जब मजदूर सैकड़ों किमी दूर अपने घरों को पैदल लौट रहे थे, ट्रेड यूनियनें कहां थीं?

जब मजदूर सैकड़ों किमी दूर अपने घरों को पैदल लौट रहे थे, ट्रेड यूनियनें कहां थीं?

By सचिन श्रीवास्तव

पिछले दिनों मजदूर संकट पर कई किस्म के वेबिनार, टॉक और लेख देखे, इनमें से कितने श्रमिक साथियों ने पढ़े, देखे, सुने पता नहीं, लेकिन ज्यादातर में कुछ बातें छूटती लगी, सो कुछ क्षेपक के साथ।

उन साथियों की राय के लिए जो जमीनी संघर्ष को सिर्फ कहते नहीं बल्कि जीते हैं, जो ट्रेड यूनियनों में उम्मीद देखते हैं, और मानते हैं कि आखिरकार “ट्रेड यूनियनें ही बदलाव की एजेंसी बनेंगी, वेनगार्ड होंगे मजदूर और ट्रिगर है मौजूदा संकट।”

पिछले दिनों प्रवासी मजदूरों के ऐतिहासिक पलायन और तकलीफों की अंतहीन दास्तानों के बीच सरकार के प्रयासों पर सवाल उठे ही हैं। सरकार को इसके लिए जवाबदेह बनाया भी जाना चाहिए।

लेकिन सवाल यह भी है कि आखिरकार यह भ्रमित सरकार क्यों मजदूरों के प्रति लापरवाह बनी रही। इसके जवाब में पता चलता है कि मजदूरों और उसकी मुश्किलों के बीच ढाल की तरह खड़ी रहने वाली ट्रेड यूनियनों की ताकत का कम होना भी इसकी बड़ी वजह है।

मज़दूरों को उम्मीद ही नहीं थी कि उनकी बात को कोई सरकार तक पहुंचा सकता है, उस पर दबाव बना सकता है और उसे न्याय दिला सकता है?

तो ऐसे में एक सवाल हमारे ट्रेड यूनियनों से भी पूछा जाना चाहिए कि जब मजदूर अपने पैरों के भरोसे घरों की ओर लौट रहा था, तब वे कहां थे?

बीते तीन दशक में मजदूरों, कामगारों, मेहनतकशों का शोषण तीखा और बेहद कुटिल होता गया है और इसी क्रम में मजदूर यूनियनें कमजोर और निष्प्रभावी भी होती चली गईं।

ऐसा क्या हुआ कि जब मजदूर को यूनियनों की सबसे ज्यादा जरूरत थी, तो पता चला कि उसके आसपास पुरजोर ढंग से उसकी बात को रख सकने वाली यूनियनों का अभाव था?

हमारे कुछ ट्रेड यूनियन नेता कुछ किंतु—प​रंतु के साथ इस स्थिति को स्वीकार भी करते हैं कि इस महासंकट के दौरान ट्रेड यूनियनें अपनी भूमिका के उस हिस्से को कामयाबी से अंजाम नहीं दे पाईं, जिसकी ज़रूरत सबसे ज्यादा थी।

सवाल यह भी है कि बाद में भले ही मजदूर यूनियनों के साथियों ने अपने सामर्थ्य, अपनी हैसियत से सड़कों पर पैदल जा रहे मेहनतकश परिवारों के चेहरे से आंसू पोंछने और उनके सीने में उठती दर्द की हिलोर को कम करने की गिलहरी कोशिशों को अंजाम दिया हो।

लेकिन मजदूर यूनियनें अपने मूल काम, मजदूर जहां है, वहीं उसे सामाजिक सुरक्षा और सम्मानजनक जीवन की गारंटी ​दिलाने की कोशिशों में नाकाम रहीं।

ट्रेड यूनियनों के उजले इतिहास और मौजूदा निजाम की कुटिल चालों की आड़ में अपना चेहरा भले ही छुपाया जाए, लेकिन आखिरकार यह सवाल एक दुःस्वप्न की तरह पीछा करेगा ही कि 40 करोड़ से ज्यादा की मज़दूर आबादी में से क्यों 10 प्रतिशत भी क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनों के साथ सहभागी नहीं हैं?

देश की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन मेंबरशिप अभी भी कांग्रेस समर्थित इंटक के पास है। भाजपा समर्थित बीएमएस के पास भी इंटक के मुकाबले आधी श्रमशील आबादी है।

दोनों का कुल आधारक्षेत्र करीब 5 करोड़ का है, लेकिन इन दोनों से ही किसी क्रांतिकारी संघर्ष की उम्मीद बेमानी है।

दूसरी तरफ सभी कम्युनिस्ट पार्टियों का कुल आधार क्षेत्र ढाई से तीन करोड़ ही बैठता है, जिसमें से अकेले एटक के पास 1.5 करोड़ का आधार क्षेत्र है।

दिक्कत यह है कि कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियन के आधार का बड़ा हिस्सा कुछ राज्यों में सिमटा हुआ है और हिंदी पट्टी में दयनीय हद तक खराब हैं।

कभी वो इलाके जहां से लाल झंडे के तले संसदीय परंपराओं को नई उंचाई देने वाले जनप्रतिनिधि चुने जाते थे, वहां भी ट्रेड यूनियन के नाम पर खानापूर्ति के तौर पर इकाईयां संचालित की जा रही हैं।

लेकिन न मजूदरों के बीच पकड़ है और न ही मजूदरों से सघन संवाद और न ही मजदूरों की आवाज को धमक से सत्ता की नाक तक पहुंचा देने का हौसला।

बहरहाल, फौरी तौर पर इसके पीछे चार बड़े कारण दिखते हैं-

1. ट्रेड यूनियन नेतृत्व की मौजूदा पीढ़ी नए समय से कदमताल करने में नाकामयाब रही है। उसके तौर तरीके बेहद पुराने, पिछड़े और लगभग अप्रासंगिक हो चुके हैं। यह गंभीर सवाल है कि ऐसा सायास किया गया है, या फिर नेतृत्व के उम्दा, वैश्विक सोच वाले दिमाग कोई कारगर तरीका खोज नहीं सके।

2. लेखक, कवि, कलाकारों और युवाओं की ट्रेड यूनियनों से दूरी के कारण संवाद के ​जो जीवंत तरीके हो सकते थे, वे ढीले पड़ गए। खासकर हिंदी पट्टी में तो हालात बेहद खराब रहे।

3. ट्रेड यूनियनों में जमीन से उपजे मज़दूर नेताओं के बजाय तार्किक क्षमता से लैस अर्बन या सेमी अर्बन युवाओं, अधेड़ों और बुजुर्गोंं का नेतृत्व तैयार हुआ। नतीजतन धीरे धीरे मजदूर और नेतृत्व के बीच खाई बड़ी होती चली गई।

4. मजदूरों का राजनीतिकरण नहीं किया। अपने वेतन, अपने भत्ते, अपनी सुरक्षा जैसे मुद्दों पर एकजुट हो जाने वाला मजदूर देश के अन्य सवालों से कटा रहा। सामाजिक बदलाव और अन्य राजनीतिक सवालों पर मजदूरों और नागरिक समुदायों के बीच एक दूरी बेहद साफ देखी, समझी जा सकती है।

बहरकैफ़, उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले वक्त में जब मेहनतकश अवाम अपने वजूद की लड़ाई को नए सिरे से लड़ेगी उसमें ट्रेड यूनियनें अपनी गलतियों से सबक लेते हुए न सिर्फ कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़ी होंगी, बल्कि जल्द से जल्द मज़दूरों से अपने कमज़ोर हो चुके रिश्ते को मजबूत करने के लिए तेज कदमों से गांवों, कस्बों की ओर जाएंगी।

क्योंकि मजदूर को वहां उनका इंतजार है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेख में प्रकाशित उनके ये निजी विचार हैं।)

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