जब लेनिन ने अंग्रेज़ों से लड़ रहे भारतीय मज़दूरों की तारीफ़ की : इतिहास के झरोखे से-11
By सुकोमल सेन
बंगाली मजदूर वर्ग पर बहुराष्ट्रीयताओं का प्रभावशाली चरित्र बाद के समय में अत्यधिक लाभदायक सिद्ध हुआ। जब राष्ट्रीय राजनीतिक आंदोलन उभार पर आया तो इसकी एक रुपरेखा स्पष्ट रुप से सामने आई।
बंगाली मजदूरों में उच्च स्तर की विभिन्न राष्ट्रीयताओं की उपस्थिति ने व्यापक राजनीतिक दृष्टिकोण और मजदूर वर्ग में उच्च राजनीतिक चेतना विकसित करने में बड़ी भूमिका निभाई।
संपूर्ण रुप से मुंबई का सर्वहारा वर्ग अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता और सांगठनिक कमजोरी के बावजूद एक निर्णायक शक्ति के रुप में शहर के आंदोलन में कूद पड़ा।
भारतीय मजदूर वर्ग के आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष वस्तुगत रुप से भारत के औपनिवेशिक शासकों के ख़िलाफ़ थे।
इसलिए एक तरफ इन संघर्ष को भारतीय समाज के उन वर्गों का भी समर्थन और सहयोग प्राप्त हुआ जिनके हितों को औपनिवेशिक शासन ने हानि पहुंचाई थी।
दूसरी तरफ औपनिवेशिक शासन से अपना लाभ प्राप्त करने वाले स्वार्थी वर्गों इन संघर्षों का शत्रुतापूर्ण विरोध भी प्रदर्शित किया।
निरंतर आगे बढ़ रहे भारतीय मजदूर वर्ग आंदोलन ने और विशेष रुप से मुंबई के मजदूरों की राजनीतिक कार्रवाई ने भारतीय समय के अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया।
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मज़दूरों की राजनीतिक कार्रवाई
सन् 1908 में मुंबई के मजदूरों द्वारा की गई राजनीतिक कर्रवाई उनके द्वारा 1905 व्यापक जन उभार के चरमोत्कर्ष पर की गई कर्रवाई की ही निरंतरता थी।
इस कार्रवाई पर 1905-7 के दौर में रुसी जार (रुसी बादशाह) के खिलाफ हुई पूंजीवाद जनवादी क्रांति का पूरा असर पड़ा। इस क्रांति में रुसी मजदूरों द्वारा आम हड़ताल को मुख्य हथियार के रुप मे इस्तेमाल किया गया था।
सन् 1905 से 1907 के दौरान भारतीय मजदूरों किसानों के जोशीले संघर्षों के आवेग के साथ उमड़ते जनआंदोलनों और भारतीय जनता में विकसित हो रही क्रांतिकारी प्रवृत्तियों ने भारतीय पूंजीपित वर्ग के अंतर्विरोधों को बढ़ा दिया।
भारतीय पूंजीपति वर्ग का यह अंतर्विरोध 1907 में संपन्न हुए कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में स्पष्ट रुप से दिखाई दिए।
इस अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नरपंथी और तथाकथित चरमपंथियों दो गुटों में स्पष्ट रुप से विभाजित दिखाई दी।
नरमपंथी ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग करने, विदेशी माल के बहिष्कार आंदोलन (वायकाट मूवमेंट) को वापस लेने और हिंसा का रास्ता त्यागने की वकालत कर रहे थे।
दूसरी तरफ तथाकथित चरमपंथियों के मुख्य नेता बाल गांगाधर तिलक ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनआंदोलन के पक्षधर थे।
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अंंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ हड़ताल
तिलक ने अपने अनुयायियों के साथ मजदूरों से भी संबंध स्थापित किया और जन राजनीतिक संघर्ष में शामिल होने के लिए उनको प्रेरित किया।
तिलक द्वारा उठाया गया एकता का यह कदम निश्चय ही मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी क्षमता को समझ कर नहीं उठाया गया था बल्कि पूर्णत: पूंजीवाद नेतृत्व और नियंत्रण में साम्राज्यवाद विरोध संघर्ष सशक्त बनाने के लिए व्यापक असंगठित जनता को जोड़ने के लिए उनके संकीर्ण परिणामवादी दृष्टीकोण की ही देन था।
इसलिए अपने पूंजीवादी वर्ग दृष्टीकोण की सीमाओं में बंधे रहने से तिलक न तो जनता को संगठित क्रांतिकारी गतिविधियों का महत्व समझा सके और न ही मजदूर वर्ग का एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रुप में ही देख सके।
इन कमियों के बावजूद महाराष्ट्र की जनता और मजदूर वर्ग पर तिलक का बड़ा प्रभाव था।
24 जून 1908 को मुंबई में तिलक को गिरफ्तार कर लिया गया। विदेशी माल के बहिष्कार, स्वदेशी आंदोलन और अनके स्थानीय जन उभारों से भयाक्रंत ब्रिटिश सरकार ने तिलक के खिलाफ राजद्रोह का अभियोग लगाकर, क्रांतिकारी संघर्षों के आवेग को रोकना चाहा।
न्यायालय में तिलक के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाने का नाटक हुआ और उनको 6 वर्षों की सजा सुना दी गई।
तिलक की गिरफ्तारी और उनको जेल भेजे जाने से जनता का विक्षोभ फूट पड़ा, और पूरे देश में जन सैलाब उमड़ पड़ा। जनता ने विभिन्न स्थानों पर कामबंदी, हड़ताल और प्रदर्शन संगठित किए।
लेकिन जुलाई 1908 में मुंबई के मजदूरों द्वारा की गई राजनीतिक हड़ताल और कामबंदी इस आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू था।
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जब लेनिन ने की तारीफ़
अपने चिंतन की वर्गीय सीमा के कारण पूंजीवाद इतिहासकारों ने भारतीय मजदूर वर्ग की इस प्रथम राजनीतिक हड़ताल को कोई महत्व नहीं दिया जबकि भारतीय जनता के क्रंतिकारी संघर्षो में इस राजनीतिक हड़ताल का एक विशेष महत्व है।
डी.सी होम ने टिप्पणी की कि ‘दुर्भाग्य वश इस घटना को हमारे द्वारा लिखे गए इतिहास में उचित स्थान नहीं मिल सका और न ही स्वाधीनता संघर्षों के लोकप्रिय वर्णन में इस घटन का उल्लेख हुआ।’
हमारे इतिहास को झूठा साबित करने वाले साम्राज्यवादी इतिहासकारों और पूंजीवाद इतिहासकारों दोनों ने जानबूझकर कर इस घटना को दबा दिया क्योंकि दोनों ही मजदूर वर्ग की सचेत कर्रवाई से भयाक्रांत थे।
लेकिन मजदूर वर्ग ने सदा ही अपने शानदार प्रथम राजनीतिक संघर्ष और उसके शहीदों की यादों को अपने दिल में संजोए रखा है। फिर भी संर्पूण रुप से वास्तविक कहानी का कभी भी वर्णन नहीं हुआ।
यद्यपि साम्राज्यवादी और पूंजीवाद इतिहासकारों ने इस घटना के महत्व को समाप्त करने के प्रयास किए लेकिन वर्ष 1908 में ही यह महत्वपूर्ण घटना लेनिन की निगाहों से ओझल नहीं हो सकी।
इस घटना को चिन्हित करते हुए लेनिन ने लिखा, ‘भारत में भी सर्वहारा ने सचेत राजनीतिक संघर्ष को विकसित किया है और वहां भी रुसी मार्का ब्रिटिश शासन का विनाश शुरू हो गया है।’
(भारत का मज़दूर वर्ग, उद्भव और विकास (1830-2010) किताब का अंश। ग्रंथशिल्पी से प्रकाशित)
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