बोनस के हक़ के लिए 60 दिनों तक चली सूती मिल मज़दूरों की हड़तालः इतिहास के झरोखे से-3
By सुकोमल सेन
टाटा आइरन एंड स्टील वर्क्स, जमशेदपुर में गंभीर हड़ताल होने के मात्र दो वर्ष बाद उसी उद्योग में एक और बड़ी हड़ताल सितंबर 1922 में हुई।
लोहा और स्टील के क्षेत्र में इसी समय बड़े परिर्वतन हो रहे थे। विश्व में स्टील की कीमत गिर रही थी और यूरोप में मजदूरी कम की जा रही थी जबकि टाटा कंपनी ने इसी दौरान व्यवसाय का विस्तार करने और अपनी पूंजी को लगभग दुगना करने का साहसिक कदम उठाया।
एसी ही परिस्थितियों में लेबर एसोसिएशन ने प्रबंधकों के समक्ष अपनी मांगों का ज्ञापन पेश किया।
अपने ज्ञापन में मजदूरों ने मजदूर यूनियन को मान्यता, आठ घंटे की जनरल पारी, कोई अनिवार्य ओवर टाइम नहीं, बोनस और बरखास्त कर्मचारियों को पुन: काम पर बहाली की मांगें पेश कीं।
19 सितंबर 1922 को पूर्ण हड़ताल हो गई। लेकिन प्रबंधन के आड़ियल रुख के कारण हड़ताल लंबी चलने से मजदूरों में थकान आने लगी।
ए.आई.टी.यू.सी के प्रतिनिधि के रुप में दीवान चमन लाल 20 अक्टूबर को जमशेदपुर पहुंचे और कुछ शर्तों के साथ प्रबंधन के साथ समझौता हुआ।
अन्य बातों के साथ-साथ समाधान निकालने के लिए दोनों पक्षों से 10-10 प्रतिनिधि लेकर एक समाधान समिति का गठन करने का निर्णय हुआ।
यूनियन की मान्यता के लिए ए.आई.टी.यू.सी. ने आश्वासन दिया। इन शर्तों पर 23 अक्टूबर को मजदूर काम पर वापस लौटे।
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समझौता और प्रबंधन की बदमाशी
लेकिन लगभग इसके तुरंत बाद ही प्रबंधन ने लेबर एसोसिएशन के सचिव जी. सेठी सहित कई कर्मचरियों को बरखास्त कर दिया, परिणामस्वरुप गंभीर तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई।
इसके बाद गैर हड़तालियों के प्रतिनिधि को समाधान समिति में शामिल करने के प्रबंधन के दबाव के कारण संकट और गहरा हो गया।
इसी तनाव और अशांति क स्थिति में अंततोगत्वा सन् 1924 में समाधान समिति की बैठक जमशेदपुर में हुई।
मजदूरों की तरफ से सी.आर. दास के नेतृत्व में चमन लाल, एन.एम. जोशी, सी.एफ. आन्द्रीव और अन्य लोगों ने लेबर एसोसिएशन के सदस्य और साथ ही साथ बाहर से आए लोगों के रुप में भागीदारी की।
इसेक अतिरिक्त मोतीलाल नेहरु और रंगास्वामी आय्यर ने अतिथि के रुप में बैठक में भागीदारी की।
अतिरिक्त मुद्दों पर आपसी समझ बन गई लेकिन लेबर एसोसिएशन को मान्यता और खासकर जी. सेठी को शामिल करने के मुद्दे पर गतिरोध उत्पन्न हो गया।
इस समस्या का समाधान सी.एफ. आन्द्रीव की अध्यक्षता में यूनियन को पुनर्गठित करके मान्यता प्राप्त करने से हुआ। प्रबंधन ने यूनियन को मान्यता प्रदाना की और जी. सेठी को पुन: नौकरी में ले लिया।
इस दौर की सूती कपड़ा मिल मजदूरों की हड़तालें विशेष रुप से ध्यान देने योग्य हैं। इन हड़तालों का मुख्य मुद्दा बोनस की मांग थी। इस समय तक मजदूर बोनस को विलंबित वेतन (डिफर्ड वेज) समझते थे।
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सूती मिलों की ऐतिहासिक हड़ताल
अक्टूबर 1922 में सूरत के सूती कपड़ा मिलों के करीब तीन हजार मजदूरों ने औसत मासिक वेतन का 42.5 बोनस की मांग करते हुए हड़ताल शुरु कर दी।
सूरत के आयुक्त ने मामले में हस्तक्षेप किया और मजदूरों से 25% बोनस स्वीकार करने को कहा। मजदूर समुचित ढंग से संगठित नहीं थे, परिणामस्वरुप हड़ताल असफल हो गई और सौ मजदूर नौकरी से निकाल दिए गए।
अहमादाबद के मिल मालिकों द्वारा गत वर्ष का एक पंचनिर्णय न लागू करने से वहां के मजदूरों में गंभीर असंतोष व्याप्त था।
इसके बाद 1 अप्रैल 1923 से मिल मालिकों के संगठन (मिल ओनर्स एसोसिएशन) ने मजदूरों के वेतन में 20% कटौती की घोषणा कर दी। वेतन कटौती के इस निर्णय के खिलाफ 56 मिलों से 43,000 मजदूर सड़कों पर निकल पड़े।
दो माह से अधिक समय तक हड़ताल जारी रही और 24,00,000 कार्यदिवसों की हानि हुई। मजदूर बहुत कठिन संघर्ष में शामिल थे।
लेकिन हड़ताल को जारी रखने के लिए समुचित कोष नहीं था। लंबी हड़ताल से थक कर बहुत से मजदूर औद्योगिक केंद्रों को छोड़कर अपने गांव वापस चले गए।
अंततोगत्वा आहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन ने पंचनिर्णय के द्वारा वेतन में 16% की कटौती को स्वीकार कर मजदूर काम पर वापस गए।
अहमदाबाद के मिल मालिकों द्वारा वेतन कटौती लागू करने की सफलता से प्रेरित होकर बांबे मिल ओनर्स एसोसिएशन ने भी जुलाई 1923 से वार्षिक बोनस बंद करने का निर्णय कर दिया।
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बोनस के लिए भीषण लड़ाई
मजदूर विगत पांच वर्षों से यह बोनस प्रप्त कर रहे थे। मिल मालिकों के इस निर्णय ने मजदूरों को काफी उत्तेजित कर दिया और उन्होंने प्रतिरोध करने का निर्णय किया।
17 जनवरी 1924 से मुबंई के सूती कपड़ा मिलों के एक 1,60,000 मजदूर हड़ताल पर चले गए। यह हड़ताल दो माह से अधिक समय तक जारी।
इस दौरान 1,75,000 कार्यदिवसों का नुकसान हुआ। ए.आई.टी.यू.सी के पूर्व अध्यक्ष जोसेफ बपिस्ता और अन्य मजदूर नेताओं ने मजदूरों को हड़ताल न करने की सलाह दी लेकिन जब हड़ताल शुरू हो गई तो उन्होंने समाधान के लिए कठिन प्रयास किए।
मजदूरों को बोनस रोके जाने के बाद वेतन कटौती की आशंका थी। किसी प्रकार जोसेफ बपतिस्ता की आध्यक्षता और सहस्त्रबुद्धे के मंत्रित्व में हड़ताल का समाधान निकालने के लिए एक समिति का गठन हुआ।
समिति के अन्य सदस्य एन.एम.जोशी, एच.एस. झबवाला, एफ.ए. गिनवाला, कांजी द्वारकादास और अन्य दो मजदूर थे।
इस समिति ने सरकार से पंच नियुक्त करने का अग्रह किया लेकिन मिल मालिकों ने इससे इनकार कर दिया। मिल मालिकों का तर्क था कि बोनस, मुनाफा और मिल मालिकों की शुभेच्छा पर निर्भर है। बोनस वेतन का हिस्सा नहीं है।
मिल मालिकों ने तालाबंदी की घोषणा कर दी। लेकिन जब मिल मालिकों के इस निर्णय में मजदूर नहीं झुके और सरकार की सिफारिशों का सहारा लेकर बोनस का निर्णय करने के लिए इस शर्त पर सहमत हुए कि कमेटी द्वारा तय नियम और शर्तों, मालिकों द्वारा स्वीकृति होनी चाहिए।
तब सरकार ने मुंबई के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक जांच समिति गठित कर दी और मालिकों द्वारा निर्देशित नियम और शर्तों के अनुसार कमेटी को सूचित करना था:
‘क्या बोनस के बारे में मजदूरों का कोई दावा, प्रचलित नियम, कानूनी या इसके समतुल्य नियम लागू करने लायक है। गत वर्षौं के मुनाफे की तुलना में उस वर्ष का मुनाफा चाहे जो हो बोनस की मांग न्यायसंगत नहीं है।’
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दीर्घकालीन मज़दूर हड़ताल की मिसाल
इस परिस्थिति में जांच समिति निर्णय पहले से ही मालूम हो गया। 12 मार्च को जांच समिति की प्रकाशित रिपोर्ट पुर्णत: मालिकों के पक्ष में थी।
रिपोर्ट में कहा गया कि ‘बोनस के लिए मजदूरों का कोई दावा नहीं बनता और मुनाफा भी ऐसा था कि उस पर बोनस देना संभव नहीं है।’
यह हड़ताल अनेक विपरीत परिस्थितियों के बीच मजदूरों के दृढ़ संकल्प, कठोर निर्मय और बेहर परेशानियों से भरे दीर्घकालीन संघर्ष को चलाने की शानदार मिसाल है।
एक लंबे अरसे तक मजदूरों का वेतन रुका रहा, कोई भी हड़ताल कोष नहीं था, बाहर से कोई मदद भी नहीं थी और सबसे बड़ी बात कि मजदूर ठीक से संगठित नहीं थे तब भी लगभग ढाई माह तक मजदूर दृढ़ता से हड़ताल चलाते रहे। हड़ताल में खून खराबा भी हुआ।
कुछ जगहों पर झड़पें हुईं और पुलिस ने मजदूरों पर गोलियां चलाई। जांच समिति की रिपोर्ट आने के बाद 25 मार्च 1924 को हड़ताल वापस हो गई और तभी मिलों से पुलिस वापस बुलाई गई।
अति उत्साहित मिल मालिकों ने मजदूरों पर एक और हमला किया। उसी वर्ष जुलाई में मालिकों ने भोजन भत्ता में कटौती की घोषणा की जिसके प्रभाव स्वरुप वेतन में 11.5% की कटौती हो गई।
यह कटौती थोक मूल्य सूचकांक के बढ़ने और उपभोक्ता सूचकांक के 180 से 190 तक बढ़ने पर की गई। जबकि मुंबई के श्रम कार्यालय ने उसी माह 1914 को 100 आधार मान कर अपनी सांख्यकी गणना रिपोर्ट प्रकाशित की थी। (क्रमशः)
(भारत का मज़दूर वर्ग, उद्भव और विकास (1830-2010) किताब का अंश। ग्रंथ शिल्पी से प्रकाशित)
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