चार लेबर कोड भी उतने ही मज़दूर विरोधी जितने तीन कृषि क़ानून, फिर मज़दूर वर्ग कहां है?
By अजित सिंह
जिस दिन संसद में कृषि बिल पारित किए गए उसके दूसरे दिन ही और उसी दबंगई से तीन लेबर कोड भी पारित कराए गए जबकि सदन में विपक्ष का कोई सदस्य मौजूद नहीं था
एक लेबर कोड ये सरकार पिछले साल ही पारित करा चुकी थी। ये चार श्रम संहिताएं यानी लेबर कोड उतने ही घोर मजदूर विरोधी हैं जितने कि तीन कृषि क़ानून।
परंतु हम देखते हैं कि मजदूर नेताओं के विरोध में कोई जुझारू क्रांतिकारी संघर्ष या बड़ा आंदोलन नहीं कर पा रहे।
26 नवंबर की हड़ताल में भी यूनियनों की स्थिति वैसी नहीं दिखी। जितना बड़ा उनके अधिकारों पर हमला हुआ है उस स्तर का प्रतिकार मजदूरों की ओर से नहीं दिखा। लगभग 100 साल पुराने मज़दूर अधिकारों को मोदी सरकार ने छीन लिया और मज़दूरों को 100 साल पीछे अधिकार विहीन स्थिति में धकेल दिया है।
सार्वजनिक संस्थानों के निजीकरण से लेकर मज़दूर अधिकारों व यहां तक कि खेती को भी कारपोरेट के हवाले किया जा रहा है।
एक तरफ सरकार जनवादी अधिकारों को खत्म कर रही है तो दूसरी तरफ इन्हीं छिन रहे अधिकारों की आवाज उठाने वाले लोगों का बल प्रयोग कर दमन किया जा रहा है।
मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में पूंजीपतियों को दो बड़ी सौगातें दी हैं। एक तरफ़ मज़दूरों के श्रम क़ानूनों को चार लेबर कोड में तब्दील कर पूंजी पर लगे तामाम प्रतिबंधों को समाप्त कर श्रम की खुली लूट के दरवाजे खोल दिए हैं।
अस्थाई नौकरियों का खात्मा, सार्वजनिक संस्थानों को निजी हथों में सौंपने की प्रक्रिया को तेज किया जा रहा तो वहीं दूसरी तरफ़ तीन नए कृषि क़ानूनों से किसानों की ज़मीन के साथ उनके मेहनत की लूट को भी पूंजी के हवाले कर दिया गया है।
अब किसान भी अपने को फ़ैक्ट्री में कार्यरत ठेका मज़दूरों की तरह खुद को महसूस करेगा। उसकी मजबूरी हो जाएगी कि वो पूंजीपतियों को अपना श्रम बेचे या भूखों मरे।
इसी साल मानसून सत्र में मोदी सरकार ने कृषि से संबंधित तीन नए कृषि बिल पारित करा लिया। किसान इन बिलों को अपने ख़िलाफ़ बता रहे हैं और शुरू से ही किसान इन बिलों के विरोध में सड़कों पर हैं।
25 सितंबर को देश के विभिन्न किसान संगठनों ने इन बिलों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन शुरू किया था, खासकर पंजाब व हरियाणा के किसानों का इन बिलों के प्रति विरोध लगातार बना हुआ है और किसान सड़कों पर हैं।
26 नवंबर को देश के 10 बड़े ट्रेड यूनियन सेंटरों द्वारा आम हड़ताल का आह्वान किया गया था। यह आम हड़ताल मुख्यता 4 लेबर कोड या श्रम संहिताओं और 3 नए कृषि बिलों के विरोध में बुलाई गई थी।
इस आम हड़ताल में किसानों की भागीदारी ज्यादा थी। हरियाणा और पंजाब के किसान दिल्ली कूच के नारे के साथ जब चले तो हरियाणा बॉर्डर पर पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश की।
हरियाणा पुलिस ने बड़े-बड़े पत्थरों के साथ-साथ कटीले तारों से किसानों का स्वागत किया। जब किसान इससे भी पार पा गए तो खट्टर पुलिस ने इस कड़कड़ाती ठंड में उन पर पानी की बौछार छोड़ी और आंसू गैस के गोले दागे।
परंतु किसानों के बुलंद हौसलों के सामने सत्ता और पुलिस तमाशाबीन ही साबित हुई। अब किसानों को दिल्ली बॉर्डर पर रोक दिया गया है।
सिंघु व टिकरी बॉर्डर पर भारी पुलिस बल व सीआरपीएफ के सुरक्षा बल तैनात हैं और किसानों को दिल्ली आने से रोका जा रहा है।
दिल्ली की इस प्रकार की घेराबंदी देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि किसान दिल्ली की सत्ता पर कब्जा करने आए हों। 27 नवंबर को जब पुलिस के साथ किसानों की भिड़ंत हुई तो पुलिस ने आखिर किसानों को दिल्ली में घुसने की इजाज़त दे दी लेकिन इसके साथ शर्त लगा दी कि उन्हें बुराड़ी में निरंकारी मैदान में ही इकट्ठा होना होगा।
लेकिन किसान संगठन सरकार के इस सशर्त दावत को मानन से इनकार कर दिया और वहीं बॉर्डर पर ही बैठ गए। किसानों का कहना था कि हम एक बंद मैदान से अपनी आवाज को बुलंद नहीं कर सकते। हम बंद नहीं बैठे रह सकते।
उधर 29 नवंबर को प्रधानमंत्री ने कृषि क़ानूनों को किसानों के फायदे का बताकर ढांढस बंधाने की कोशिश की है। उन्होंने कहा है कि बिलों को काफी विचार-विमर्श के बाद ही पारित किया गया है और किसानों को भ्रमित किया जा रहा है।
ऐसे में मोदी सरकार की मंशा इन क़ानूनों को वापस लेने की प्रतीत नहीं होती।
अगर कृषि बिलों को समग्रता में देखा जाए तो यह बिल भी उन्हीं नई आर्थिक नीतियों का परिणाम है जो कांग्रेस सरकार चाह रही थी और जिसे मोदी सरकार तेजी से आगे बढ़ा रही है।
इन क़ानूनों के मूल में पूंजीपतियों खासकर इजारेदारी पूंजी के हित छुपे हुए हैं। यह क़ानून छोटे व मझोले किसानों की पहले से तबाही बर्बादी की प्रक्रिया को और तेज कर देंगे।
मसला केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य का नहीं है। ये क़ानून खेती का कारपोरेटीकरण को बढ़ावा देने वाले हैं और किसानों को अब उसको उस जमीन पर खड़ा होना होगा जिस पर खड़े होकर वह अपने हितों को जान समझ कर पूंजी के खिलाफ मोर्चा खोल सकें।
लेकिन ये लड़ाई सिर्फ किसानों की नहीं है। वर्तमान शासक वर्ग शोषण दमन में कतई अंग्रेजों से पीछे नहीं है।
कश्मीरी आवाम के जनवाद का सवाल हो चाहे अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिम समुदाय के अधिकारों का सवाल हो या फिर दलितों व आदिवासियों का सवाल हो, तमाम मेहनतकश जनता के जनवाद को सत्ता में मौजूद फासिस्ट गिरोह पुरानी दास्तां में धकेल देना चाहते हैं।
इस प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग के ख़िलाफ़ मजदूर वर्ग को किसानों के साथ संगठित होकर मोर्चा खोलना होगा।
यह इतिहास का कार्यभार है कि मजदूर वर्ग अपने आंदोलन में अपने सहयोगियों की पहचान कर उन्हें शामिल करे और वर्तमान किसान आंदोलन से जुड़ कर फासिस्टों के रथ को रोकने में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले।
छोटे मझोले किसानों को भी अब सोचना होगा कि पूंजीपतियों के ख़िलाफ़ बिना अन्य शोषित तबकों के साथ आए खेती को बचाना मुश्किल है।
अब यह मज़दूर किसान एकता के बिना अकेले संघर्ष करके नहीं हासिल किया जा सकता। यह लड़ाई पूंजी के ख़ात्मे व समाजवाद को लाने का संघर्ष बन चुका है।
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