वो संघर्ष जिसमें 8 घंटे की शिफ़्ट के साथ मई दिवस का जन्म हुआ

वो संघर्ष जिसमें 8 घंटे की शिफ़्ट के साथ मई दिवस का जन्म हुआ

मई दिवस का जन्म काम के घण्टे कम करने के आन्दोलन से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है। काम के घण्टे कम करने के इस आन्दोलन का मजदूरों के लिए बहुत अधिक राजनितिक महत्व है। जब अमेरिका में फैक्ट्री-व्यवस्था शुरू हुई, उसी दौरान ये संघर्ष भी पैदा हुआ।

हालाँकि अमेरिका में अधिक तनख्वाहों की माँग, शुरूआती हड़तालों में सबसे ज्यादा प्रचलित माँग थी, लेकिन जब भी मज़दूरों ने अपनी माँगों को ठोस बनाया, काम के घण्टे कम करने और संगठित होने के अधिकार का सवाल हमेशा ही इसके केन्द्र में रहा।

जैसै-जैसै शोषण बढ़ता गया, मज़दूरों को अमानवीय रूप से लम्बे काम के दिन और भी बोझिल महसूस होने लगे। इसके साथ ही मजदूरों की काम के घण्टों में आवश्यक कमी की माँग भी मज़बूत होती गई।

19वीं सदी की शुरूआत में ही अमेरिका में मज़दूरों ने “सुबह से शाम” तक के काम के समय के विरोध में अपनी शिकायतें जता दी थीं। “सुबह से शाम” तक – यही उस समय के काम के घण्टे थे। 14, 16 और यहाँ तक की 18 घण्टे का कार्यलय भी वहाँ आम बात थी।

1806 में अमेरिका की सरकार ने फ़िलाडेल्फिया के हड़ताली मोचियों के नेताओं पर साजिश के मुकदमे चलाए। इन मुकदमों में यह बात सामने आई कि मजदूरों से उन्नीस या 20 घण्टों तक काम कराया जा रहा था।

उन्नीसवीं सदी के दूसरे और तीसरे दशक काम करने के लिए हड़तालों से भरे हुए थे। कई औदौ्गिक केन्द्रों में तो एक दिन में काम के घण्टे 10 करने की निश्चित माँगें भी रखी गई। ‘मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फ़िलाडेल्फिया’ को, जो दुनिया की पहली ट्रेड यूनियन मानी जाती है, 1827 में फ़िलाडेल्फिया में काम के घण्टे 10 करने के लिए निर्माण-उघोग के मज़दूरों की एक हड़ताल करवाने का श्रेय जाता है। 1834 में न्यूयार्क में नानाबाइयों की हड़ताल के दौरान ‘वर्किंग मेन्स एडवोकेट’ नामक अख़बार ने छापा था, “पावरोटी उद्योग में लगे कारीगर सालों से मिस्र के गुलामों से भी ज्यादा यातनाएँ झेल रहे हैं। उन्हें हर 24 में से औसतन 18 से 20 घण्टों तक काम करना होता है।”

उन इलाकों में 10 घण्टे के कार्य-दिवस की इस माँग ने जल्दी ही एक आन्दोलन का रूप ले लिया। इस आन्दोलन में हालांकि 1837 के संकट से बाधा पड़ी लेकिन फिर भी यह आंदोलन दिन पर दिन विकसित होता गया और इसी के चलते वॉन ब्यूरेन की संघीय सरकार को सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए काम के घंटे 10 करने की घोषण करनी पड़ी।

पूरे विश्व भर में काम के घंटे 10 करने का संघर्ष अगले कुछ दशकों में शुरू हो गया जैसे ही ये मांग कई उद्योगों में मान ली गई, वैसे ही मजदूरों ने काम के घण्टे 8 करने की मांग उठानी शुरू की 50 के दशक के दौरान लेबर यूनियनों को संगठित करने की गतिविधियों ने इस नई मांग को काफी बल दिया, हालांकि 1857 के संकट से इसमे भी अवरोध आया था। यह मांग कुछ सुसंगठित उद्योगों में इस संकट के आने से पहले ही मान ली गई थी। यह आंदोलन मात्र अमेरिका तक ही सीमित नहीं था ये आंदोलन हर उस जगह प्रचलित हो चला था जहां उभरती हुई पूंजीवादी व्यवस्था के तहत मजदूरों का शोषण हो रहा था। यह बात इस तथ्य से सामने आती है कि अमेरिका से पृथ्वी के दूसरे छोर पर स्थित आस्ट्रेलिया में निर्माण उघोग के मजदूरों ने यह नारा दिया, “8 घंटे काम, 8 घंटे मनोरंजन, आठ 8 आराम और उनकी यह मांग 1856 में मान ली गई थी।

1866 में नेशनल लेबर यूनियन के स्थापना समारोह में यह प्रतिज्ञा ली गई, “इस देश के श्रमिकों को पूंजीवादी गुलामी से मुक्त करने के लिए, वर्तमान समय की पहली और सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि अमेरिका के सभी राज्यों में 8 घण्टे के कार्य दिवस को सामान्य कार्य दिवस बनाने का कानून पास कराया जाए। जब तक यह लक्ष्य पूरा नहीं होता, तब तक हम अपनी पूरी शक्ति से संघर्ष करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।”

इसी समारोह में कार्य दिवस को 8 घण्टे करने का कानून बनाने की माँग के साथ ही स्वतंत्र राजनीतिक गतिविधियों के अधिकार की माँग को उठाना भी बहुमत से पारित हुआ। साथ ही यह तय हुआ कि इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए “ऐसे व्यक्तियों का चुनाव किया जाए जो औदौ्गिक वर्गों के हितों को प्रोत्साहित करने और पस्तुत करने लिए प्रतिज्ञाबद्ध हों।”

‘8-घण्टा दस्तों’ (8 घण्टे के कार्य दिवस की माँग के लिए बने मज़दूर संगठनों) का यह निर्माण ‘नेशनल लेबर यूनियन’ की इन गतिविधियों के ही परिणामस्वरूप कई राज्य सरकारों ने 8 घण्टे के कार्य दिवस का कानून पास करना स्वीकार कर लिया था।

अमेरिकी कांग्रेस ने ठीक वैसा ही कानून 1868 में पारित कर दिया। इस काम के घण्टे 8 करो आन्दोलन की नेता थीं बोस्टन की मैकेनिस्ट इरा स्टीवर्ड।

हालाँकि शुरूआती दौर के श्रमिक आन्दोलन का कार्यक्रम और नीतियां प्राथमिक स्तर की थीं और हमेशा उनका असर नहीं दिखता था, लेकिन फिर भी वह स्वस्थ सर्वहारा नैसर्गिकता पर आधारित थीं। वे एक जुझारू मजदूर आन्दोलन की नींव बन सकती थीं। लेकिन बाद में सुधारवादी नेता और पूँजीवादी राजनीतिज्ञ इन संगठनों में घुस गये और उन्हें ग़लत मार्ग पर डाल दिया। बहरहाल, चार पीढियों पहले, अमेरिकी श्रमिकों के राष्ट्रीय संगठन एन.एल.यू. यानी ‘नेशनल लेबर यूनियन’ ने स्वयं को “पूँजीवादी गुलामी” के ख़िलाफ़ घोषित किया और स्वतंत्र राजनीतिक गतिविधियों के अधिकार की माँग की।

नेशनल लेबर यूनियन ने अगस्त 1866 में  8 घण्टे के कार्य दिवस की माँग करने का निर्णय लिया। उसी साल सितम्बर में पहले इण्टरनेशनल की जेनेवा कांग्रेस में यह मांग इस रूप में दर्ज की गई-

“काम के दिन की कानूनी सीमा तय करना एक प्राथमिक शर्त है जिसके बिना मज़दूर वर्ग की स्थिति में सुधार या उसकी मुक्ति का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सकता… यह कांग्रेस 8 घण्टे के कार्य दिवस (शिफ़्ट) का प्रस्ताव रखती है।”

1867 में प्रकाशित पूँजी के पहले खण्ड के कार्य दिवस पर आधारित अध्याय में मार्क्स ने नेशनल लेबर यूनियन द्वारा शुरू किए गए काम के घण्टे 8 करो आन्दोलन की ओर ध्यान दिलाया है। पूँजी का यह हिस्सा काफी प्रसिद्ध है क्योंकि इसमें काले मजदूरों और श्वेत मज़दूरों के वर्ग हितों की एकता के बारे में लिखा है। उन्होंने लिखा है-

“जब तक दास प्रथा गणराज्य के एक हिस्से पर कलंक के समान चिपकी रही, तब तक अमेरिका में कोई भी स्वतंत्र मज़दूर कभी भी स्वंय को मुक्त नहीं कर सकता जब तक काली चमड़ी वाले मज़दूरों को अलग करके देखा जाएगा। दास प्रथा की समाप्ति के साथ ही एक ओजस्वी जीवन के अंकुर फूटे। ‘काम के घण्टे 8 करो’ आन्दोलन के साथ ही वहाँ गृह-युद्ध का श्रीगणेश हुआ। ‘काम के घण्टे 8 करो’ आन्दोलन-एक ऐसा आन्दोलन था जो तेजी के साथ अटलांटिक से हिन्द महासागर तक और न्यू इंगलैण्ड से कैलिफोर्निया तक फैल गया।”

मार्क्स ने इस बात की ओर ध्यान खींचा कि किस तरह लगभग साथ-साथ वास्तव में दो हफ्तों के अन्दर, बाल्टीमोर में एक मज़दूर सम्मेलन ने 8 घण्टे के कार्य दिवस को बहुमत से पारित किया और इण्टरनेशनल की जेनेवा कांग्रेस ने ठीक वैसा ही निर्णय लिया।

“इस तरह अटलांटिक के दोनों ओर मज़दूर आन्दोलन ने ‘उत्पादन की परिस्थितियों’ में गुणात्मक सुधार किया।” यह कथन इसी बात को बताता है कि किस तरह कार्य दिवस की सीमाओं को तय करने का आन्दोलन चला और ‘काम के घण्टे 8 करो’ आन्दोलन के रूप में साकार हुआ।

जेनेवा कांग्रेस का निर्णय अमेरिकी नेशनल लेबर यूनियन के निर्णय से कैसे मेल खाता है, उसे इस कथन में देखा जा सकता है- “चूँकि कार्य दिवस की सीमाएँ तय करने की माँग पूरे अमेरिका के मज़दूरों की माँगों को प्रस्तुत करती है इसलिए यह कांग्रेस इस माँग को पूरी दुनिया के मज़दूरों के एक आम मोर्चे का रूप देती है।”

इण्टरनेशनल की कांग्रेस पर इसी मुद्दे पर अमेरिकी मज़दूर आन्दोलन का और जबर्दस्त प्रभाव पड़ा, लेकिन 23 साल बाद।

अमेरिका में मई दिवस का जन्म

1872 में जब पहले इण्टरनेशनल का हेडक्वार्टर, लन्दन से न्यूयार्क आया तो पहला इण्टरनेशनल एक अन्तरराष्ट्रीय संस्था के रूप में समाप्त हो गया, लेकिन औपचारिक रूप से इसका अस्तित्व 1876 तक बना रहा। इण्टरनेशनल पुनः गठित हुआ और दूसरे इण्टरनेशनल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दूसरे इण्टरनेशनल की पेरिस कांग्रेस (1889) में पहली मई को उस दिन का रूप दिया गया जिस दिन दुनिया भर के मज़दूर अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियों और ट्रेड यूनियनों के रूप में संगठित हों, और अपनी सबसे महत्वपूर्ण माँग-8 घण्टे के कार्य दिवस की माँग के लिए संघर्ष करें। पेरिस कांग्रेस का यह महत्वपूर्ण निर्णय, शिकागो में पाँच साल पहले लिए गए एक निर्णय से प्रभावित था। यह निर्णय पांच साल पहले शिकागो में एक नवनिर्मित अमेरिकी मज़दूर संगठन ‘द फ़ेडरेशन ऑफ़ ऑर्गनाइज्ड ट्रेड एण्ड लेबर यूनियन्स ऑफ द यूनाइटेड स्टेट्स एण्ड कनाडा’, जो बाद में अपने संक्षिप्त नाम ‘द अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ, के प्रतिनिधियों ने लिया था।

7 अक्टूबर,1884 को इस संगठन के चौथे सम्मेलन में निम्न प्रस्ताव पारित हुआ-

फ़ेडरेशन ऑफ ऑर्गनाइज्ड ट्रेड एण्ड लेबर यूनियन्स ऑफ द यूनाइटेड स्टेट्स एण्ड कनाडा यह तय करती है कि पहली मई,1886 से 8 घण्टे का कार्य दिवस वैध कार्य दिवस होगा और हम मज़दूर संगठनों से आग्रह करते हैं कि वे अपने अधिकार क्षेत्र के अनुसार अपने नियमों को ऐसे निर्धारित करें कि वे इस प्रस्ताव के अनुकूल हों।”

लेकिन इस प्रस्ताव में कहीं भी यह नहीं बताया गया था कि किस तरह यह संगठन पहली मई को ‘8 घण्टा दिवस’ के रूप में प्रचलित करेगा।

यह बात खुद इस बात की गवाह है कि जो संगठन 50,000 से ज्यादा सदस्यों का भी नहीं है, वह बिना उन फैक्टरियों, मिलों और खदानों में संघर्ष किए, आन्दोलन को बिना मज़दूरों की और बड़ी आबादी में प्रसारित किए यह कैसे घोषित कर सकता था कि “8 घण्टे का कार्य दिवस कानूनी शिफ़्ट होगा।”

इस प्रस्ताव का यह कथन कि फ़ेडरेशन से जुड़ी सभी यूनियनें “अपने नियमों को इस प्रकार निर्धारित करें कि वे इस प्रस्ताव के अनुकूल हों”, इस बात से सम्बन्धित है कि वे यूनियनें अपने सदस्यों को विशेष हड़ताल-सहायता देंगी जो पहली मई, 1886 से हड़ताल पर जा रहे हैं। हो सकता है कि वे इतने अधिक समय तक हड़ताल पर रहें कि उन्हें यूनियन से सहायता की जरूरत पड़े। चूँकि हड़ताल के समय में मज़दूरों के पास जीविका चलाने का कोई साधन नहीं होता था, इसलिए यूनियनें उन्हें हड़ताल के समय विशेष सहायता देती थीं। चूँकि यह हड़ताल राष्ट्रीय स्तर पर थी और उन सभी संगठनों को शामिल करती थी जो फ़ेडरेशन से जुड़ी हुई थी, अतः इन सभी यूनियनों को अपने नियमानुसार अपने सदस्यों से हड़ताल के लिए मंज़ूरी लेनी थी, खासकर इसलिए भी क्योंकि, इन हड़तालों में उनके फंडों का खर्चा भी शामिल था।

यह बात ज़रूर याद रहे कि यह फ़ेडरेशन यानी आज का ‘अमेरिकन फे़डरेशन ऑफ़ लेबर’ स्वैच्छिक और संघीय आधार पर बना था और राष्ट्रीय सम्मेलन के निर्णय सिर्फ फ़ेडरेशन से जुड़ी यूनियनों पर लागू थे, वह भी तब, जब यूनियनें उन निर्णयों का समर्थन करें।

मई दिवस की तैयारियाँ

1877 में जबरदस्त हड़तालें हुईं। इन हड़तालों के दमन के लिए बड़े पूँजीवादी कारपोरेशनों और सरकार ने सैनिक दस्ते भेजे, जिनका रेलवे और स्टील कारखानों के दसियों हजार मज़दूरों ने बहादुरी से प्रतिरोध किया। इन संघर्षों का पूरे मज़दूर आन्दोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा। यह अमेरिका में पहला ऐसा जन उभार था जो राष्ट्रीय पैमाने पर हुआ था और अमेरिकी मज़दूर वर्ग द्वारा संचालित था। इन संघर्षों में ये मज़दूर राज्य और पूँजी की मिली हुई शक्तियों से भले ही हार गए, लेकिन इस दौर के बाद अमेरिकी मज़दूर समाज, अपनी वर्ग स्थिति की ज्यादा गहरी समझ, एक बेहतर जुझारूपन और बहुत ऊँचे हौसले के साथ उभरा। यह एक तरह से पेन्सिलवेनिया के उन कोयला खदान मालिकों को एक उत्तर था जिन्होनें एन्थ्रासाइट क्षेत्र के खदानकर्मियों के संगठन को तोड़ने की कोशिश में 10 जुझारू खदानकर्मियों को फांसी दे दी थी।

हालाँकि 1880-90 का दशक अमेरिकी उद्योग और घरेलू बाज़ार के विकास के नज़रिए से सर्वाधिक सक्रिय दशक था, लेकिन 1884-85 के वर्ष में मन्दी का एक झोंका आया। वास्तव में यह 1873 के संकट के बाद बार बार आऩे वाली मन्दी का दौर था। इस दौर में मौजूद बेरोज़गारी और जनता द्वारा झेली जा रही कठिन तकलीफों ने छोटे कार्य दिवस के आन्दोलन को एक नई गति दी।

जल्दी ही बने मज़दूरों के उस संगठन, ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ ने उस समय यह संभावना देखी कि ‘8 घण्टे के कार्य दिवस’ के नारे को एक ऐसे नारे की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है जो उन सारे मज़दूरों को एक झण्डे के नीचे ला सकता है जो न ही फ़ेडरेशन में हैं न ही ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ में थे। नाइट्स ऑफ़ लेबर मज़दूरों का एक बहुत पुराना संगठन था जो लगातार बढ़ रहा था। फ़ेडरेशन यह समझ चुका था कि मज़दूर संगठन के साथ मिलकर ही 8 घण्टे के कार्य दिवस के आन्दोलन को सफल बनाया जा सकता है। यही समझकर ‘अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर’ ने ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ से इस आन्दोलन में सहयोग की अपील की।

फ़ेडरेशन के 1885 के सम्मेलन में आने वाले साल की पहली मई को हड़ताल पर जाने का संघर्ष दोहराया गया। कई राष्ट्रीय यूनियनों ने खासकर बढ़इयों की और सिगार बनाने वालों की यूनियनों ने तो हड़ताल की तैयारियों के कदम भी उठा लिए।  पहली मई की हड़ताल के लिए हो रहे आन्दोलन ने तुरन्त असर दिखाना शुरू कर दिया। हड़ताली यूनियनों के सदस्यों की संख्या में अचानक बढ़ गई। नतीजतन 1886 में मज़दूरों का यह जुझारू संगठन अपने शीर्ष पर था। यह बात सामने आई कि उस दौरान नाइट्स लेबर ने, जो फ़ेडरेशन से ज़्यादा प्रसिद्ध था और एक बेहद जुझारू संगठन के रूप में जाना जाता था, अपने सदस्यों की संख्या दो लाख से बढ़ा कर सात लाख कर ली थी। फ़ेडरेशन वह संगठन था जिसने इस आन्दोलन की शुरुआत की थी और हड़ताल की तारीख निश्चित की थी, उसके सदस्यों की संख्या में भी वृद्धि हुई, और मज़दूरों की विशाल आबादी में उसका सम्मान भी काफ़ी बढ़ा।

जैसै-जैसै हड़ताल की तारीख करीब आती जा रही थी, यह बात सामने आ रही थी कि नाइट्स ऑफ़ लेबर का नेतृत्व, ख़ासकर टेरेंस पाउडरली का नेतृत्व आन्दोलन को नुकसान पहुंचा रहा है और यही नहीं वह अपने से जुड़ी यूनियूनों को हड़ताल में हिस्सा न लेने की सलाह दे रहा है। फ़ेडरेशन अभी भी लगातार मज़दूरों के बीच लोकप्रिय होता जा रहा था। दोनों संगठनों के जुझारू मज़दूर सदस्यों की कतारें लगातार, उत्साहपूर्वक हड़ताल की तैयारियां कर रहीं थीं। कई शहरों में 8 घण्टा दस्ते और इसी तरह के अन्य जत्थे उभरे। इनके उभरने से पूरे आन्दोलन में मज़दूरों के बीच जुझारुपन की भावना में जबर्दस्त बढ़ोतरी हुई। इस लहर से असंगठित मज़दूर भी अछूते नहीं रहे। वे भी बढ़-चढ़ कर आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे। अमेरिकी मज़दूर वर्ग के लिए एक नई सुबह आ रही थी।

मज़दूरों के मिजाज को समझने का सबसे अच्छा रास्ता है कि उनके संघर्षों की गम्भीरता और विस्तार के बारे में अध्ययन किया जाये, उसे समझा जाये। एक समय में मज़दूरों के लड़ाकू मिजाज को उस दौरान हुई हड़तालों की संख्या से समझा जा सकता है। पिछले सालों में हुई हड़तालों की संख्या के मुकाबले 1885 से 1886 के दौरान हुई हड़तालों की संख्या उस समय के मज़दूरों के उस जबर्दस्त लड़ाकूपन को दर्शाती है जो उस समय आन्दोलन को आगे बढ़ा रहा था। मज़दूर पहली मई 1886 की महान हड़ताल की तैयारियाँ तो कर ही रहे थे लेकिन 1885 में ही हड़तालों की संख्या में जबरदस्त बढ़ोतरी हो गई।

1881 से 1884 के दौरान हड़तालों और तालाबंधियों का औसत था मात्र 500 प्रति वर्ष और उसमें भाग लेने वाले मज़दूर थे औसतन डेढ़ लाख प्रति वर्ष। 1885 में हड़तालों और तालाबंधियों की गिनती 700 तक जा पहूंची और भाग लेने वाले मज़दूरों की संख्या बढ़ कर ढाई लाख हो गई। 1886 में तो हड़तालों की संख्या 1885 की तुलना में दोगुनी होकर 1572 हो गई और हड़ताल पर जाने वाले मज़दूरों की संख्या छह लाख हो गई।

इन हड़तालों की व्यापकता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1885 में इन हड़तालों से प्रभावित फैक्ट्रियों की संख्या 2,467 थी और उसके अगले साल ये संख्या बढ़कर 11,562 हो गई।

हड़ताल का केंद्र शिकागो था जहां ये सबसे ज्यादा व्यापक थी लेकिन पहली मई को कई और शहर इस मुहिम में जुड़़ गए। न्यूयार्क, बाल्टीमोर, वॉशिंगटन, मिलवॉकी, सिनसिनाटी, सेंट लुई, पिट्सबर्ग, डेट्रॉइट आदि।

1 मई 1886 की वो महान हड़ताल

8 घंटे की शिफ़्ट की मांग को लेकर 1 मई 1886 में पूरे अमरीका में साढ़े तीन लाख मज़दूरों ने चक्का जाम कर दिया।

इलिनॉयस प्रांत के शिकागो में 40,000, न्यूयॉर्क में 10,000 और मिशिगन के डेट्रॉयट में 11,000 मज़दूर सड़कों पर उतरे। ओहियो प्रांत के सिन्नाती में 32,000 वर्कर हड़ताल पर रहे, हालांकि इनमें से अधिकांश पहली मई से पहले से हड़ताल पर थे।

ये हड़ताल एक दिवसीय थी, लेकिन बहुत से वर्कर हफ़्तों फैक्ट्री नहीं गए।

हालांकि इस हड़ताल में सभी यूनियनों ने हिस्सा नहीं लिया। नाइट्स ऑफ़ लेबर ने शांतिपूर्ण समझौते का रास्ता अख़्तियार किया और कर्मचारियों के बेहतर वर्किंग कंडीशन के लिए हड़ताल का बायकॉट किया। इसके नेता टेरेंस पावडर्ली ने मज़दूरों को हड़ताल पर जाने से रोकने की भी कोशिश की।

इसके बावजूद इस यूनियन के हज़ारों मज़दूर हड़ताल के पक्ष में थे। पावडर्ली की समझौतापरस्ती का उसकी ही यूनियन के बहुत से मज़दूरों ने पुरज़ोर विरोध किया।

लेकिन इस मई दिवस ने ऐतिहासिक जीत दर्ज़ की। सिन्नाती में कुछ मालिकों ने हड़ताल के डर से 8 घंटे की शिफ़्ट कर दी। अन्य मालिकों ने वेतन और मज़दूरी में बढ़ोत्तरी कर दी।

उन्नीसवीं सदी के अंत और उसके बाद भी मई दिवस मज़दूरों का एक ऐसा त्यौहार बन गया जो उनकी आज़ादी का पैगाम लेकर आया था।

इसके बाद तो पूरी दुनिया में मई दिवस के दिन बड़ी बड़ी हड़तालें आयोजित होने लगीं।

इस हड़ताल के बाद ही अमरीकी राष्ट्रपति ग्रोवर क्लीवीलैंड को मई दिवस को राष्ट्रीय अवकाश घोषित करने के लिए मज़बूर होना पड़ा। अधिकांश देशों में अब भी मई दिवस बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।

और तबतक मनाया जाता रहेगा, जबतक मज़दूरों को पूंजीवाद की गुलामी से पूरी तरह मुक्ति नहीं मिल जाती।

(अलेक्जेण्डर ट्रैक्टनबर्ग  का ये लेख राहुल फ़ाउंडेशन ने एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया था। साभार इसे प्रकाशित किया जा रहा है।)

( रिकवरी डेट- May 1, 2019 admin  0 Comments)

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