क्यों वन संरक्षण अधिनियम -2023 जंगल बचाने का नहीं जंगल बेचने का कानून है ?
26 जुलाई को लोकसभा में मणिपुर में फैले हिंसा के बहस के बीच वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम-2023 (FCA -2023 ) पारित कर दिया गया.
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने इस बिल को संसद के समक्ष पेश किया. ज्ञात हो की इस साल के बजट सत्र के दौरान ही इस संशोधन बिल को संसद में लाया गया था. जिसके बाद संयुक्त संसदीय समिति(JPC ) द्वारा मंजूरी मिलने के बाद इसे पारित कर दिया गया.
पुराने बिल से क्या अलग है इसमें
वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2023 के तहत संस्थाओं को वन भूमि के आरक्षण को रद्द करने और अन्य उद्देश्यों के लिए वन भूमि के उपयोग के लिए केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति लेने की आवश्यकता को अनिवार्य कर दिया गया है.
विधेयक पेश करने से पहले सरकार ने दावा किया कि नए पर्यावरणीय मुद्दों और राजनीतिक प्राथमिकताओं में कानूनी बदलाव की जरूरत है.
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव के बताया की 2070 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य तक पहुंचना हमारी प्राथमिकता है.
भूपेंद्र यादव ने बताया ” यह विधेयक सीमावर्ती क्षेत्र में सुरक्षा स्थिति को देखते हुए, बुनियादी ढांचे के निर्माण को सुरक्षित करने के लिए रणनीतिक और सुरक्षा संबंधी परियोजनाओं पर प्रकाश डालता है. इस विधेयक से अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के पास और वामपंथी उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में विकास के नए मार्ग खुलेंगे”.
इस विधेयक के पक्ष में तर्क देते हुए मंत्री ने कहा कि महत्वपूर्ण राजमार्गों, अन्य सार्वजनिक उपयोगिताओं और सार्वजनिक सड़क मार्गों, रेलवे लाइनों के साथ छोटे प्रतिष्ठानों और बस्तियों तक सरकारी पहुँच प्रदान करना आवश्यक था और यह कानून उन सब जरूरतों को पूरा करने वाला साबित होगा. इसके साथ ही पूर्व विधेयक में दी गई कई कानूनी चुनौतियों को रोकने के भी प्रावधान इस विधेयक में है.
हालांकि कई राज्य सरकारों और सिविल सोसाइटी ने विधेयक को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज करते हुए कहा की नया कानून वनों की कटाई को रोकने पर सुप्रीम कोर्ट के 1996 के फैसले का उल्लंघन करता है.
वही पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी कार्य करने वाली कई संस्थाओं ने तर्क दिया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा परियोजनाओं के नाम पर वन भूमि का उपयोग करना और चिड़ियाघरों सहित अन्य परियोजनाओं के लिए छूट देना, उन क्षेत्रों में निवास कर रहे जीवों और वनस्पतियों को प्रभावित कर सकता है.
ये बिल सीमावर्ती इलाकों के मूल निवासियों के अधिकारों को मिटा देगा
हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कई संगठनों और लोगों ने वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 (एफसीए) के कई प्रावधानों को लेकर अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा की यह बिल भारत की सीमाओं पर रहने वाले मूल वासियों / आदिवासी समुदायों के अधिकारों को मिटा देगा.
यूथ फॉर हिमालय संगठन द्वारा विधेयक को लेकर आयोजित संवाद कार्यक्रम के लिए एकत्र हुए कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने चिंता व्यक्त करते हुए विधेयक के प्रावधानों को अस्पष्ट बताया साथ ही यह भी कहा की विधेयक नाजुक वन भूमि और पहाड़ों के दोहन का मार्ग प्रशस्त करता है.
पर्यावरण संरक्षण से जुडी कई संस्थाओं का कहना है की “नया कानून कई गतिविधियों को वन मंजूरी(फारेस्ट क्लियरेंस) की आवश्यकता से छूट देता है. जिसके अंतर्गत सड़कों और रेल लाइनों के साथ 0.10 हेक्टेयर तक की वन भूमि पर किसी तरह के रक्षा से संबंधित या सार्वजनिक उपयोगिता परियोजनाओं का निर्माण शामिल है। यह बिल रणनीतिक परियोजनाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय सीमा / नियंत्रण रेखा / वास्तविक नियंत्रण रेखा से 100 किलोमीटर के भीतर वन भूमि को भी इस छूट के अंतर्गत रखता है.
कई कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया की कश्मीर और लगभग पूरा पूर्वोत्तर भारत इस 100 किलोमीटर के दायरे में आता है. उन्होंने अनुच्छेद 371 को कमजोर किए जाने की संभावना पर भी चिंता जताई, जिसमें कुछ राज्यों के लिए विशेष प्रावधान के साथ-साथ संविधान की छठी अनुसूची भी शामिल है.
नार्थ ईस्ट को बर्बादी कि राह पर ले जायेगा नया बिल
असम के काजीरंगा की मिसिंग जनजाति के एक राजनीतिक कार्यकर्ता प्रणब डोले ने कहा “पूर्वोत्तर के लोगों के पास अनुच्छेद 371, संविधान की छठी अनुसूची और अन्य विशेष दर्जा हैं जो हमें अपनी भूमि के संबंध में निर्णय लेने के अधिकार देता है. लेकिन यह विधेयक उन अधिकारों का हनन है. यह विधेयक पूंजीपतियों के बड़े उद्योगों के लिए पूर्वोत्तर के राह खोलने वाला कानून है “.
स्पीति सिविल सोसाइटी, हिमाचल प्रदेश के अध्यक्ष तकपा तेनजिन ने बताया कि “प्रस्तावित संशोधन अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 के विपरीत हैं, जो रणनीतिक परियोजनाओं को परिभाषित नहीं करते हैं साथ ही साथ संशोधन में हमारी भूमि तक बाहरी पहुँच को लेकर हमारी सहमति को भी नकारती है”.
मालूम हो की तीस्ता नदी पर एनएचपीसी द्वारा प्रस्तावित तीस्ता स्टेज-4520 मेगावाट के पावर प्रोजेक्ट को इस परिजोजना से प्रभावित लोगों के मंच एसीटी के भारी विरोध के बाद ग्राम सभा ने मंजूरी देने से रोक दिया था.
सिक्किम इंडिजिनस लेप्चा ट्राइबल एसोसिएशन के अध्यक्ष और एसीटी के महासचिव मायलमित लेप्चा ने कहा, ‘ एफसीए-2023 विधेयक भूमि लेने के सम्बन्ध में ग्राम सभा के परामर्श की आवश्यकता को समाप्त कर देता है ,जिसके बाद हमारे लिए अपनी जमीनें बचा पाना बहुत मुश्किल होगा.
जीवन को मुश्किल बनाने वाला कानून
जम्मू-कश्मीर आरटीआई मूवमेंट के संस्थापक और वन अधिकार गठबंधन, जम्मू-कश्मीर के सदस्य शेख गुलाम रसूल ने कहा कि “जम्मू और कश्मीर में पशुपालकों को चारागाह की जमीनों से पहले बेदखल कर दिया गया है. चरवाहों को पहले ही ये कह कर रोका जाता रहा है की है कि वे भूमि को प्रदूषित कर रहे है,भूमि संरक्षित क्षेत्रों के भीतर है. अब तो रणनीतिक उदेश्यों के पूर्ति के नाम पर और जमीनों को छिना जायेगा. ये एक बड़े समुदाय के जीवन को और मुश्किल बनाने वाला कानून है”.
विधेयक में कहा गया है कि एफसीए केवल 25 अक्टूबर, 1980 को या उसके बाद सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज क्षेत्रों पर लागू होगा. पर्यावरणविदों ने कहा कि यह टीएन गोडावर्मन बनाम भारत संघ और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1996 के फैसले को अमान्य कर देगा.
जोशीमठ जैसी घटनाएं आम हो जाएँगी
चार धाम राजमार्ग परियोजना पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त उच्चाधिकार प्राप्त समिति के पूर्व अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने कहा कि “टनकपुर से पिथौरागढ़ मार्ग में, लगभग 102 संवेदनशील क्षेत्रों का सामना करना पड़ा.पहले दो वर्षों में, आधे से अधिक स्थानों पर भूस्खलन हुआ था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि आवश्यक भूवैज्ञानिक जांच नहीं हुई थी”.
आगे उन्होंने कहा कि रेलवे, सड़क और बिजली ट्रांसमिशन जैसी परियोजनाओं के लिए सुरंगों की आवश्यकता होती है. सुरंगों के लिए विस्फोट करने से पहाड़ों में दरारें पड़ जाती हैं, जिससे जोशीमठ डूबने जैसी आपदाएं आती हैं. नया अध्यादेश इन परियोजनाओं में लगी कंपनियों को कई फारेस्ट क्लिअरेंस को बाईपास करने कि छूट देती है. पहले से आपदाओं कि मार झेल रहे पहाड़ी इलाकों कि हालत और बुरी हो जाएगी.जोशीमठ जैसी स्थिति इन इलाकों में आम हो जाएँगी”.
(डाउन टू अर्थ कि खबर से साभार)
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