अभूतपूर्व बेरोज़गारी-2: हर दस साल में पूंजीवाद क्यों दिवालिया हो जाता है?
By एस. वी. सिंह
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अपने चक्रीय संकटों और बेरोज़गारी के बगैर रह ही नहीं सकती? कुछ मुट्ठी भर लोगों की सम्पन्नता और बाकी सारे समाज की दरिद्रता, अति-उत्पादन के साथ भुखमरी इस व्यवस्था की विडम्बना और पहचान हैं।
ये विशिष्टताएं आज की नहीं हैं जब ये पूंजीवादी व्यवस्था पिछले लगभग 45 साल से अपने मरणासन्न संकट में आकंठ डूबी हुई है। पूंजीवाद की ये बीमारी जन्मजात है, लगभग उतनी ही पुरानी जितना की इसका कुल जीवन है।
‘उत्पादन सामूहिक और उत्पाद को निजी मुनाफे के लिए हड़प लिया जाना’ एक जानलेवा विरोधाभास है जिसपर ये व्यवस्था टिकी हुई है और जो इस व्यवस्था को अपने साथ लेकर ही क़ब्र में जाएगा।
इस रोग को ठीक से समझते हुए, सन 1890 में पूंजी खंड तीन की प्रस्तावना में सर्वहारा के महान नेता फ्रेडेरिक एंगेल्स लिखते हैं; “बड़े उद्योगों द्वारा आज जिस तेज़ी से उत्पादन बढाया जा सकता है, उसके विपरीत उतनी ही धीमी गति से विभिन्न उत्पादित वस्तुओं का बाज़ार सिकुड़ता जाता है। बड़े उद्योग एक महीने में जितना उत्पादन कर सकते हैं उसकी खपत होने में बरसों लग जाते हैं। परिणाम होता है जीर्ण अति उत्पादन, क़ीमतों का दबाव में आना और मुनाफ़े की दर का गिरना या उसका बिलकुल ही विलुप्त हो जाना; संक्षेप में कहें तो बहु प्रचारित मुक्त प्रतियोगिता के लिए संसाधनों का अंत हो जाना; ये सब मिलकर पूंजीवाद के अपमानजनक दिवालियेपन की घोषणा करते हैं।”
चक्रीय संकट
पूंजीवाद का चक्रीय संकट संक्षेप में इस तरह होता है: जड़ पूंजी का लगातार बढ़ते जाना, श्रम के लिए इस्तेमाल होने वाली परिवर्तनशील पूंजी का सतत कम होते जाना; ऐसा निरंतर करते जाने की अनिवार्यता; परिणाम स्वरूप मुनाफे की दर का गिरते जाना, इसका परिणाम अति उत्पादन और फिर उत्पादन के साधनों का नष्ट होना और इस सबका नतीजा अंततोगत्वा भयंकर बेरोज़गारी में होना।
पूंजीवाद जब ‘स्वस्थ विकास’ कर रहा था तब भी वह हर 8 से 10 साल में चक्रीय संकट से रुबरु होता था जिसका परिणाम भी बेरोज़गारी में ही हुआ करता था।
हालाँकि उस वक़्त संकट के बाद तेज़ विकास के कारण काफी मज़दूरों को फिर से काम मिल जाया करता था। फिर से अगले चक्रीय संकट के वक़्त फिर बेरोज़गारी का संकट पैदा हुआ करता था।
पूंजीवाद ने पहले चक्रीय संकट का सामना सन 1825 में किया था। सन 1991 से तो इस संकट ने मरणासन्न संकट का रूप ले लिया है जिसे तब से आज तक एक बार भी तेज़ी (बूम) की अवस्था या विकास की तथाकथित हरी कोपलें देखने को नहीं मिली हैं।
संकट दिन ब दिन गहराता ही जा रहा है। पिछले 29 साल से तो ये सिसकता पूंजीवाद अधमरी अवस्था में मृत्युशय्या पर उस जीर्ण टीबी के मरीज की तरह है जिसे डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है, जिसकी सांस की नलियाँ हटा ली गई हैं।
इसी का परिणाम है कि उत्पादन की नई इकाइयाँ लगना तो भूल ही जाइये, वर्त्तमान उद्योग भी अपनी कुल क्षमता की आंशिक क्षमता पर ही चल रहे हैं और उसी का नतीजा है कि मज़दूरों की छंटनी की दर तेज़ी से बढ़ती जा रही है। ऐसे वक़्त में कोरोना महामारी का हमला हुआ है।
करोड़ों बेरोज़ग़ार
सरकार ने बगैर किसी योजना के, हड़बड़ी में, जैसे उसके हाथ पांव फूल गए हों, तुरंत देश भर में पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा कर दी।
नाटकीय अंदाज़ में टी वी पर आकर देश को संबोधित करते हुए घोषणाएँ करना और फिर उसके परिणामों से नज़र फेर लेना और अगली घोषणा करने के अवसर की ताड में बैठना, मौजूदा हुकूमत का सबसे प्रिय काम है।
इस घोषणा से एक झटके में सिर्फ़ अप्रैल के महीने में लगभग 2.7 करोड़ लोग पहले से मौजूद बेरोज़गारों की विशालकाय फौज में शामिल हो गए।
लॉकडाउन के पूरे दिनों में कुल कितने लोगों को अपनी रोज़ी रोटी से हाथ धोना पड़ा इसका एकदम सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है लेकिन विभिन्न स्रोतों के आधार पर ये संख्या 8 करोड़ से कम नहीं है।
उत्पादन की लहर (बूम) या ‘हरी कोपलें’ तो भूल ही जाइये, लॉकडाउन के पहले का स्तर पाना भी असंभव है।
व्यवस्था के ताबेदार, सत्ता द्वारा पाले पोसे जाने वाले व्यवस्था प्रबंधक बदहवाश हैं; कोरोना का टीका या ईलाज तो देर सबेर ढूँढ़ ही लिया जाएगा लेकिन क़ब्र में टांगे लटकाए पड़ी इस पूंजीवादी व्यवस्था को तंदुरुस्त बनाने कोई टीका, कोई जड़ी बूटी कहीं से कहीं तक नज़र नहीं आ रही।
इस बीमारी का कोई इलाज़ नहीं
मोदी सरकार 2014 के आम चुनाव में लोगों को हर साल 2 करोड़ लोगों को रोज़गार देने के वादे की बदौलत सत्ता की कुर्सी तक पहुंची थी।
इसी का नतीज़ा था कि देश का दिशाहीन युवा, भाजपा को जिताने के लिए चुनाव केंद्र तक दौड़ते हुए एक दूसरे पर गिर पड़ रहा था, ये सोचकर कि जैसे ही मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे, उनकी नियुक्ति पत्र वाला लिफ़ाफ़ा भी तुरंत ही ज़ारी हो जाएगा!!
क्रूर और कर्कश सच्चाई ने देश के युवा वर्ग को हिलाकर, झकझोड़ कर रख दिया है।
इस पूंजीवादी सत्ता के टुकड़खोर विशेषज्ञों ने अब पूरी बेशर्मी के साथ कहना शुरू कर दिया है कि देश को कोरोना वायरस के साथ ही नहीं बल्कि बे-रोज़गारी के साथ भी जीना सीखना पड़ेगा।
सरकार ने अब बे-रोज़गारी के मुद्दे पर बोलना ही बंद किया हुआ है और ये मुद्दा लोगों में बहस-डिबेट का मुद्दा ना बन जाए इसके लिए ध्यान बंटाने की हर तिकड़म अपनाई जा रही है क्योंकि सरकार जानती है कि पूंजीवाद द्वारा जनित इस बीमारी का कोई ईलाज है ही नहीं।
ये बीमारी पूंजीवाद के साथ ही कब्र में जाएगी उससे पहले नहीं।
(मज़दूर मुद्दों पर केंद्रित ‘यथार्थ’ पत्रिका के अंक तीन, 2020 से साभार)
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