मानवाधिकार हनन में UP अव्वल, फिर भी क्यों नहीं बन रहा चुनावी मुद्दा, PUCL ने पूछा राजनीतिक दलों से सवाल

मानवाधिकार हनन में UP अव्वल, फिर भी क्यों नहीं बन रहा चुनावी मुद्दा, PUCL ने पूछा राजनीतिक दलों से सवाल

मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल) ने उत्तर प्रदेश चुनावों से पहले एक मांगपत्र जारी कर राजनीतिक दलों से मानवाधिकार को लेकर उनके स्टैंड पर जवाब मांगा है।

रविवार को एक ऑनलाइन प्रेस कांफ्रेंस में पीयूसीएल के पदाधिकारियों ने कहा कि मानवाधिकार हनन के मामले में पहले स्थान पर रहने वाले उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने जा रहा है, लेकिन किसी भी राजनीतिक दल ने मानवाधिकार उल्लंघन के मामले को उतनी गंभीरता से नहीं लिया है।

इस मौके पर उत्तर प्रदेश में मानवाधिकार हनन के ऊपर सरकारी एजेंसियों द्वारा ही तैयार किए गए आंकड़ों को संकलित कर एक रिपोर्ट जारी किया गया। इस रिपोर्ट को यहां पढ़ सकते हैं।

यहां पढ़ेंः  पीयूसीएल का मांग पत्र

पीयूसीएल के संयोजक फरमान नकवी ने कहा कि जनता अपने लिए नई सरकार चुनने जा रही है और यही मौका है जब चुनाव मैदान में उतरने वाली सभी पार्टियों का और नई सरकार चुनने जा रही जनता का ध्यान उन आंकड़ों की ओर दिलाएं जो बीते सालों में खुद सरकार की तमाम एजेंसियों ने इकट्ठा किए हैं।

उन्होंने कहा कि हम यह मांग करते हैं कि चुनावी दल अपने चुनावी घोषणा पत्रों में मानवाधिकार को संरक्षित करने का वादा करें और नई सरकार के गठन के बाद इस दिशा में तत्काल कोई कदम उठाएं।

यूपी में मानवाधिकार हनन के मामले

पीयूसीएल की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में मानवाधिकार हनन के मामले कितने गंभीर हैं राष्ट्रीय महिला आयोग की एक रिपोर्ट बताती है। इसके अनुसार, 2018 से 2019 के बीच में जितनी शिकायतें आयोग में गईं उसमें यूपी सभी राज्यों काफी पीछे छोड़ते हुए 11,289 शिकायतों के साथ पहले नम्बर है। पहले लॉकडाउन के समय यानि मार्च 2020 से सितम्बर 2020 के बीच राष्ट्रीय महिला आयोग में राज्य से कुल 5,470 शिकायतें पहुंची, जो कि पूरे देश का 53 प्रतिशत है। इसमें भी उत्तर प्रदेश पहले नम्बर पर है। हाथरस और फिर इलाहाबाद के गोहरी में दलित लड़की के बलात्कार और हत्या के मामले से सरकार जिस तरीके से निपटती नज़र आयी, सत्ता की एक खतरनाक प्रवृत्ति को चिन्हित करती है।

 

पूरे देश में दलितों पर होने वाले अपराधों का 25.8 प्रतिशत उत्तर प्रदेश में घटित हो रहा है। यहां दलितों पर अपराध की दर 28.6 है, जो कि देश भर में सबसे अधिक है। दलितों पर होने वाले अपराध को महिलाओं के साथ होने वाले अपराध से मिलाकर देखेंगे, तो तस्वीर और भी भयावह लगती है।

साल 2019 के पूरे देश में दलित महिलाओं के बलात्कार के कुल 3,486 अपराध रजिस्टर हुए, जिनमें से अकेले उत्तर प्रदेश के कुल 537 मामले हैं, जो 15.4 प्रतिशत हैं। 2020 के भी एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश दलित और आदिवासी उत्पीड़न में पहले स्थान पर पहुंच गया है।

अल्पसंख्यक उत्पीड़न

पीयूसीएल की रिपोर्ट के अनुसार, अल्पसंख्यक समुदाय के उत्पीड़न में उत्तर प्रदेश ने ऐसी कुख्यात मिसालें कायम की हैं, जो कहीं और देखने को नहीं मिलेंगी। 19 दिसम्बर 2010 को सीएए एनआरसी को लेकर प्रदेश भर में हुए प्रदर्शनों के कारण सरकार ने सैकड़ों को जेल में डाल दिया। सरकारी तौर पर 22 लोगों की पुलिस की गोली से हत्या हुई, जिसमें एक 8 साल का बच्चा भी शामिल है।

मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्ट के मुताबिक मरने वालों की संख्या 34 है। लखनऊ और कानपुर में सबसे अधिक अमानवीयता बरती गयी। बुरी तरीकों से पीटा गया, थानों में यातनायें दी गईं, महिलाओं के  साथ बदतमीजी की गयी। अकेले लखनऊ में इस आन्दोलन से जुड़े 297  के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गयी, जिसमें 18  पर एनएसए और 68 आरोंपियों पर गैंगस्टर, 28 पर गुंडा एक्ट लगाया गया। लगभग 300 लोगों पर पब्लिक प्रापर्टी को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाकर उनसे 64 लाख रूपये 7 दिनों के भीतर जमा करने का नोटिस भेजा गया। इतना ही नहीं लखनऊ के चौक-चौराहों पर इनकी तस्वीरें अपराधियों के तौर पर जारी की गयी।

इलाहाबाद में गठित अधिवक्ता मंच के पास इसी दौरान उत्तर प्रदेश के 32 जिलों के 120 मामले एनएसए के आये। इनमें आरोपित सभी लोग मुसलमान थे। इनमें से 94 मामले हाईकोर्ट में रद्द हो गये, यानि वे इतने फर्जी थे कि एफआइ र्आर ही रद्द हो गयी। साल 2020 में ऐसे 41 मामले जो हाईकोर्ट पहुंचे, वो भी फर्जी निकले, इनमें से 70 प्रतिशत मामले क्वैश हो गये और बाकियों को  जमानत मिल गयी।  मुसलमानों के प्रति पुलिस के साम्प्रदायिक नजरिये के कारण ही राज्य की जेलों में विचाराधीन कैदियों में मुसलमान आबादी का प्रतिशत 26 से 29 है, जबकि राज्य में उनकी आबादी 19 प्रतिशत है। सजायाफ्ता कैदियों में उनका प्रतिशत 22 है। उत्तर प्रदेश के कुख्यात फर्जी एनकाउण्टर में भी पुलिस की साम्प्रदायिक मानसिकता इस आंकड़े से उजागर होती है कि 2020 में हुए कुल एनकाउण्टरों में 37 प्रतिशत में भुक्तभोगी मुसलमान थे। 

प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकारों पर होने वाले हमलों पर भी गंभीर चिंता व्यक्त की गई और जल्द ही एक अलग मांगपत्र जारी किए जाने की बात कही गई।

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Workers Unity Team

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