बदनाम करने की तमाम कोशिशों के बावजूद मज़दूर वर्ग के चहेते मार्क्स- पूण्यतिथि पर विशेष
(कार्ल मार्क्स की समाधि पर फ़्रेडरिक एंगेल्स का भाषण – विश्व मज़दूर वर्ग के महान अध्यापक कार्ल मार्क्स की 138वीं बरसी (14 मार्च) पर विशेष)
14 मार्च को तीसरे पहर, पौने तीन बजे, संसार के सबसे महान विचारक की चिंतन-क्रिया बंद हो गई। उन्हें मुश्किल से दो मिनट के लिए अकेला छोड़ा गया होगा, लेकिन जब हम लोग लौटकर आए, हमने देखा कि वह आरामकुर्सी पर शांति से सो गए हैं – परंतु सदा के लिए।
इस मनुष्य की मृत्यु से यूरोप और अमरीका के जुझारू सर्वहारा वर्ग की और ऐतिहासिक विज्ञान की अपार क्षति हुई है। इस ओजस्वी आत्मा के महाप्रयाण से जो अभाव पैदा हो गया है, लोग शीघ्र ही उसे अनुभव करेंगे।
जैसेकि जैव प्रकृति में डार्विन ने विकास के नियम का पता लगाया था, वैसे ही मानव इतिहास में मार्क्स ने विकास के नियम का पता लगाया था।
उन्होंने इस सीधी-सादी सच्चाई का पता लगाया जो अब तक विचारधारा की अतिवृद्धि से ढकी हुई थी – कि राजनीति, विज्ञान, कला, धर्म, आदि में लगने के पूर्व मनुष्य जाति को खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना और सिर के ऊपर साया चाहिए।
इसलिए जीविका के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन और फलत: किसी युग में अथवा किसी जाति द्वारा उपलब्ध आर्थिक विकास की यात्रा ही वह आधार है जिस पर राजकीय संस्थाएँ, क़ानूनी धारणाएँ, कला और यहाँ तक कि धर्म संबंधी धारणाएँ भी विकसित होती हैं। इसलिए इस आधार के ही प्रकाश में इन सबकी व्याख्या की जा सकती है, न कि इससे उल्टा, जैसाकि अब तक होता रहा है।
परंतु इतना ही नहीं, मार्क्स ने गति के उस विशेष नियम का पता लगाया, जिससे उत्पादन की वर्तमान पूँजीवादी प्रणाली और इस प्रणाली से उत्पन्न पूँजीवादी समाज, दोनों ही नियंत्रित हैं। अतिरिक्त मूल्य के आविष्कार से एक बारगी उस समस्या पर प्रकाश पड़ा, जिसे हल करने की कोशिश में किया गया अब तक का सारा अन्वेषण – चाहे वह पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों ने किया हो या समाजवादी आलोचकों ने, अंध अन्वेषण ही था।
ऐसे दो आविष्कार एक जीवन के लिए काफ़ी हैं। वह मनुष्य भाग्यशाली है जिसे इस तरह का एक भी आविष्कार करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। परंतु जिस भी क्षेत्र में मार्क्स ने खोज की और उन्होंने बहुत से क्षेत्रों में खोज की और एक में भी सतही छानबीन करके ही नहीं रह गए, उसमें, यहाँ तक कि गणित में भी, उन्होंने स्वतंत्र खोजें कीं।
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ऐसे वैज्ञानिक थे वह। परंतु वैज्ञानिक का उनका रूप उनके समग्र व्यक्तित्व का अर्द्धांश भी न था। मार्क्स के लिए विज्ञान ऐतिहासिक रूप से एक गतिशील, क्रांतिकारी शक्ति था। वैज्ञानिक उसूलों में किसी नई खोज से, जिसके व्यावहारिक प्रयोग का अनुमान लगाना अभी बिल्कुल असंभव हो, उन्हें कितनी भी प्रसन्नता क्यों न हो, जब उनकी खोज से उद्योग-धंधे और सामान्यत: ऐतिहासिक विकास में कोई तात्कालिक क्रांतिकारी परिवर्तन होते दिखाई देते थे, तब उन्हें बिल्कुल ही दूसरे ढंग की प्रसन्नता का अनुभव होता था।
उदाहरण के लिए बिजली के क्षेत्र में हुए अविष्कारों के विकास क्रम का और मरसैल देप्रे* के हाल के अविष्कारों का मार्क्स बड़े ग़ौर से अध्ययन कर रहे थे।
मार्क्स सर्वोपरि क्रांतिकारी थे। जीवन में उनका असली उद्देश्य किसी न किसी तरह पूँजीवादी समाज और उससे पैदा होने वाली राजकीय संस्थाओं के ध्वंस में योगदान करना था, आधुनिक सर्वहारा वर्ग को आज़ाद करने में योग देना था, जिसे सबसे पहले उन्होंने ही अपनी स्थिति और आवश्यकताओं के प्रति सचेत किया और बताया कि किन परिस्थितियों में उसका उद्धार हो सकता है। संघर्ष करना उनका सहज गुण था। और उन्होंने ऐसे जोश, ऐसी लगन और सफलता के साथ संघर्ष किया जिसका मुक़ाबला नहीं है।
प्रथम ‘राइनिश ज़ाइटुंग’ (1842 में), पेरिस के ‘वोरवार्ट्स’ (1844 में), ‘डायचे ब्रसलेर ज़ाइटुंग’ (1847 में), ‘न्यू राइनिश ज़ाइटुंग’ (1848-1849 में), ‘न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून’ (1852-1861 में) उनका काम, इनके अलावा अनेक जोशीली पुस्तिकाओं की रचना, पेरिस, ब्रसेल्स और लंदन के संगठनों में काम और अंतत: उनकी चरम उपलब्धि महान अंतरराष्ट्रीय मज़दूर संघ की स्थापना। यह इतनी बड़ी उपलब्धि थी कि इस संगठन का संस्थापक, यदि उसने कुछ भी और न किया होता, उस पर उचित ही गर्व कर सकता था।
लंदन के हाइड पार्क में स्थित कार्ल मार्क्स की समाधि। इस पर ऊपर ये शब्द लिखे हैं – दुनिया के मज़दूरों एक हो! और नीचे लिखे हैं मार्क्स के प्रिय शब्द – दार्शनिकों ने दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है, पर असली सवाल तो उसे बदलने का है!
इस सबके फलस्वरूप मार्क्स अपने युग में सबसे अधिक विद्वेष तथा लांछना के शिकार बने। निरंकुशतावादी और जनतंत्रवादी, दोनों ही तरह की सरकारों ने उन्हें अपने राज्यों से निकाला। पूँजीपति, चाहे वे रूढ़िवादी हों चाहे घोर जनवादी, मार्क्स को बदनाम करने में एक-दूसरे से होड़ करते थे।
मार्क्स इस सबको यूँ झटकारकर अलग कर देते थे जैसे वह मकड़ी का जाला हो, उसकी ओर ध्यान न देते थे, आवश्यकता से बाध्य होकर ही उत्तर देते थे। और अब वह इस संसार में नहीं हैं।
साइबेरिया की ख़ानों से लेकर कैलिफोर्निया तक, यूरोप और अमरीका के सभी भागों में उनके लाखों क्रांतिकारी मज़दूर साथी जो उन्हें प्यार करते थे, उनके प्रति श्रद्धा रखते थे, आज उनके निधन पर आँसू बहा रहे हैं। मैं यहाँ तक कह सकता हूँ कि चाहे उनके विरोधी बहुत से रहे हों, परंतु उनका कोई व्यक्तिगत शत्रु शायद ही रहा हो। उनका नाम युगों-युगों तक अमर रहेगा, वैसे ही उनका काम भी अमर रहेगा!
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