किया गया है, ये सुनिश्चित किया जाएगा कि उन्हें ज़मानत न मिले. हम फ्लैट निवासियों के साथ हैं और उनकी तरफ़ से कोई ग़लती नहीं हुई है. भीड़ पहले से हिंसा की मंशा से हथियारबंद होकर आई थी. मीडिया, एनजीओ और मानवाधिकार के नाम पर दुकान चलाने वाले कुछ मुट्ठीभर लोग इस मामले को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश में हैं. मैंने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया है कि वो इसका मुंहतोड़ जवाब दें.”

और दूसरे दिन महागुन के सामने फ़ुटपाथ की दुकानों पर बुलडोज़र चला दिया जाता है.

उधर छह दिन से झुग्गी के लोग रोजी रोटी जाने और गिरफ़्तारी की दोहरी चिंता में रात को भागे भागे फिर रहे हैं. जब हम बस्ती में पहुंचे तो कूचविहार की पूजा रॉय ने बताया, “रात में मर्द झुग्गियों में नहीं सो रहे हैं, सिर्फ बच्चे और महिलाएं यहां रहती हैं. पूरा दहशत का माहौल है, रात को ठीक से सो नहीं पाते. बच्चों को लेकर कहां कहां भागते फिरें.”

हालात का बयान करते करते एक महिला की आंखों में आंसू आ गए. वो उसी दिन पास के गांव में एक कमरे का मकान ढूंढ कर आई थी, “मेरे पति नोएडा की एक गारमेंट फैक्ट्री में काम करते थे और पूरा परिवार इंदिरापुरम में रहता था. कुछ साल पहले पति के फ़ेफ़ड़े, दिल और गुर्दे में दिक्कत शुरू हो गई तो नौकरी छूट गई. साल भर पहले यहां झुग्गी में अपने तीन बच्चों और उनके साथ रहने आ गई. अब ये काम भी चला जाएगा तो रहेंगे कहां, खाएंगे क्या?” उनके पति अशरफ़ सोसाइटी के एक गेट के सामने सिलाई मशीन रख कर दो चार पैसे का जुगाड़ कर लेते हैं. पूरे घर का भार इस अकेली महिला के ऊपर है. रात को पुलिस के आने की खबर मिलती है तो अपनी दो जवान बेटियों, एक बेटे को लेकर अपने बीमार पति के साथ उन्हें खेतों की ओर भागना पड़ता है. इससे तंग आकर उन्होंने इस बस्ती को छोड़ने का मन बना लिया.

लेकिन जिस बात का संकेत थानाध्यक्ष परशुराम ने दिया था, वो आशंका दूसरे दिन ही सच्चाई में बदल गई. 16 जुलाई को फ़्लैट मालिकों की मीटिंग में तय हुआ कि विरोध प्रदर्शन में आगे आगे दिखने वाले कुछ लोगों को ब्लैक लिस्ट कर बाकी बंगाली कामगारों को महागुन मॉडर्न सोसाइटी में काम करने की इजाज़त दे दी जाए. सोसाइटी के लोगों ने इमारतों के सामने फुटपाथ पर रेहड़ी लगाकर खाने पीने का सामान बेचने वालों, गुमटी में पान बीड़ी बेचने वालों से अपनी असुरक्षा जताई. इंडियन एक्स्प्रेस की ख़बर के अनुसार, दूसरे दिन नोएडा अथॉरिटी ने इन रेहड़ी पटरी के दुकानदारों पर अवैध अतिक्रमण के नाम पर बुलडोजर चला दिया. शायद अथॉरिटी कार्रवाई कर ये संकेत देना चाह रही थी कि झुग्गी बस्ती भी उजाड़ी जा सकती है!

(जोहरा बीबी का घर जिसपर ताला लटका हुआ है.)

लेकिन क़रीब 100 परिवारों की ये छोटी सी बस्ती आई कहां से? असल में इसकी कहानी, पश्चिम बंगाल में माकपा सरकार के 35 सालों और पिछले सात आठ सालों से ममता बनर्जी के शासन (या कुशासन) और भारतीय गणराज्य के पूंजीवादी विकास के तह में ले जाती है.

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एक तरफ़ लेबर कैंप और दूसरी तरफ़ मैनचेस्टर, मैनहट्टन, मिलानो, रोमानो

बस्ती की कहानी बड़ी दिलचस्प है. मुख्य धारा के उत्पादन यानी फैक्ट्री, कल कारखाने या ऑफ़िसों से निकाल बाहर किए गए, लोग लेबर कैंप से भी बदतर हालात वाली इन झुग्गियों में आकर बसते हैं. इनमें बहुतायत आबादी खेती किसानी से दर बदर लोगों की है. उदारहण के लिए इस झुग्गी में रहने वाले अधिकांश लोग पश्चिम बंगाल के कूच बिहार के भूमिहीन किसान हैं. इन सोसाइटियों के समानांतर जाने वाले ग्रेटर नोएडा की मेट्रो के बीच खाली जगह में बसी ये झुग्गियां फूस की नहीं टीन की हैं. जो भी यहां रहना चाहता है उसे कथित रूप से पास के गांव के एक ठेकेदार को किराया देना पड़ता है. लेकिन इससे बड़ी बात ये है कि यहां 12X8 का एक टीन का बड़ा बक्सा खड़ा करने के लिए किरायेदार को 10 हज़ार रुपये खर्च करना पड़ता है. अपनी लागत से बने इस दड़बेनुमा झुग्गी का किराया 500 रुपये है, जो ठेकेदार पैसा वसूलता है उसने बिजली की भी व्यवस्था की है. गांव यहां से 500 मीटर दूर है. ये बिजली सिर्फ रात को दी जाती है. झुग्गी के बीचोबीच 15-20 टॉयलेट बनाए गए हैं, जिसके बाहर टाट का पर्दा लटका दिया गया है. क़रीब 75 घरों के बीच सिर्फ दो हैंडपंप ठेकेदार ने लगवाए हैं, वो भी हर घर से 500 रुपये चंदा वसूल कर. किसी भी घर में पंखा तक नहीं है. रात में लोग ऊंचाई पर जाकर सोते हैं, महिलाएं बच्चे इस टीन के बक्से में भयंकर गर्मी में बिताते हैं.

दूसरी तरफ़, मैनचेस्टर, मैनहट्टन, मिलानो, फ़रेरा, रोमानों, सिएना, मांटोवा और ऐसे ही अनजान नाम के महागुन के कुल 15 टॉवरों में 800 वर्ग फ़ुट से लेकर दो दो हज़ार वर्ग फ़ुट के दो बेडरूम और तीन बेडरूम फ्लैट हैं. हर कमरे में एसी और सारी आधुनिक सुविधाएं. हर फ़्लैट वाले के पास औसतन एक कार है. एक अनुमान के अनुसार, फ़्लैटों की क़ीमत 50 लाख से लेकर 90 लाख रुपये तक है. सोसाइटी के गेट से अंतिम टॉवर के बीच क़रीब 500 मीटर की दूरी है, जिसके लिए गोल्फ़ क्लबों में आम तौर पर दिखने वाले इलेक्ट्रिक ऑटो का इंतज़ाम है.

मैनहट्टन निवासियों की आमदनी का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं लेकिन अगर मोटामोटी तुलना की जाए तो किसी रेस्त्रा में इनके एक दिन के बिल के बराबर, उनके घरों में काम करने वाली महिला कामगारों को एक घर से आमदनी होती है. एक महिला कामगार को फ्लैट में पूरे महीने झाड़ू, पोछे और बर्तन के लिए 1500 रुपये दिए जाते हैं. इसमें भी कुछ फ्लैट मालिक मोलभाव करते हैं और 1200 रुपये देते हैं. खाना बनाने वाली कामगार औरतों का रेट यहां प्रति व्यक्ति 2000 रुपये है. लेकिन इसमें भी मोलभाव होता है और दो लोगों के खाने के तीन हज़ार रुपये दिये जाते हैं. एक महिला औसतन पांच से छह घरों में काम कर आठ से 10 हज़ार रुपया कमा लेती है. दूसरी तरफ़ यहां आए रहने वाले अभी नव धनाढ़्य वर्ग के लोग हैं, जिन्होंने बैंक से कर्ज़ लेकर फ्लैट खरीदा है और आने वाले कई सालों तक वो इसकी ईएमआई चुकाते रहेंगे. यहां रहने वाले लोग प्रभावशाली हैं. उनकी पहुंच, पुलिस प्रशासन से लेकर, अदालतों और मीडिया तक में है. राजनीतिक पार्टियां इससे अछूती नहीं हैं और यही कारण है कि एक बुलावे पर भाजपा के केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा यहां पहुंच जाते हैं, लेकिन झुग्गियों में जाने की जहमत नहीं उठाते. कुछ लोगों का कहना है कि उनका आगमन ‘बांग्लादेशी थ्योरी को सपोर्ट करने’ के लिए है. हालांकि नोएडा के पुलिस अधीक्षक पहले ही कह चुके हैं कि ‘कामगार बांग्लादेशी नागरिक नहीं हैं.’

लेकिन इन दो दुनियाओं के बीच फर्क को महसूस किया जा सकता है और दोनों की ताक़त का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

घरेलू कामगार यूनियन के कार्यकर्ता आलोक कुमार कहते हैं, “जब किसी महिला कामगार की एंट्री होती है तो गार्ड शरीर छूकर चेकिंग करती हैं. पर्स में रखे पैसे दर्ज किए जाते हैं और अगर लौटते समय 10 रुपये से 12 रुपये भी हो गए तो फ्लैट में फ़ोन कर पूछा जाता है कि, मैडम आपने दिए हैं? ऐसे में एक महिला लापता हो जाती है और जब पूछा जाता है तो एक के बाद एक बहाने बनाए जाते हैं. पहले कहा जाता है कि वो किसी के साथ भाग गई होगी, फिर कहा जाता है कि सुबह आना, फिर कहा जाता है कि उसने चोरी की थी. और उलटे पुलिस, इंसाफ़ मांगने वालों पर ही 307 का मुकदमा ठोंक देती है.”

(ज़ोहरा बीबी को 12 जुलाई को हुए हंगामे के बाद सोसाइटी से बाहर लाते पुलिसकर्मी. साभारः इंडियन एक्स्प्रेस)

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पूंजीवादी लोकतंत्र का कूच बिहार, दिल्ली और वॉशिंगटन कनेक्शन

इस पूरी कहानी का एक सिरा पश्चिम बंगाल के 35 साल के माकपाई शासन, करीब आठ साल के ममता बनर्जी के शासन और दिल्ली में विराजमान रहीं कांग्रेसी और भाजपाई सरकारों से जुड़ा है तो दूसरा सिरा विश्वपूंजीवाद के केंद्र वॉशिंगटन से जुड़ा है. बात पश्चिम बंगाल की करते हैं. कहा जाता है कि भूमि सुधार को लागू करने की वजह से ही पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की सरकार रिकॉर्ड सालों तक चली. बल्कि पूरे देश में भूमि सुधार लागू करने में वाम मोर्चा सरकार अभी भी नंबर वन गिनी जाती है. तो फिर कूच बिहार में इतने भूमिहीन कैसे पैदा हो गए? असल में कुछ विद्वानों का कहना है कि वाम मोर्चे का भूमि सुधार काग़ज़ी ज़्यादा था. वहां ज़मींदारी ख़त्म कर दी गई, दस्तावेज पर जिसके क़ब्ज़े में ज़मीन थी, उसे सौंप दी गई. इसमें किसी के पास 20 बीघे ज़मीन आई तो किसी के पास कुछ कट्टे खेत. हालांकि उस ज़माने में भी ये बड़ी उपलब्धि थी, ज़मींदार से सीधे किसानों के हाथ में ज़मीन आ गई. लेकिन तर्क संगत वितरण फिर भी नहीं हुआ. निचली जातियां जो दूसरे के खेतों पर मज़दूरी करती थीं, उनकी हालत जस की तस बनी रही. पहले खेतों में काम मिल जाता था लेकिन ट्रैक्टर और मशीनीकरण ने इनका वो रोज़गार भी छीन लिया. मनरेगा से भी इन्हें कोई खास मदद नहीं मिली. नोटबंदी की वजह से नकदी संकट ने उन्हें बिल्कुल ही बेज़ार बना डाला, तो इन्होंने पलायन करना शुरू कर दिया. आज इनके लिए महीने में 1000 रुपये भी बचा पाना कूच विहार के दूरस्थ इलाक़े के मुकाबले एक बड़ी पूंजी से कम नहीं.

दिलचस्प है कि जिस महागुन मॉडर्न को बने हुए अभी दो साल भी नहीं हुए हैं, वहां अभी रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन नहीं बना है. वहां का मेंटेनेंस एक अमरीकी कंपनी जेएलएल देखती है. रियल सेक्टर में मेंटेनेंस का काम देखने वाली इस अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी की वेबसाइट के अनुसार, कंपनी का प्रसार 16 देशों में है और जिसका कुल वैश्विक व्यापार लगभग 400 अरब रुपये है. ये भारत के 11 बड़े शहरों में अपनी सेवाएं दे रही है. हंगामे से अगर कंपनी के कार्पोरेट हित को नुकसान पहुंचता है तो इसे भारत सरकार अपना नुकसान समझती है क्योंकि विदेशी निवेश के माहौल पर इससे असर पड़ता है. भारत में चाहे जिसकी भी सरकार रही हो, 1992 में शुरू हुए वैश्विकरण के बाद से उसकी नज़र में पूंजी को ‘सुपर मानवाधिकार का दर्ज़ा’ मिल चुका है. ऐसा नहीं है कि इस कंपनी का अंतरविरोध श्रमिकों से है, बल्कि ऐसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कूदने से भारत के छोटे वेंडरों का सूपड़ा साफ़ होना तय है. जैसा कि अब ये जगजाहिर हो चुका है, बहुराष्ट्रीय कंपनी क्लासिकीय पूंजीवाद के स्वतंत्र प्रतियोगिता के नियमों से नहीं चलती हैं, इसलिए उनकी कोशिश होती है मोनोपली यानी एकाधिकार स्थापित करने की.

इतनी बड़ी कंपनी के लिए एक कामगार औरत का ग़ायब हो जाना उतना मायने नहीं रखता जितना कंपनी की छवि का धूमिल हो जाना. शायद इसीलिए कंपनी की ओर से मज़दूरों पर 307 का मुकदमा दर्ज कराया गया हो. नोएडा प्रशासन के लिए विदेशी निवेश हमेशा से सर आंखों पर रहा है, इस घटना ने औद्योगिक अशांति को पैदा किया है इसलिए उसका दमन ज़रूरी है, इसलिए भी वो इन मज़दूरों से लोहे के हाथों से निपट रहा है. पूरा भारतीय गणराज्य पूंजी की तरफ़ खड़ा नज़र आने लगा है: पुलिस, माडिया, अदालत, अथॉरिटी, रेज़िडेंशियल सोसाइटी, सत्ताधारी पार्टी.

लेकिन जहां अंतरराष्ट्रीय पूंजी लगी हो, भारत सरकार की साख़ दांव पर लगी हो और नोएडा प्रशासन को विश्वमानचित्र पर अपनी छाप छोड़ने की चिंता लगी हो, ये बंगाली मज़दूर यहां क्या कर रहे हैं?

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करोड़पतियों को बंगाली मज़दूर ही क्यों चाहिए

महागुन मॉडर्न में जब ये हंगामा बाहर चल रहा था तो फ्लैट मालिकों में भी एक बात को लेकर मतभेद पैदा हो गया था. शायद मीटिंग इसीलिए बुलाई गई क्योंकि सभी एकमत नहीं थे कि इन बंगाली महिला घरेलू कामगारों से बिल्कुल भी काम न लिया जाए. दरअसल इसके पीछे भी मुनाफ़ा और पूंजी का तर्क काम कर रहा था. यहां आम तौर पर न्यूक्लियस फ़ैमिली वाले घरों में हाउस कीपिंग का खर्च अभी पांच हज़ार के आस पास है. ज्यादातर फ्लैट मालिक सर्विस क्लास के हैं यानी उन्हें नव धनाढ्य कहा जा सकता है. कर्ज चुकाने, अन्य खर्चों और बचत की चिंता में उन्हें बंगाली मज़दूर सस्ते पड़ रहे हैं. अगर ये काम किसी हाउस कीपिंग एजेंसी से कराए जाएं तो ये खर्च सीधे दो गुना या तीन गुना तक जा सकता है. कुछ फ्लैट मालिक गुड़गांव की तरह की व्यवस्था चाहते हैं, जहां हाउस कीपिंग सेवा देने वाली एजेंसियों के मार्फत घरेलू कामगार मुहैया कराए जाते हैं और इसका खर्च 20-20 हज़ार तक बैठता है. यूनियन के कार्यकर्ता आलोक कुमार का कहना है कि, ‘बंगाली मज़दूर बाज़ार भाव से सीधे आधे दामों पर काम करते हैं. अगर एजेंसियों की तरफ़ से मेड रखा जाए तो उसकी कुछ शर्तें होती हैं, उसे सर्वेंट क्वार्टर में रखेंगे तो उसके खाने का भी खर्च उठाना पड़ेगा.’

फ्लैट मालिकों का ये अंतरविरोध जेएलएल जैसी बड़ी पूंजी का एक प्रोटोटाइप भर है. बंगाली मज़दूर इसलिए सस्ते में काम कर लेते हैं कि वो अप्रवासी हैं, लोकल नहीं. लोकल उस तरह की स्थितियां सहन नहीं कर सकते जैसा एक माइग्रैंट लेबर कर सकता है. दूसरे ये अप्रवासी मज़दूर उन स्थानीय गांव वालों की कमाई का एक बड़ा ज़रिया हैं, जिनकी ज़मीनें अधिग्रहित कर अट्टालिकाएं तो खड़ी कर दी गईं लेकिन उनके रोज़गार का कोई इंतज़ाम नहीं किया गया. ये गांव वाले इन मज़दूरों को किराए पर कमरे देते हैं, उन्हें राशन देते हैं, इसी वजह से उनकी दुकानें चलती हैं और सबसे बड़ी बात कि, उन मज़दूरों से वे दबदबे के साथ तीन का तेरह वसूल सकते हैं.

इसलिए माइग्रैंट मज़दूर यहां के निचले स्तर की अर्थव्यवस्था की जान भी हैं. वैसे भी ग़रीबी के समंदर के बीच अमरी के ये छोटे छोटे टापू इन्हीं वजहों से चमकते दिखते हैं. हर पॉश कॉलोनी के ईर्द गिर्द झुग्गी झोपड़ी या अम्बेडकर कॉलोनी इसीलिए बसने दी जाती हैं.

महागुन मॉडर्न का मामला इससे अलग नहीं है. घरेलू कामगारों की कितनी फौज यहां काम करती है अगर देखना हो तो सुबह छह बजे महागुन या अंतरिक्ष अपार्टमेंट या ऐसे ही किसी बहुमंजिली रिहाइशी इमारत के सामने खड़े हो जाएं, आप देखेंगे कि फैक्ट्रियों में सुबह आठ बजे जिस तरह लाइन लगा कर मज़दूर अंदर जाते हैं, वही हाल यहां का है. बस फैक्ट्री मज़दूरों की तरह इनके वो अधिकार नहीं हैं, न इनका पीएफ़ कटता है, न मेडिकल की सुविधा होती है और पीरियड्स की छुट्टी, महिला सुरक्षा, रात की ड्यूटी और गर्भधारण जैसी छुट्टिओं की तो यहां कोई सोच भी नहीं सकता.

ऐसा लगता है कि जैसे इस देश में लेबर कैंप बना दिए गए हों. जैसे जैसे अमीरी गरीबी की खाई बढ़ती जाएगी लेबर कैंपों की संख्या भी बढ़ेगी और असंतोष भी. आखिर वो भी इसी आज़ाद भारत के नागरिक हैं और अट्टालिकाओं में रह रहे किसी नागरिक से उनका मानवाधिकार कम नहीं है! रूप रॉय के शब्दों में कहें तो, “यहां हमारे सुख दुख एक हैं, किसी के चेहरे पर नहीं लिखा है कि वो हिंदू है या मुसलमान.”

जब थानाध्यक्ष परशुराम ये सवाल किया गया कि ‘क्या क़ानून की नज़र में शेठी परिवार और ज़ोहरा बीबी में कोई अंतर है?, उनकी भी आवाज़ कांप जाती है.’ पर सच्चाई सभी जानते हैं. एक जेनुईन मुद्दे पर वर्गीय और जातीय नफ़रत को हथियार बना कर सत्ता, शासन और धर्म की राजनीति अपना खेल खेल रही है, पर कब तक!

फैक्ट फाइंडिंग टीम के सदस्य (टीम वहां 16 जुलाई को पहुंची थी. रिपोर्ट 18 जुलाई 2017 को बनकर तैयार हुई.)

डॉ सिद्धार्थ, कमलेश कमल, नन्हें लाल और संदीप राउज़ी

Workers Unity Team

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