नई शिक्षा नीति में अलग बजट होगा, लेकिन कॉलेजों को कर्ज़ देने के लिएः शिक्षा का सर्वनाश-2
By एस. राज
नई शिक्षा नीति-2020 में शिक्षा पर जीडीपी का 6% खर्च करने का लक्ष्य रखा गया है, जिसपर मोदी सरकार ने तो ढिंढोरा पीटा ही है लेकिन जिसकी कुछ आलोचकों ने भी प्रशंसा की है।
हालांकि जिस बात को सामने नहीं लाया जा रहा है वह यह है कि 6% का यह लक्ष्य कोई नई बात नहीं है, बल्कि 1966 की कोठारी कमीशन रिपोर्ट में ही इस लक्ष्य को सामने रखा गया था और इसी रिपोर्ट के आधार पर पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 तैयार की गई थी।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, जो केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है, को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
तब से लेकर अभी तक शिक्षा में जीडीपी का 6% खर्च करने का यह लक्ष्य सभी सरकारों के खोखले वादों के रूप में ही जनता के सामने रहा है। जो भी आज इस लक्ष्य को देख मोदी सरकार की तारीफ कर रहे हैं उन्हें 2014 से अब तक मोदी सरकार द्वारा शिक्षा पर किए गए खर्च के आंकड़ों से अवगत रहना चाहिए।
भारत के आर्थिक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार मोदी सरकार द्वारा 2014-15 से 2018-19 के बीच शिक्षा पर महज जीडीपी का औसतन 2.88% खर्च किया गया, जो कि यूपीए-2 सरकार के निंदनीय आंकड़ों (औसतन 3.19%) से भी नीचे है।
इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि 6% का यह लक्ष्य प्राप्त होने की संभावना कितनी है।
शिक्षा पर सरकारी खर्च को बढ़ावा देने के बजाए NEP ठीक इसका उल्टा करता है। भव्य और जटिल शब्दों का इस्तेमाल करते हुए यह मूलतः शिक्षा का एक ऐसा निजी मॉडल बनाने की बात करता है जो पूरी तरह निजी पूंजी द्वारा संचालित हो और जिसमें सरकार की न्यूनतम भूमिका रहे।
पढ़ेंःशिक्षा को पूरी तरह बर्बाद करने का मजमून है नई शिक्षा नीतिः शिक्षा का सर्वनाश-1
स्वायत्तता यानी आत्मनिर्भरता यानी बाज़ार के हवाले
‘स्वायत्ता’ (ऑटोनोमी) का जिक्र NEP में कई बार हुआ है, जिसके तहत शिक्षण संस्थानों को ‘प्रशासनिक स्वतंत्रता’ दी जाएगी। इसे एक प्रगतिशील कदम की तरह पेश किया गया है जबकि असलियत में इसका अर्थ संस्थानों के लिए स्वतंत्रता कम और सरकार के लिए शिक्षा व्यवस्था में उसके दायित्व से स्वतंत्रता (छुटकारा) अधिक है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ग्रेडेड स्वायत्ता विनियम 2018 में उल्लिखित स्वायत्ता के आयाम एक ऐसे मॉडल की तरफ इशारा करते हैं जिसमें प्रशासनिक या कैसी भी स्वायत्ता पाने की शर्त वित्तीय स्वायत्ता होगी।
यानी शिक्षण संस्थानों को नया कोर्स शुरू करने, डिग्रियां देने, नए कैंपस स्थापित करने, अनुसंधान आरंभ करने जैसी कोई भी स्वतंत्रता तब ही मिलेगी जब सरकार इनके लिए इन संस्थानों को फंडिंग देने से ‘स्वतंत्र’ हों, यानी इनके लिए संस्थान खुद ही पैसों का इंतजाम करें।
अतः ‘स्वायत्ता’ को प्रगतिशील कदम बताकर शिक्षण संस्थानों पर थोपने का मतलब होगा और अधिक निजीकरण, फीस बढ़ोतरी, मानदंडों व विनियम में ढील, और शिक्षा का बाजारीकरण।
निजी-फिलैंथ्रोपिक फंडिंग और ‘सार्वजनिक-फिलैंथ्रोपिक साझेदारी’ के मॉडल को स्कूली व उच्च शिक्षा के लिए व्यापक रूप से प्रसारित किया जा रहा है जिसका जिक्र NEP में कई बार है।
‘फिलैंथ्रोपिक’ (परोपकारी/चैरिटी) एक और मनोहर शब्द है जिसे ‘निजी’ या ‘कॉर्पोरेट’ जैसे अधिक आपत्तिपूर्ण शब्दों की जगह पर इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि सभी प्रमुख फिलैंथ्रोपिक (चैरिटी) संस्था कॉर्पोरेटों और बड़ी पूंजी के ही अंग हैं।
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सरकार लोन देगी
यहां शिक्षा के क्षेत्र में निजी पूंजी द्वारा संचालित मॉडल खड़ा करने की बात कही जा रही है जो कि सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली के विकल्प के रूप में शिक्षण संस्थानों पर थोपी जा सके, और जिसके तहत शिक्षा के निजीकरण और सार्वजनिक शिक्षा के विध्वंस के लिए एक ठोस ढांचा तैयार हो सके।
शिक्षा का निजी मॉडल खड़ा करने के लिए NEP में प्रस्तावित कदम दरअसल पिछली सरकारों द्वारा उठाए गए कदमों का ही एक भयावह विस्तार है।
मोदी सरकार द्वारा 2017 में हायर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेंसी (HEFA) का गठन किया गया था जिसका काम है शिक्षण संस्थानों को, ग्रांट (फंड) की जगह पर, लोन देना और समय आने पर लोन में दी गई राशि को वसूलना।
जाहिर है, लोन चुकाने के लिए शिक्षण संस्थानों को खुद के स्रोतों से पैसों का इंतजाम करना पड़ता है, जिसका अंजाम होता है निजी हाथों पर निर्भर होना, फीस में बढ़ोतरी और कर्मचारियों के वेतन व सुविधाओं में कटौती।
इस मॉडल की संपूर्ण असफलता इस तथ्य से साबित हो जाती है कि HEFA को वार्षिक तौर पर आवंटित 2,750 करोड़ रुपये में से एक वर्ष में महज 250 करोड़ रुपये इस्तेमाल में आ पाए, जो कि कुल राशि का 10% भी नहीं है।
HEFA मॉडल स्थापित करना शिक्षा के निजीकरण-बाजारीकरण की तरफ तेजी से बढ़ने की मोदी सरकार की मंशा को सामने ले आता है।
शिक्षा मंत्रालय के AISHE रिपोर्ट 2018-19 के तहत देश के 78% कॉलेज निजी क्षेत्र में हैं और कुल कॉलेज भर्तियों का दो तिहाई निजी कॉलेजों में होता है।
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ठेके पर शिक्षकों की भर्तियां
हालांकि कुल यूनिवर्सिटी भर्तियों का 80% से अधिक सार्वजनिक यूनिवर्सिटियों में है, परंतु पिछले सालों के आंकड़ें काफी चिंताजनक हैं।
2014-15 से 2018-19 के बीच यूनिवर्सिटी भर्तियों में कुल बढ़त का 55% निजी यूनिवर्सिटियों और 33% सार्वजनिक किंतु ओपन यूनिवर्सिटियों में था।
यानी हाल के पांच वर्षों में यूनिवर्सिटी भर्तियों में कुल बढ़त का केवल 12% ही सार्वजनिक यूनिवर्सिटियों में था।
स्कूलों में भी कुल भर्तियों का 45% निजी स्कूलों में होता है, शिक्षा मंत्रालय की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार।
यह आंकड़ें स्पष्ट बताते हैं कि हम कितनी तेजी से एक सार्वजानिक शिक्षा प्रणाली की जगह पर एक निजी प्रणाली की स्थापना की तरफ बढ़ रहे हैं। (क्रमशः)
(पत्रिका यथार्थ से साभार)
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