कांग्रेस से लड़ें कि मोर्चा बनाएं, ये सवाल नेहरू के बाद से ही परेशान करता रहा है: इतिहास के झरोखे से-13
By सुकोमल सेन
देश में आंतरिक आपातकाल की घोषणा और इसके ख़िलाफ़ संघर्ष का देश के राजनीतिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा और स्वाभाविक रूप से इस नई परिस्थिति में देश के ट्रेड यूनियन आंदोलन पर इतना गंभीर हमला हुआ जिसकी ट्रेड यूनियन इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलती।
इसलिए मजदूर वर्ग आंदोलन के विकास पर चर्चा करने से पहले यह समझना आवश्यक है कि देश मे राजनीतिक घटनाओं की कौन—कौन प्रतिकूल धाराएं चल रही थीं।
और विगत कुछ वर्षों से राजनीतिक शक्ति संतुलन में क्या बदलाव हो रहे थे। किस विशेष परिस्थिति में शासक पार्टी, आंतरिक आपातकाल लागू करने पर अमादा हो गई और किस नए शक्ति संतुलन ने मौलिक आधिकारों के दमन के ख़िलाफ़ संघर्ष को आगे बढ़ाने में मदद की।
यदि संक्षेप में परिस्थिति का वर्णन किया जाए तो सन् 1969 के ठीक पहले भारत के पूंजीपति और भूस्वामी वर्ग शासक (कांग्रेस) पार्टी में विभाजन के बाद दो विरोधी गुट बने।
इंदिरा गांधी गुट ने राष्ट्रपति पद के लिए वी.वी. गिरि को उम्मीदवार बनाया और कांग्रेस (ओ) और संयुक्त मोर्चा ने संजीवा रेड्डी को राष्ट्र्रपति पद का उम्मीदवार बनाया।
इस स्थिति में वाम और जनवादी पार्टियों की एकता भी विघटन का शिकार हुई।
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कांग्रेस के साथ वामपंथी पार्टियां
ऐसी परिस्थिति में तीन बड़ी वामपंथी पार्टियों ने कांग्रेस (इ) की सत्ता के राष्ट्रीय विकल्प का अलग रस्ता चुना।
तब से इन तीनों वाम पार्टियों ने देश के मज़दूर वर्ग आंदोलन पर उल्लेखनीय प्रभाव डाला। इनके प्रभाव में देश भर में जुझारू ट्रेड यूनयिन आंदोलन विकसित होने लगा।
लेकिन नए राजनीतिक विकास में मज़दूर वर्ग की इस उभरती संयुक्त कार्रवाई को गहरा धक्का पहुंचाया।
सोशलिस्ट पार्टी कई वर्षों से राष्ट्रीय विकल्प के लिए कांग्रेस विरोधी आम संयुक्त मोर्चा बनाने पर जोर दे रही थी।
इस अवधारणा ने सन् 1967-69 के बीच सभी प्रकार के संयुक्त मोर्चों और विभिन्न असामान्य और विरोधी राजनीतिक विचार धारा वाले गढबंधनों की प्रांतीय सरकारों में भी उनको शामिल किया।
यहां तक कि जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, भारतीय लोकदल, भाकपा और सोशलिस्ट पार्टी मोर्चा की सरकार में भी वे शामिल हो गए।
इसी प्रकार यह सन् 1971-72 के दक्षिणपंथी पार्टियों के महागठबंधन (ग्रैंड एलायंस) में भी शामिल हुई और अंत में यह 1977 के प्रारंभ में जनता पार्टी में विलय हो गई।
दूसरी तरफ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने इस महागठबंधन (ग्रैड एलाएंस) में शामिल राजनीतिक पार्टियों के मुकाबले दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी पार्टियों के विरूद्ध संयुक्त मोर्चा गठित करने का तर्क पेश किया।
आपातकाल में कौन किसके साथ?
इस राजनीतिक दिशा के कारण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आपातकाल के बाद सन् 1977 में सत्ता मे आई जनता पार्टी का भी विरोध किया।
इस राजनीतिक अवधारणा के कारण ही भाकपा अन्य दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों के विरोध में कांग्रेस (इ) के साथ पंक्ति में खड़ी हो गई और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को फासीवादी आंदोलन के रूप में चिन्हित किया।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी दोनों से भिन्न कांग्रेस और जनता पार्टी दोनों के पूंजीपति –भूस्वामी गठजोड़ के ख़िलाफ़ वाम और जनवादी शक्तियों के वास्तविक राष्ट्रीय मोर्चा गठन करने की अवाधरणा पेश की।
इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेसी पार्टी द्वारा जनाता पर थोपे गए आपातकाल के ख़िलाफ़ कठोर संघर्ष के प्रतिफल के रूप में सत्ता में आई जनता पार्टी को भाकपा (मार्क्सवादी) ने इसीलिए समर्थन दिया क्योंकि वह कांग्रेस (इ) के एक पार्टी निरंकुश शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध और दृढ़ संकल्पित थी।
भाकपा भी वाम जनवादी मोर्चे की अवधारणा में विश्वास करती थी लेकिन वह परंपरागत वामपंथी पार्टियों के अतिरिक्त कांग्रेस (इ) को शामिल करती थी जिसे वह पूंजीपति-भूस्वामियों की अन्य पार्टियों के मुकाबले प्रगतिशील और जनवादी समझती थी।
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वामपंथी पार्टियों की एकता
इस राजनीतिक दिशा को लागू करते हुए भाकपा ने सन् 1971 और 72 में केरल और पश्चिम बंगाल की सरकारों में कांग्रेस (इ) के साथ भागीदारी की और इसके बाद फिर तो भाकपा, अनेक राज्यों में कांग्रेस (इ) के साथ-साथ भारतीय लोक दल (बीएलडी) और जनसंघ आदि के साथ भी सत्ता में भागीदार बनी रही।
एक दूसरे के विपरीत राजनीतिक धाराओं की इस जटिल परिस्थिति के बीच से मजदूर वर्ग के संयुक्त संघर्ष का मार्ग निकलना था। लेकिन किसी प्रकार वाम एकता कायम किए बगैर मजदूर वर्ग की न्यूनतम एकता करना अत्याधिक कठिन था।
वास्तव में यह वाम जनवादी शक्तियों की एकता के लिए संघर्ष का ही परिणाम था कि पहली बार अगस्त 1973 में और दूसरी बार 1974 में रेलवे हड़ताल से पूर्व वामपंथी पार्टियों की बैठक संपन्न हुई जिसमें कुछ कार्यक्रम संबंधी सहमति बनी।
यह वामपंथी पार्टियों की एकता का ही पिरणाम था कि सन् 1973-74 में मजदूरों की अनेक संयुक्त कार्यवाहियां संचालिच हुईं और अंतत: रेलेव मजदूरों की ऐतिहासिक हड़ताल और इसके समर्थन में एक दिवसीय आम हड़ताल संपन्न हुई।
(भारत का मज़दूर वर्ग, उद्भव और विकास (1830-2010) किताब का अंश। ग्रंथशिल्पी से प्रकाशित)
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