बिहार में मेंढक खाने को मजबूर हो रहे महादलितों के बच्चे

बिहार में मेंढक खाने को मजबूर हो रहे महादलितों के बच्चे

‘हम जात थे, हं’ (हम जाते थे, हां), उनमें से 20 एक साथ हाथ उठाकर चिल्लाते हैं।

पूछा कि क्या उन्हें स्कूल में खाना मिला? ‘नहिन’(नहीं), ये बोलकर वे खामोश हो गए।

क्या दिन में खाने को खाना है क्योंकि स्कूल तो बंद है? स्कूल में उनका पसंदीदा दिन क्या था? ‘शुक्रवार’, वे चिल्लाते हुए बोले, उस दिन अंडे परोसे जाते थे।

महादलित बस्ती मुसहरी टोला के बच्चों के साथ बातचीत का ये वाकया है। लेकिन, यहां के बच्चे अब उदास और बुझे-बुझे से हैं। खुद के पेट की आग शांत करने को रोजाना जंग लड़ रहे हैं।

हालांकि, पहले भी ये संघर्ष था, लॉकडाउन में इसका बोझ बेहिसाब बढ़ गया है नौनिहालों के सामने। लॉकडाउन में स्कूल बंद होने से मिड डे मील के खाने का भी आसरा नहीं रहा।

जातिगत भेदभाव और भुखमरी की बदरंग तस्वीर

दशकों से बिहार राज्य जिन समस्याओं से जूझा, वे आज भी यहां की महादलित बस्तियों की जीती-जागती दिखाई देती हैं। जैसे कि कुपोषण। स्कूलों में मिलने वाला मिड-डे मील इन महादलित परिवारों के बच्चों के लिए सहारा था, जो फिलहाल लॉकडाउन की भेंट चढ़ चुका है।

टोला में, दीनू मांझी चावल, नमक, दाल और चोखा (उबले हुए आलू) की एक गांठ के साथ स्टील की प्लेट रखते हैं। ‘और कुछ नहीं है’, वे कहते हैं। यहां के लोगों का कहना है कि 1000 की आबादी के साथ टोला में 250 मतदाता हैं। जातिगत भेदभाव और गरीबी के कारण, हर कामकाजी पुरुष या महिला के पास केवल दो काम होते हैं- कचरा संग्रह या भीख मांगना। ये भी अब मुश्किल हो चुका है।

हीरा मांझी दो किमी दूर सुल्तानगंज में कचरे को इक_ा करने पर एक ठेकेदार से रोजाना 300 रुपये मिल जाते थे। ‘अब, हम सप्ताह में केवल दो दिन जा पाते हैं’, वे कहते हैं। उनके दो बच्चे स्कूल जाने के हिसाब से बहुत छोटे हैं, लेकिन वे एक दिन भोजन की खातिर स्थानीय आंगनबाड़ी में चले जाते थे। फिलहाल, वह भी बंद है।

मीना देवी का कहना है कि लगभग एक महीने पहले, सरकारी अधिकारियों ने सभी राशन कार्ड धारक को 5 किलो चावल या गेहूं और 1 किलो दाल पीएम गरीब कल्याण योजना के तहत दी थी। उसके बाद कोई नहीं आया। आखिर एक किलो दाल एक परिवार के लिए कब तक चल सकती है? स्कूल में मिड डे मील बंद होने से सुल्तानगंज में खाना मांगने जाते हैं।

मदद के नाम पर मजाक

जिला मजिस्ट्रेट प्रणव कुमार का कहना है कि सरकारी कार्यक्रम के अनुसार, मिड-डे मील के एवज में बच्चों या उनके अभिभावकों के खातों में पैसा भेजा गया है। यह उस अवधि के लिए है जब स्कूल बंद हैं।

यह कदम राज्य सरकार द्वारा 14 मार्च को स्कूलों को पहले बंद करने के एक दिन बाद जारी आदेश पर आधारित है। कक्षा 1-5 के बच्चों के लिए 114.21 रुपये और कक्षा 6-8 के लिए 171.17 रुपये।

वहीं, बड़बिल के निवासियों का कहना है कि उन्हें कोई मदद नहीं मिली है। सुल्तानगंज में शांति देवी कन्या विद्यालय के प्रिंसिपल सुनील गुप्ता का कहना है कि लॉकडाउन -2 तक कुछ पैसे आ गए थे, जो अप्रैल के महीने में बैंक खातों में ट्रांसफर हो गए।

तीन मई को लॉकडाउन -2 समाप्त होने के बाद कुछ भी नहीं हुआ। मेरे स्कूल में कुल 265 बच्चे थे और पैसे माता-पिता के खाते में जाते थे। ये तरीका एक मजाक ही है।

मध्याह्न भोजन के प्रभारी जिला कार्यक्रम अधिकारी सुभाष बताते हैं, पैसा सीधे केंद्रीकृत व्यवस्था से उनके खातों में जा रहा है। मई तक भुगतान किया गया है। भागलपुर में नामांकित बच्चों की संख्या 5.25 लाख है।

एक वक्त के खाने की खातिर ही आते रहे स्कूल

स्कूल के शिक्षकों का कहना है कि यह संभावना नहीं है कि ये छोटी सी धनराशि बच्चों को खिलाने में लग पाएगी। भागलपुर के सरकारी स्कूल, खुर्द कजरैली के विद्यालय में शिक्षक अंजनी कुमार कहते हैं, अधिकांश बच्चे गरीब परिवारों से आते हैं।

स्कूल यूनिफॉर्म के लिए खातों में अक्सर पैसे भेजे जाते हैं, जब आप बच्चों से पूछते हैं कि उनके नए कपड़े कहां हैं, तो वे कहते हैं कि उनके माता-पिता को पैसे की जरूरत थी। मिड-डे मील एकमात्र कारण था, जिसकी वजह से वे स्कूल आए थे।

रोज मिट्टी में मिलता आत्मसम्मान

मुसहरी टोला में पक्के मकान या स्वच्छ भारत अभियान के शौचालय नहीं हैं। हर दिन, जब महिलाएं पास के खेतों में जाती हैं, तो वे किसानों के गुस्से का भी सामना करती हैं। उनका आत्मसम्मान रोज ही मिट्टी में मिलता है।

अभी की हालत ये है कि स्कूल बंद होने के चलते बच्चे भीख मांग रहे हैं या फिर कूड़े से बिकने लायक सामान इक_ा कर रहे हैं। प्लास्टिक की बोतलों आदि से दस-बीस रुपये की कमाई हो जाती है दिनभर में।

उनके लिए ये जीने-मरने की लड़ाई है। घर से बाहर कदम रखने पर कुछ नहीं मिला तो क्या खाते हैं? इस सवाल का जवाब सनी कुमार नाम के बच्चे ने देकर झकझोर दिया। जवाब था, ‘बेंगमा पकड़ते हैं (हम बेंगमा को पकड़ते हैं)। मेंढक को स्थानीय बोली में ‘बेंगमा’ है।

(इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित दीपांकर घोष की ग्राउंड रिपोर्ट, वर्कर्स यूनिटी के लिए भावानुवाद आशीष आनंद द्वारा)

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ashish saxena