आखिर शेर क्यों दहाड़ता है?
By कबीर संजय
जानते हैं, बादशाहत के साथ सबसे बड़ी दिक्कत क्या है। आपको हर वक्त लगता है कि यह खिसकने वाली है। जाने वाली है। आपका रुतबा, आपका गुरूर, आपकी ताकत खोने वाली है। आपका परिवार आपसे छीन लिया जाएगा। जिन चीजों पर आप गर्व करते हैं, वे आपकी नहीं रहेंगी। आप उन्हें खो देंगे।
हर वो चाहत जो सिर्फ आपकी है, वो खतम हो जाएगी। आप खदेड़ दिए जाएंगे। जिस उच्च सिंहासन पर आपने खुद को बहुत मेहनत से आसीन किया है, वहां से उतार दिए जाएंगे। इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए जाएंगे। फिर आपको कोई याद नहीं रखेगा। अपनी बादशाहत को खतरे से बचाने के लिए बादशाह शोर मचाता है। खुद को ताकतवर और ज्यादा से ज्यादा कद्दावर दिखाने की कोशिश करता है।
आइये जानते हैं कि आखिर शेर इतनी बुलंद आवाज में दहाड़ते क्यों हैं।
कुछ आवाजें ऐसी हैं जिन्हें हो सकता है कि हमने और आपने अपने जीवन में कभी भी नहीं सुनी हो। लेकिन, जब कभी भी हम उसे पहली बार सुनेंगे, हमारे रोंगटे खड़े हो जाएंगे। लोग भूतों की बात फालतू में करते हैं। लेकिन, हम जब कभी भी कोबरा की फुंफकार सुनेंगे हमारे रोएं खड़े हो जाएंगे। हम उस डरावनी फुंफकार को अपनी जीन में लिए चलते हैं।
जब रसेल वाइपर अपने सिर को छिपाकर कुकर की सीटी जैसी आवाज निकालने लगता है, हमारे सिर के बाल खड़े होने लगते हैं। अमेरिकी महाद्वीप में गूंजने वाली सबसे डरावनी आवाजों में उन झुनझुनों की आवाजों को भी शामिल किया जा सकता है जो रैटल स्नेक की पूंछ से निकलती हैं।
इस आवाज की रुनझुन हमें हमेशा मौत का अहसास करा देती है और हमारे अंदर छिपा बैठा एक आदिम जोर-जोर से चीखकर कहने लगता है कि भाग यहां से। भाग जा यहां से। हो सकता है कि हमने वो आवाज पहले कभी नहीं सुनी हो। लेकिन, वो हमें डरा देती है।
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लुप्त होती प्रजाति
जंगल में गूंजने वाली कुछ ऐसी ही आवाजों में शेर की दहाड़ भी शामिल है। शेर की दहाड़ सुनकर भी पूरा जंगल कांप उठता है। यह आवाज इतनी बुलंद होती है कि पांच किलोमीटर दूर से भी सुनाई पड़ती है। यह एक तरह की चेतावनी है।
यहां पर हम इस पर गौर करेंगे कि आखिर शेर दहाड़ते क्यों हैं। आखिर उन्हें इसकी जरूरत क्या है। दूसरी बड़ी बिल्लियों और शेर की दहाड़ में आखिर क्या अंतर है।
हाल ही में अफ्रीकी देश नामीबिया से लाकर कुछ चीते भारत के कूनो नेशनल पार्क में बसाए गए हैं। चीते कभी भारत के एक बड़े भू-भाग में स्वच्छंद विचरण करते थे।
लेकिन, शिकार में इस्तेमाल के लिए उन्हें ज्यादा से ज्यादा पालतू बनाने, पाल्य अवस्था में उनकी मिलन नहीं करने की आदत और इसके चलते उनकी नई संतानें नहीं पैदा होने, खुद चीतों का शिकार और पर्यावास के समाप्त होने के चलते देश की आजादी के तत्काल बाद चीते विलुप्त हो गए।
वर्ष 1952 में आधिकारिक तौर पर भी यह मान लिया गया कि चीते भारत से विलुप्त हो चुके हैं। इसके बाद भी यदा-कदा चीतों को देखे जाने की बात कही जाती रही लेकिन इसे पुष्ट नहीं किया जा सका। जबकि, चीतों को भारत की धरती पर दोबारा बसाने का भी प्रयास किया जाता रहा। लेकिन, इसे खास कामयाबी नहीं मिली।
इसके पीछे मुख्यतः दो कारण रहे हैं। पहला तो यह है कि भारत में एशियाई चीते पाए जाते थे। अफ्रीकी चीतों से यह एक अलग प्रजाति है जो भारतीय उप महाद्वीप और ईरान आदि में रहने के लिए अनुकूलित थी।
इस प्रजाति के चीते अब सिर्फ ईरान में ही बचे हैं और वहां भी इनकी संख्या सौ से कम ही आंकी जाती है। ईरान पर लगे तमाम तरह के प्रतिबंधों के चलते इनके संरक्षण के खास प्रयास भी नहीं किए जा रहे हैं और माना जाता है कि इस धरा से एशियाई चीतों के विलुप्त होने में बस कुछ ही सालों का वक्त बचा हुआ है।
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शिकार का हुनर
अगर भारत में दोबारा चीतों को बसाना ही है तो उसके लिए एशियाई चीते बेहतर विकल्प साबित होते। लेकिन, एशियाई चीतों की इतनी कम संख्या और इस दिशा में बात खास आगे नहीं बढ़ पाने के चलते ऐसा हो पाना संभव नहीं हो सका।
इसके अलावा कुछ पाल्य अवस्था में रहे चीतों को लाकर भी बसाने का प्रयास किया जा चुका है, जिसे खास सफलता नहीं मिली है। इस बार नामीबिया से चीते लाए गए हैं। जिनके बारे में वन्यजीव विशेषज्ञों का यह कहना है कि शायद वे भारत की आबोहवा के साथ अनुकूलित नहीं हो सकें और एक बड़े से बाड़े के कैदी ही होकर रह जाएं। खैर, चीतों के भारत में सर्वाइवल से जुड़े प्रश्नों का उत्तर तो अभी भविष्य को देना है।
लेकिन, नामीबिया से भारत लाए गए चीतों के पहले कुछ वीडियो जब जारी किए गए तो इस पर कुछ लोगों की तरफ से सवाल उठाए गए कि आखिर यह चीते दहाड़ क्यों नहीं रहे हैं। भारत की धरती पर आते ही इनकी आवाज को क्या हो गया। ये बिल्लियों की तरह म्याऊं-म्याऊं क्यों करने लगे हैं।
इस वाकये को लेकर प्रहसन तो बहुत हुआ, आरोप-प्रत्यारोप भी बहुत लगाए गए। राजनीतिक बयानबाजी और फायदा उठाने के प्रयास भी किए गए। लेकिन, इन सबके बीच में यह सवाल कहीं गुम होकर रह गया कि आखिर शेर दहाड़ते क्यों हैं। तो यहां पर हम इसी सवाल पर ध्यान केन्द्रित करेंगे।
दुनिया के सभी महाद्वीपों में बिल्लियां पाई जाती हैं। (ऑस्ट्रेलिया का केस अलग है। वहां पर वे बाद में पहुंची हैं)। वे शिकारी होती हैं। मांसाहार ही उनका आहार होता हैं।
चूं कि शिकार करना कभी आसान नहीं होता है, क्योंकि कुदरत जिस तरह शिकारी के हुनर को मांझती रहती है, उसी प्रकार वो शिकार के हुनर को भी तराशती है।
इसलिए सबसे ज्यादा चुस्त-चौकस और दमदार ही जंगल में बचे रह पाते हैं। चाहे वे शिकारी हों या फिर शिकार। इसलिए सभी बिल्लियों ने अपने को ज्यादा से ज्यादा अनुकूलित बनाने के लिए अनोखे तरीके ईजाद किए हुए हैं। बिल्ली की हर प्रजाति अपने अंदर अनूठी काबिलियत लेकर चलती है।
बिल्ली परिवार
शेरों ने भी अपने आप को खास तरीके से अनूकूलित किया है। उनके जीवन जैसी विशेषताएं अन्य बिल्लियों में नहीं मिलती है। वो विशेषता जितना उनके शारीरिक आकार-प्रकार और क्षमताओं में है, उतना ही उसके पारिवारिक संबंधों में है। जो कि उनकी ताकत को कई गुना बढ़ा देती है।
शेर वास्तविक अर्थों में एक खास तरह के पारिवारिक समूह में रहते हैं। इस तरह से कोई दूसरी बिल्ली नहीं रहती। खासतौर पर बड़ी बिल्लियों में ऐसे पारिवारिक समूह नहीं दिखते हैं। हाल के दिनों में प्यूमा और चीतों को कुछ हद तक एक टीम बनाते हुए देखा गया है। लेकिन, उनका पारिवारिक ढांचा शेरों के जैसा बिलकुल नहीं होता है।
यह कहावत बिलकुल ही झूठी है कि शेर अकेला चलता है। शेर कभी भी अकेला नहीं चलता है। वो हमेशा अपने झुंड या परिवार में रहता है। शेरों के झुंड को प्राइड कहा जाता है।
यह कहावत भी पूरी तरह से गलत है कि इलाका तो कुत्तों का होता है। शेर तो जहां जाता है वहां अपना इलाका खुद बना लेता है। दरअसल, यह सब कुछ फिल्मी संवादों के अलावा कुछ नहीं है। इसमें सच्चाई नहीं है। शेर एक विशेष इलाके में रहते हैं और अपने इलाके की रक्षा के लिए लड़-मरना भी पसंद करते हैं।
थोड़ी बातें शेरों के पारिवारिक ढांचे पर। आमतौर पर शेरों के प्राइड में एक या एक से ज्यादा बालिग नर होते हैं। यह बालिग प्रभुत्वशाली नर अपने डील-डौल और गले के पास मौजूद अयालों से दूर से ही पहचाना जाता है।
इन्हीं अयालों के चलते उसे बब्बर शेर भी कहा जाता है। यह अपने परिवार का मुखिया होता है। परिवार और इलाके की रक्षा का दायित्व इसका है। इसके अलावा, प्राईड में चार-पांच या ज्यादा शेरनियां होती हैं। बड़े डील-डौल, भारी-भरकम शरीर और अयालों के चलते आमतौर पर शेर कम ही शिकार करते हैं।
केवल अफ्रीकी भैंसे, जिराफ, हाथी, गैंडे या दरियाई घोड़े को काबू करते समय ही वे अपनी भूमिका निभाते हैं। शिकार आमतौर पर शेरनियां करती हैं। वे किसी टीम की तरह शिकार को घेरती हैं, कोई शेरनी उसे खदेड़ती है तो कोई शेरनी उसे दबोच लेती है। अपने मजबूत पंजों से वे शिकार के ऊपर संतुलन बना लेती है। उनके लंबे नाखून शिकार के शरीर में घुस जाते हैं।
शेरनी और शिकार
वे अपने लंबे कैनाइन दांतों से शिकार का गला पकड़ती हैं और उसकी श्वांसनली को पंक्चर कर देती हैं। शिकार का दम घुट जाता है। कई बार शिकार बड़ा होता है और शेरनियां उसे पकड़ तो लेती हैं लेकिन उसे मार नहीं पाती हैं। ऐसी स्थिति में शेर के भारी-भरकम शरीर और उसकी ताकत काम आती है।
शिकार का पूरा काम शेरनियों द्वारा किए जाने के बावजूद खाने पर सबसे पहला हक शेरों का होता है। शेरनियां उसके बाद खाती हैं। शेर और शेरनी के अलावा प्राइड में कई सारे बच्चे हो सकते हैं। इनकी उम्र भी अलग-अलग हो सकती है।
ये अलग-अलग माताओं की संतानें हो सकती हैं। लेकिन, ध्यान रहे कि प्राइड में मौजूद सभी मादा बच्चों को हमेशा के लिए इसी प्राइड का हिस्सा रहना है, नर बच्चों को बालिग होने के साथ ही प्राइड से बाहर कर दिया जाता है। किसी भी प्राइड में मौजूद सभी मादाएं आपस में रिश्तेदार होती हैं। वे आपस में बहनें, बेटियां, माएं, नानियां, मौसियां आदि होती हैं। जबकि, नर बाहर से आता है।
प्राइड में पैदा होने वाले नरों को बाहर कर दिया जाता है और मादाओं को अपने साथ बनाए रखा जाता है। इससे प्राइड के अंदर अंतः प्रजनन के खतरों को कुछ कम किया जाता है। यह नैसर्गिक तौर पर होता है। प्राइड में नर के बाहर से आने के चलते नए जीन भी बाहर से प्राइड में आते हैं और इसका फायदा सभी को मिलता है।
फिर, उन बालिग हो रहे युवा शेरों का क्या होता है, जिन्हें उनके प्राइड से बाहर खदेड़ दिया जाता है। इन युवा शेरों की हालत किसी आवारा जैसी हो जाती है। शेरों की जिंदगी उनके प्राइड के बिना कुछ भी नहीं। किसी प्राइड के साथ रहकर ही वे सबसे ज्यादा खुश रहते हैं और इसी से उनकी जिंदगी की गाड़ी भी चलती है। लेकिन, युवा नरों को उनके अपने ही झुंड से बाहर खदेड़ दिया जाता है।
किसी भी दूसरे झुंड के करीब जाने पर उन्हें अपनी जान खोने का खतरा रहता है। ऐसे में वे जंगल में चुपचाप आवारागर्दी करते हैं। कोशिश करते हैं कि उनकी मौजूदगी ज्यादा जाहिर न हो। उनका अस्तित्व बना रहे और किसी को पता भी नहीं चले। अक्सर ही वे दूसरे झुंडों के मारे हुए शिकार पर बिना किसी को खबर किए चुपचाप जीवन यापन करते हैं। शिकार भी करते हैं तो इस तरह से ताकि उस इलाके के झुंड को इसका पता नहीं चले।
छलावरण (केमोफ्लाज़)
ऐसे ही आवारा नर के साथ कई बार दूसरे झुंड से खदेड़ा हुआ कोई और युवा नर भी आकर मिल जाता है। इससे उनकी एक टीम बन जाती है। आवारा नर जंगल में इधर-उधर घूमते हुए, विचरण करते हुए खुद को ज्यादा से ज्यादा ताकतवर बनाने की कोशिश करते हैं। जब-जब उन्हें लगता है कि वे अब ताकतवर हो गए हैं तो वे किसी प्राइड पर कब्जा करने का प्रयास करते हैं।
लेकिन, किसी झुंड पर कब्जा करने में सबसे बड़ी बाधा वहां मौजूद प्रभुत्वशाली नर होते हैं। यह प्रभुत्वशाली नर अपना परिवार और मुखिया की अपनी गद्दी बचाने का पूरा प्रयास करता है।
दरअसल, प्रभुत्वशाली नर के लिए भी यह सवाल उसके जीवन-मरण का ही होता है। क्योंकि, एक बार अगर उसके झुंड पर किसी अन्य का कब्जा हो गया तो इसका मतलब है कि उसका बाकी का जीवन अब धीरे-धीरे एक ठंडी और दर्दनाक मौत की तरफ ही बढ़ने वाला है। इसलिए वह अपनी बादशाहत की रक्षा पूरा जोर लगाकर करता है।
आप जरा गौर से देखिए। जंगल में हर कोई खुद को छिपाने में लगा होता है। छलावरण जंगल के जीवों का एक विशेष गुण होता है। वे अपने परिवेश में इस तरह से घुल-मिल जाते हैं कि किसी को नजर भी नहीं आते हैं।
शिकारी अपने शिकार तक पहुंचने के लिए छलावरण का तरीका अपनाता है तो शिकार अपने शिकारी से बचने के लिए इसी का फायदा उठाता है। बहुत ही कम जानवर ऐसे होते हैं जो अपनी मौजूदगी का ऐलान इस तरह से करते हैं, जैसा कि शेर करते हैं।
बाघ या टाइगर शेर से ज्यादा ताकतवर और ज्यादा वजन वाले हो सकते हैं। लेकिन, वे अकेले रहने वाले प्राणी हैं। वे महीनों जंगल में अकेले घूमते रह सकते हैं। जंगल में वे अपने निशान छोड़ते हुए चलते हैं। इससे उन्हें एक दूसरे की मौजूदगी का अहसास होता रहता है।
आमतौर पर बाघ और बाघिन मिलन के समय ही साथ रहते हैं। फिर नर बाघ अपनी रहस्यमयी और अकेली दुनिया में लौट जाता है। इधर बाघिन के साथ उसके बच्चे तब तक रहते हैं जब तक कि वे खुद शिकार करने लायक नहीं हो जाएं। शिकार करने लायक होते ही बाघिन अपने बच्चों को छोड़कर चली जाती है। एक ही बाघिन के कुछ बच्चे यानी भाई-बहन, हो सकता है कि कुछ दिनों तक साथ रहें, लेकिन फिर वे भी अपना-अपना रास्ता पकड़ लेते हैं।
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अकेले रहना पसंद
यानी कुल मिलाकर यही कि वे अकेले रहना पसंद करते हैं। कोई झुंड या प्राइड बनाने की उनकी फितरत नहीं है। बाघों की गर्जना भी जंगल में दूर-दूर तक गूंजती है।
लेकिन, यह शेर की दहाड़ जैसी नहीं होती है। शेर अपनी जोरदार आवाज में जोर-जोर से दहाड़कर दूर-दूर तक चेतावनी भेजते हैं। झुंड में शेरनियों का काम तो शिकार करना होता है। लेकिन, शेरों का काम भी कम जोखिम और मेहनत वाला नहीं। शेर को लगभग हर दिन ही अपने इलाके की निशानदेही के लिए वहां पर अपनी मौजूदगी के निशान छोड़ने होते हैं।
ताकि, बाहर से आने वाला कोई भी शेर खबरदार हो जाए कि वह किसी दूसरे के इलाके में प्रवेश कर रहा है और ऐसा करना उसके लिए भारी पड़ सकता है।
शेर दहाड़-दहाड़ कर पूरे जंगल में अपनी मौजूदगी का ऐलान करते हैं। उनकी दहाड़ पांच किलोमीटर दूर तक सुनाई पड़ती है। उनकी आवाज सुनकर झुंड पर कब्जा करने की फिराक में घूमने वाले युवा आवारा नरों के होश फाख्ता हो जाते हैं। उन्हें पता चल जाता है कि झुंड का मुखिया मौजूद है और वह बहुत ताकतवर भी है।
लेकिन, अगर इस दहाड़ से उन्हें किसी कमजोरी का पता चलता है, यह लगता है कि मुखिया अब कमजोर हो चला है, वह बूढ़ा हो चला है तो वे झुंड पर कब्जा करने की तरफ बढ़ जाते हैं।
आवारा नरों के आने पर मुखिया शेर जान पर खेलकर अपनी बादशाहत की रक्षा करते हैं। क्योंकि, इसी पर खुद उनका और उनके बच्चों का भविष्य टिका होता है। पहले तो वह चुनौती देने वाले नरों को डरा-धमका कर भगाने की कोशिश करता है। कई बार इससे काम चल जाता है। लेकिन, कई बार इससे काम नहीं चलता।
आवारा नरों को भी वह सबकुछ चाहिए जो अभी तक मुखिया के पास है। वे अपनी जान पर खेलने को तैयार है। दोनों के बीच मुकाबला होता है। मुखिया या राजा अगर ताकतवर हुआ तो आवारा नरों को वहां से भागना पड़ेगा। वे भाग खड़े होंगे और फिर से अपनी ताकत इकट्ठा करेंगे। फिर किसी और प्राइड के राजा से उसकी गद्दी छीनने का प्रयास करेंगे।
जबकि, अगर राजा हार गया तो वह अपने जीवन की लड़ाई भी हार जाता है। घायल और कमजोर राजा को अपनी जान बचाकर वहां से भागना पड़ता है। उसका बाकी का जीवन अपने अतीत की छायाओं जैसा भी नहीं रह जाता। कमजोर, बूढ़ा और घायल शेर अकेलेपन में दम तोड़ देता है।
शेर आखिर बच्चों को मार क्यों देते हैं?
एक राजा की गुमशुदा मौत हो जाती है। कोई उसे याद नहीं करता है। वो भुला दिया जाता है। जबकि, जीत हासिल करने वाले आवारा नरों का झुंड का कब्जा होते ही प्राइड के बच्चों की भी जान पर बन आती है। प्राइड का राजा बनते ही आवारा नर प्राइड में मौजूद बच्चों को मार देते हैं। शेरनियां अपने बच्चों की जान बचाने की कोशिश करती हैं।
लेकिन, ताकतवर शेर के आगे अंततः उन्हें हार मान लेनी पड़ती है। सवाल उठ सकता है कि शेर आखिर बच्चों को मार क्यों देते हैं। राजा की गद्दी छीनने वाले आवारा नर अब खुद राज करना चाहते हैं। वो चाहते हैं कि उन्हें वे सभी अधिकार तुरंत मिल जाएं जो अभी तक राजा को हासिल थे। इसमें ये मादाएं भी शामिल हैं। छोटे बच्चों के चलते शेरनियां मिलन के लिए तैयार नहीं होती हैं।
दूसरे, ये छोटे बच्चे इससे पहले वाले मुखिया के बच्चे होते हैं। इसलिए आवारा नरों को उनसे कोई लगाव नहीं होता है। बच्चों की मौत के बाद शेरनियां फिर से मिलन के लिए तैयार हो जाती हैं और आवारा नरों को मिलन का अधिकार हासिल हो जाता है।
इसलिए प्राइड के किसी शेर के मारे जाने का मतलब है कि उस प्राइड के सभी बच्चों की भी जान जाने वाली है। शेरों के बहुत सारे बच्चे इसी तरह से मारे जाते हैं। उन्हें अपना जीवन बिताने का मौका नहीं मिलता है। जबकि, शेरों में सत्ताहस्तांरण भी इन्ही खूनी लड़ाइयों के जरिए होता है। इसमें भी उनकी जान जाती है।
इसलिए शेरों की दहाड़ में अपनी बादशाहद छिन जाने के डर से डरे हुए राजा की पुकार भी छिपी रहती है। वो डरता है कि कहीं कोई आकर उसकी बादशाहत छीन न ले। इसलिए वो लगभग हर रोज अपने इलाके की निशानदेही करता है और वहां पर अपनी गंध छोड़ देता है। वो लगभग हर रोज दहाड़ता है और आसपास के सभी शेरों को चेतावनी देता है कि वो वहां पर मौजूद है और उसकी ताकत बनी हुई है। कोई उससे पंगा लेने की कोशिश नहीं करे।
शेरनियों को भी पता होता है कि झुंड के किसी अन्य मुखिया के काबिज होने का मतलब है कि उनके बच्चों की मौत। मुखिया उन्हें और उनके बच्चों को संरक्षण देता है। बदले में वे शिकार करती हैं और सबसे पहले उसे खाने का हक देती हैं।
शेरों की इस दहाड़ ने उनकी जान लेने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। बाकी जानवर जहां अपने आपको जंगल में छिपाने की कोशिश में जुटे रहते हैं। वहीं, शेर अपनी होने का ऐलान करते हैं। इसके चलते उनका शिकार करना भी आसान हो जाता है। एक समय में भारत के एक बड़े हिस्से में शेर पाए जाते थे। लेकिन, पता नहीं कैसे शेरों के शिकार को बहादुरी का प्रतीक बना दिया गया।
शेर के खाल की शौक की वजह
एक समय ऐसा था कि जब हर अंग्रेज अधिकारी, हर राजा, हर नवाब, जमींदार अपनी बैठक की दीवार पर किसी शेर का मढ़ा हुआ सिर टांगना चाहता था। यह उसके लिए कोई बड़ी ट्राफी जैसा था। जिसे वो सजाना चाहता था। वैसे ही जैसे सैनिक अपने सीने पर वीरता के पदक सजाते हैं। शेर की खाल और उसके मढ़े हुए शरीर को वे वैसे ही सजाकर रखते थे।
समझ ही सकते हैं कि जब शिकार की ऐसी हवस जगी हो तो किसी प्रजाति का अस्तित्व कैसे बचा रह सकता है। शेरों की दहाड़ उनकी मौजूदगी का हवाला दे देती थी।
राजा-नवाब या अंग्रेज अफसर सैकड़ों लोगों के अपने काफिले के साथ उन्हें घेर लेते थे और मार देते थे। झुंड में रहने के चलते एक बार में पूरा का पूरा झुंड मार दिया जाता था। कोई अकेला शेर अगर बचा भी तो उसकी जिंदगी का कोई मतलब बचता नहीं था।
क्योंकि, शेर का अस्तित्व परिवार में ही है। वो परिवार के बिना कुछ नहीं है। एक अकेला शेर भी कुछ दिनों में मौत का शिकार हो जाता है। इस तरह से हम देख सकते हैं कि शेर की दहाड़ जहां दुश्मनों को उससे दूर रखती है तो उसकी जान लेने का सामान भी मुहैया कराती है।
प्रसंगवश, यह भी जान लें कि भारत में शेरों की आबादी लगभग समाप्त हो चुकी थी। कहा जाता है कि वे बीस से भी कम संख्या में बचे थे। जब नवाब जूनागढ़ ने उनके शिकार पर रोक लगा दी।
संरक्षण के लगभग डेढ़ सौ सालों से चल रही प्रक्रिया के चलते आज गिर में एशियाई शेरों की संख्या बढ़ी है और उन्हें एक नए घर की जरूरत भी है। हालांकि, शेरों कि जिंदगियां भी हमारे यहां की राजनीति से अछूती नहीं हैं।
इसलिए इस मुद्दे पर फिर कभी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पर्यावरण पर दिलचस्प तरीके से लिखते रहे हैं। उनकी एक बहुत बहुचर्चित किताब है चीताः भारतीय जंगलों का गुम शहजादा।)
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