क्या जानते हैं भारत में सबसे पहले मज़दूरों ने कश्मीर में बग़ावत की थी? 28 मज़दूर शहीद हुए थे

क्या जानते हैं भारत में सबसे पहले मज़दूरों ने कश्मीर में बग़ावत की थी? 28 मज़दूर शहीद हुए थे

By रईस रसूल

सभी जानते हैं कि दुनिया के इतिहास में मज़दूरों ने सबसे पहले क्रांति का बिगुल फ्रांस के पेरिस शहर में 1871 में बजाया था। परेस शहर पर मज़दूरों का 64 दिन तक राज रहा और उसके बाद 1917 में रूस में पहली सफल मज़दूर क्रांति हुई।

लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि कश्मीर के मज़दूरों ने इससे भी पहले कश्मीर के डोगरा शासक के ख़िलाफ़ बग़ावत का झंडा बुलंद किया था।

कहा जाता है कि संगठित रूप से मज़दूर वर्ग का सत्ता पर दावेदारी का यह संगठित कोशिश भारत के मज़दूर आंदोलन की पहली घटना थी।

29 अप्रैल 1865 में कश्मीर के मज़दूरों, शॉल बुनकरों, कलाकारों ने अपने ही मालिकों के ख़िलाफ़ बग़ावत का ऐलान कर दिया।

इस बग़ावत को बड़ी बर्बरता के साथ कुचल दिया गया और ज़ालडागर श्रीनगर के पास हाजी पाथेर सुम नदी में डुबा दिया गया।

डोगरा सेना ने निहत्थों पर गोली बरसाई

लेकिन उसके बाद कई शॉल बुनकरों को जम्मू के किले और लद्दाख के भुवनजन जेल में डाल दिया गया।

29 अप्रैल 1865 वह दिन था जब शॉल बुनकरों ने डोगरा शासन द्वारा उन पर लगाए गए क्रूर कर नीतियों के ख़िलाफ़ श्रीनगर के पुराने शहर की सड़कों मार्च किया था।

श्रीनगर के शॉल बुनकर मामूली वेतन, अधिक टैक्स और बहुत बुरे हालात में काम करने को मज़बूर थे। जो शॉल बुनकर कश्मीर घाटी छोड़ना चाहते थे उनपर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

बुनकरों ने दाग़ शॉल विभाग के अधिकारी कश्मीरी पंडित राज काक धर के घर के सामने बुनकरों ने प्रदर्शन किया। उनका घर ज़ालडगर में था।

ऐतिहासिक दस्तावेजों से पता चलता है कि धर ने डोगरा सेना को ग़लत ख़बर दी कि उनके ऊपर हमला हो गया है।

जैसे ही प्रदर्शनकारी ज़ालडगर पहुंचे, कर्नल बिजॉय सिंह के नेतृत्व में डोगरा सैनिकों ने प्रदर्शनकारियों को घेर लिया और उन्हें वहां से जाने को कहा।

28 मज़दूर शहीद

जब निहत्थे प्रदर्शनकारियों ने आदेशों को मानने से इनकार कर दिया, तो सैनिकों ने उन पर गोलीबारी करनी शुरू कर दी और भालाें से हमला कर दिया।

बहुत सारे प्रर्दशनकारी ज़ालडगर के हाजी राथर सुम ब्रिज से नीचे नदी में कूद गए ताकि दलदल में छिप कर जान बचाई जा सके।

पर इस हादसे में 28 लोगों की मौत हो गई थी, कई लोगों की लाशें भी बरामद नहीं हुईं और 100 से अधिक लोग घायल हुए थे।

मज़दूरों और कारीगरों के इस विद्रोह को शॉलबफ़ विद्रोह के नाम से जाना जाता है।

भारत के इतिहास में ये पहला संगठित विरोध था और यह दिन कश्मीर के इतिहास में बहुत ही अहम जगह रखता है।

आज भी यहां के मज़दूर नेता इन मज़दूर शहीदों को याद करते हैं क्योंकि इन्होंने अत्याचार और पूंजीवाद के ख़िलाफ़ विरोध की पहली नींव रखी थी।

दुनिया में मज़दूर दिवस की शुरुआत सन् 1888 से हुई, लेकिन हकीक़त यह है कि कश्मीर में मज़दूरों ने 1865 में ही अपनी आवाज बुलंद कर दी थी।

इतिहास को दफ़न कर दिया गया

ये पूंजीवाद का एक और चेहरा है जिसने हमारे इतिहास को तोड़ मरोड़ दिया और आने वाली पीढ़ियों से छिपा दिया।

हमारे अपने इतिहासकार जो हमारे पूर्वजों की बहादुरी के क़िस्से सुना सकते थे, जुल्म करने वालों के सामने हथियार डाल दिया।

हमारी अंधेरी रातें भुला दी गईं। हमारे कारीगर रानियों को बहुत शानदार कपड़े सिलकर देते थे जबकि उनके परिवार भूखों मरने के लिए छोड़ दिए जाते थे।

इस आंदोलन की अगुवाई करने वालों में शेख़ रसूल, उबली बाबा, क़ुद्दा लाल और सोना बट थे। इन्हें अलग अलग जेलों में कैद किया गया था और बाद में उन्हें तड़पा तड़पा कर मार डाला गया।

इन मज़दूर शहीदों को राज्य के साथ-साथ कश्मीर के लोग भी भूल चुके हैं।

(लेखक ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क से जुड़े हुए हैं। ये कहानी काउंटर करंट डॉट ओआरजी में प्रकाशित हो चुकी है और यहां साभार प्रकाशित है। हिंदी में रुपांतरण किया है खुशबू सिंह ने।) 

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