जब वर्साय अपने छुरे तेज कर रहा था, तो पेरिस मतदान में लगा हुआ था; पेरिस कम्यून-2
इसलिए आम मजदूरों को यह जानना और समझना चाहिए कि 1871 में हमारे भाईयों ने अपने प्रथम राज्य को कैसे संचालित किया था और किस तरह के अहम फैसले लिए थे।
कम्यून ने सर्वप्रथम सरकार चलाने के काम को “रहस्मय”, “विशिष्ट” और “महाविद्वानों” के काम के बजाए सीधे-सीधे मजदूरों के आम कर्त्तव्य और प्रत्यक्ष काम में बदल दिया था।
पेरिस कम्यून ने स्थायी सेना का अंत करके आम जनता को सशस्त्र कर दिया और इस तरह जनता के उपर शासन करने वाले औजार के रूप में सेना का अंत कर दिया।
पेरिस कम्यून ने चर्च के वर्चस्व को समाप्त कर दिया था और राज्य के तरफ से उन्हें मिलने वाले अनुदानान और उनकी सम्पति से उन्हें वंचित कर दिया था।
कम्यून के सदस्य वार्ड स्तर से सार्विक मतदान के माध्यम से निर्वाचित होते थे और जनता की राय से कभी भी वापस बुलाये जा सकते थे।
ऊंचे अधिकारियों के सभी विशेष भत्तों पर रोक लगा दी गयी और उनके वेतन की उच्चतम सीमा को घटाकर एक कुशल मजदूर के वेतन के बराबर कर दिया गया था। इसके अतिरिक्त जन सेवा में लगे लोगों के वेतन को भी एक मजदूर के वेतन के बराबर वेतन दिया जाता था।
कम्यून का ढांचा सामुदायिक आधर पर खड़ा किया गया था और इस तरह प्रत्यक्ष उत्पादकों के स्वशासन की बात को पेरिस कम्यून ने प्रतिष्ठित किया था।
इसके अतिरिक्त पेरिस कम्यून के आर्थिक फैसले भी अतिमहत्वपूर्ण थे। जैसे – बेकरियों में रात में काम करने की पुरानी व्यवस्था का अंत कर दिया गया था। मजदूरों पर जुर्माना लादने की पुरानी परंपरा और व्यवस्था का अंत कर दिया गया था और बंद कारखानों को मजदूरों के कोऑपरेटिव को सौंप दिया गया था। इसके अतिरिक्त निम्नपूंजीपतियां की ऋण वापसी को लम्बित कर दिया गया था।
पेरिस कम्यून ने विदेशियों को भी समान अधिकार प्रदान किये थे। ज्ञातव्य है कि पेरिस कम्यून में जर्मन मजदूर मंत्री थे और पॉलिश लोग सरकार में भागीदार थे।
यह बात साबित करती है कि आम इंसान की आवश्यकता और वर्गीय भाईचारे के मामले में देश और राष्ट्र की सीमा का कोई महत्व नहीं है। पेरिस के मजदूरों ने यह दिखा दिया था कि शासन करने में मजदूर किसी से भी पीछे नहीं हैं।
ज्ञातव्य है कि पेरिस विद्रोह के पूर्व मार्क्स और एंगेल्स का यह आकलन था कि अंतिम तौर पर विद्रोह कुछ और तैयारियों के बाद शुरू की जानी चाहिए और किसानों का समर्थन हासिल करने तक इसे स्थगित करना चाहिए। परन्तु एक बार जब विद्रोह शुरू हो गया तो दोनों ने एक क्षण की देरी किये बगैर इसका पुरजोर समर्थन किया और इसकी जीत के लिए हर संभव काम किया था।
दरअसल वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांतों के आधर पर गठित मजदूरों की एक सुगठित पार्टी का अभाव भी क्रांति की सफलता के समक्ष एक प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहा था। ज्ञातव्य हो कि फ्रांसिसी मजदूरों में सैद्धांतिक समझदारी वाला पहलू काफी कमजोर था।
बुर्जुआ राजनैतिक पैंतरेबाजियां को भी समझने में वे काफी कमजोर थे और ऐसा ही साबित हुए थे। पेरिस कम्यून की अंततः हुई हार में इन बातों का भी हाथ था। उदाहरण के लिए, पेरिस के बहादूर कम्यूनार्डों ने पेरिस में तो फौलादी ताकत का परिचय दिया और सत्ता कायम की, लेकिन, वे यह भूल गये कि पेरिस के बाहर थियेर के पीछे यूरोप के सारे प्रतिक्रियावादी एकजुट हो रहे हैं।
इसी को ध्यान में रखकर मार्क्स ने कम्यून के प्रमुख नेताओं फ्रांकेल और वाल्यां को ठीक इसी बात की चेतावनी दी थी। मार्क्स को यह बात बहुत तकलीफ दे रही थी कि पेरिस कम्यून के साथी वर्साय पर हमला करने में ढुलमुलपन का परिचय दे रहे थे और बेशकीमती समय गंवा रहे थे जिसके ही दौरान थियेर को अपनी सैन्य किलेबंदी कर लेने का मौका मिल गया।
उन्होंने (मार्क्स-एंगेल्स ने) कम्यूनार्डों को लिखा था – “प्रतिक्रियावाद की मांद को धवस्त कर डालिए, फ्रांसीसी राष्ट्रीय बैंक के खजाने को जब्त कर लीजिए और क्रांतिकारी पेरिस के लिए प्रांतों का समर्थन हासिल कीजिए।”
बुर्जुआ शांतिवार्ताओं की धोखाधड़ी को पेरिस के कम्यूनार्डों द्वारा नहीं समझ पाने की मजबूरी के बारे में मार्क्स लिखते हैं – “जब वर्साय अपने छुरे तेज कर रहा था, तो पेरिस मतदान में लगा हुआ था ; जब वर्साय युद्ध की तैयारी कर रहा था तो पेरिस वार्ताएं कर रहा था।”
मार्क्स का यह मानना था कि पेरिस कम्यून की जीत को पुख्ता करने के लिए कामगारों की सेना को खुद पेरिस में प्रतिक्रांति की हर कोशिश को कुचलते हुए वर्साय की तरफ कूच कर जाना चाहिए था। इससे सर्वहारा क्रांति को पूरे फ्रांस में फैलाया जा सकता था और किसानों का समर्थन हासिल किया जा सकता था।
लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और अंततः पेरिस की मजदूर बस्तियों में कामगारों और पूंजीपतियां के दलाल थियेर की सेना के बीच घमासान हुआ और आठ दिनों के बेमिसाल बहादुराना संघर्ष के बाद पेरिस कम्यून को पराजय स्वीकार करना पड़ा।
पूंजीपतियों की सेना से लड़ते हुए 26000 कामगार और बहादुर कम्यूनार्ड शहीद हो गये और फिर विजयी प्रतिक्रियावाद ने पेरिस की सड़कों पर जो तांडव किया उसकी दूसरी मिसाल उस समय के इतिहास में नहीं मिलती है।
कम्यून के जीवनकाल में ही मार्क्स ने लिखा था – “यदि कम्यून को नष्ट भी कर दिया गया, तब भी संघर्ष सिर्फ स्थगित होगा। कम्यून के सिद्धांत शाश्वत और अनश्वर हैं, जब तक मजदूर वर्ग मुक्त नहीं हो जाता, तब तक ये सिद्धांत बार-बार प्रकट होते रहेंगे।”
एंगेल्स ने पेरिस कम्यून की 21वीं वर्षगांठ के अवसर पर कहा था – “बुर्जुआ वर्ग को अपनी 14 जुलाई और 22 सितंबर को उत्सव मनाने दो। सर्वहारा वर्ग का त्योहार तो सभी जगह हमेशा 18 मार्च को ही होगा।”
पूंजीवाद इतिहास का अंत नहीं है। पूंजीवाद अमर नहीं हैं। शोषण की व्यवस्था हमेशा चलने वाली नहीं है। पेरिस कम्यून की 10वीं वर्षगांठ के अवसर पर मार्क्स-एंगेल्स ने भरपूर क्रांतिकारी जोश के साथ एलान किया था – “कम्यून, जो पुरानी दुनिया के शासकों के विचार में पूरी तरह से नष्ट हो गया है, पहले के किसी भी समय के मुकाबले आज और ज्यादा जीवन-शक्ति से ओतप्रोत है। इसलिए, हम आपलोगों के साथ मिलकर यह नारा बुलंद करते हैं – कम्यून जिंदाबाद।”
पेरिस कम्यून की हार के बाद फ्रांस से बाहर आने वालों में से एक, यूजीन पोतिए, जब इंगलैंड पंहुचे तो उनके पास फरारी में रचित उनकी कवितायें भी उनके पास थीं। इन्हीं में से एक कविता यूरोप और फिर दुनिया की कई भाषाओं में अनुदित हुई और जो बाद में ‘इण्टरनेशनल’ नाम से प्रसिद्ध हुई।
इसे आह्वान गीत के रूप में सारी दुनिया के सर्वहारा और मजदूर मेहनतकश लोग भरपूर जोश के साथ एक ही धुन में गाते हैं। इसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं –
“उठ जाग ओ भूखे बंदी, अब खींचो लाल तलवार
कब तक सहोगे भाई, जालिम का अत्याचार।
तेरे रक्त से रंजित क्रंदन, अब दस दिशि लाया रंग
ये सौ बरस के बंधन, मिल साथ करेंगे भंग।
ये अंतिम जंग है जिसको, जीतेंगे हम एक साथ
गाओ इण्टरनेशनल, भव स्वतंत्रता का गान।”
(पेरिस कम्यून के 150 वर्ष (18 मार्च 1871-2021) के अवसर पर, यथार्थ पत्रिका से साभार) समाप्त।
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