कार्पोरेट घरानों के लिए संसद में आधी रात बिल पास हो सकता है तो किसानों के लिए क्यों नहींः पी साईनाथ
दिल्ली में दो दिन तक देश भर के किसानों का जमावड़ा होने जा रहा है। 29 नवंबर को हज़ारों किसान दिल्ली के रामलीला मैदान में इकट्ठा होंगे।
30 नवंबर को ये सारे किसान संसद की ओर, विशेष सत्र बुलाने की मांग को लेकर कूच करेंगे।
पानी और कृषि संकट पर लंबे समय से काम करने वाले प्रबुद्ध पत्रकार, अर्थशास्त्री और एक्टिविस्ट पी साईनाथ किसानों के लिए समर्थन जुटाने दिल्ली में हैं।
पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्रों और शिक्षकों से बात करने पहुंचे पी साईनाथ से, सभा से इतर इस पूरे मसल पर संतोष कुमार ने बात की-
प्रश्नः 29-30 नवंबर को देश भर के किसान मुक्ति मार्च करते हुए दिल्ली पहुंच रहे हैं। इसके बारे में बताएं।
उत्तरः 29 नवंबर को किसान दिल्ली के चारों कोनों से मार्च करते हुए रामलीला मैदान पहुंचेंगे। उत्तर, पूर्व, पश्चिम और दक्षिणी बॉर्डर से क़रीब 20 से 50 किलोमीटर दूर से यात्रा शुरू होगी। इसी दिन शाम को ऑल इंडिया किसान संघर्ष कोऑर्डिनेशन कमेटी ने ‘एक शाम किसान के नाम‘ सांस्कृतिक कार्यक्रम का आह्वान किया है। ये कमेटी 200 किसान संगठनों का मंच है। दूसरे दिन 30 नवंबर को रामलीला मैदान में इकट्ठा सभी किसान संसद की ओर कूच करेंगे, इस मांग के साथ कि खेती के संकट और इससे संबंधित मुद्दों पर संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए। इसी सत्र में या अगले सत्र में।
वीडियो देखेंः खेती किसानी के संकट पर पी साईनाथ का भाषण
ऑल इंडिया कमेटी ने दो बिल प्रस्तावित किए हैं- एक न्यूनतम समर्थन मूल्य पर है और दूसरा कर्ज़ माफ़ी पर। किसान चाहते हैं कि संसद में तीन सप्ताह का विशेष सत्र बुलाया जाए, सिर्फ इन दो बिलों को पास करने से ही काम नहीं चलेगा। क्योंकि खेती किसानी के संकट की राजनीति, इसे प्रभावित करने वाली नीति बहुत बड़ी है।
पहले तीन दिन स्वामिनाथन कमेटी की रिपोर्ट पर चर्चा हो, दूसरे तीन दिन ऋण संकट और कर्ज माफ़ी पर चर्चा हो। तीसरे तीन दिन देश में गंभीर हो चुके पानी संकट पर चर्चा हो और महिला किसानों को ज़मीनों पर क़ानूनी अधिकार दिए जाने पर चर्चा हो। इसी तरह दलित और आदिवासी किसानों को ज़मीन का अधिकार दिए जाने पर और आगे किस तरह की खेती चाहते हैं, इस पर चर्चा हो। इसके अलावा कृषि संकट के पीड़ितों को संसद के केंद्रीय सभागार में बुलाया जाए और वो देश को बताएं कि खेती किसानी का संकट कितना गहरा है।
प्रश्नः कृषि संकट है, इस बात से शायद ही किसी को इनकार हो। लेकिन ये कितना गंभीर और गहरा है?
उत्तरः मराठवाड़ा, विदर्भ, नासिक, तेलंगाना, उत्तरी कर्नाटक जैसे देश के तमाम इलाकों में किसानों के बेटे बेटियां कॉलेज और विश्विद्यालय से पढ़ाई छोड़ने पर मज़बूर हो रहे हैं। पुणे जैसे शहर में सैकड़ों बच्चे इस बात से महीनों से परेशान हैं कि वो फ़ीस, हॉस्टल और मेस का पैसा कहां से देंगे। क्योंकि उनके मां बाप के पास पैसे नहीं हैं। ये इसलिए है क्योंकि पूरे इलाके में सूखे की स्थिति है और फसल नहीं हुई, बल्कि उनके सामने आजीविका का संकट पैदा हो गया है।
पूरे देश के विभिन्न इलाकों में अलग अलग कारणों से किसानों की ये स्थिति बनी है। स्थितियां इतनी भयावह हो गई हैं कि पिछले दो सालों से भारत सरकार ने किसान आत्महत्या के आंकड़े प्रकाशित करना ही बंद कर दिया है। 2015 तक तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके थे।
कृषि कर्ज का संकट इतना गहरा गया है, उसका कारण है कि छोटे किसानों को दी जाने वाले कर्ज सुविधा को कृषि उद्योग चलाने वाले कार्पोरेट घरानों की ओर मोड़ दिया गया है। एक छोटे किसान को कर्ज़ नहीं मिल सकता लेकिन वही कर्ज़, कार्पोरेट घरानों को खेती के लिया दिया जा रहा है। इसने संकट को और जटिल बना दिया है।
प्रश्नः इस मार्च से कितना फ़र्क पड़ेगा?
उत्तरः इस ‘किसान मुक्ति मार्च‘ से फ़र्क पड़ेगा। जैसा आप जानते हैं कि सितम्बर में पहली बार एक विशाल रैली हुई जिसमें औद्योगिक मज़दूर, किसान, खेतिहर मज़दूर, आंगनवाड़ी कर्मचारी साथ आए। अब समय आ गया है कि मध्यवर्ग भी उनके साथ आकर खड़ा हो।
इसी साल मार्च में मुंबई में किसानों की विशाल पैदल यात्रा हुई थी। और इस यात्रा में मुंबई के मध्यवर्ग ने बड़े उत्साह से हिस्सा लिया। थके और घायल किसानों की देखभाल के लिए मध्यवर्ग घरों से बाहर निकला और पानी, खाना, दवा, शेल्टर होम की व्यवस्था की।
36 सालों में मैंने कभी नहीं देखा कि मध्यवर्ग किसानों के लिए खुद अपने घरों से बाहर निकला हो। 10 हज़ार मध्यवर्ग किसानों के साथ आया। हमने उन्हें संगठित नहीं किया था। लेकिन वो आए, खाना, पानी, दवा पैकेट के साथ। कृषि संकट बहुत बड़ा है और समाज का हर हिस्सा इससे इससे प्रभावित है इसलिए हर हिस्से को आवाज़ बुलंद करनी होगी।
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प्रश्नः आपने पहले कहा है की यह केवल कृषि का संकट नहीं बल्कि समाज का, मानवता का और उससे बढ़ कर सभ्यता का संकट है?
उत्तरः पिछले कई सालों से कृषि संकट बद से बदतर हो रहा है। लेकिन अभी तक इस बारे में कोई पुख़्ता नीति नहीं बनी। इस मुद्दे में बुनियादी सवाल इंसाफ़ और बराबरी के हक़ का है। पिछले बीस सालों में डेढ़ करोड़ किसान खेती किसानी छोड़ चुके हैं। हर दिन 2,000 किसान खेती-बाड़ी छोड़ रहे हैं। और इतनी बड़ी आबादी बिना व्यवस्थित रोज़गार के अमानवीय हालात में रहने पर मज़बूर है। हमारे सामने सभ्यता का संकट पैदा हो गया है।
जहां एक तरफ़ ग्रामीण आबादी तबाह हो रही है और दूसरी तरफ शहरों में रोज़गार नहीं है। खेती में महिलाओं की संख्या बढ़ी है। खेती के तमाम कामों में महिलाओं की भागीदारी 60 से 90 प्रतिशत तक है। जैसे धान की खेती और पशुपालन में। और ये आबादी बहुत दयनीय हालत में है। पानी का संकट खेती से जुड़ा हुआ एक बड़ा संकट है। देश में सिंचाई का 60 प्रतिशत पानी भूमिगत जल से आ रहा है। हम अपने भूगर्भ जल को रिचार्ज तो नहीं कर पा रहे लेकिन उसका दोहन बड़े पैमाने पर कर रहे हैं। इन सब कारकों ने मिलकर वाकई एक बड़े संकट को पैदा किया है।
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प्रश्नः आज जब ग्रामीण क्षेत्र में भी गैर कृषि कार्यों की बहुतायत है और ग्रामीण क्षेत्र की बड़ी आबादी भी मज़दूरी पर निर्भर है तो इन आंदलनों और मांगों में उनके लिए क्या जगह है?
उत्तरः हमने हमेशा कहा है कि खेतिहर मज़दूर, भूमिहीन किसान, महिला खेतिहर मज़दूरों की समस्या कृषि संकट का एक मुख्य पहलू है। अभी मार्च में मुंबई में जो पैदल मार्च हुआ उसमें भूमिहीन किसान, भूमिहीन दलित किसान, भूमिहीन आदिवासी किसान और खेतिहर मज़दूर शामिल हुए थे।
प्रश्नः आपने कहा है कि पिछले 20 सालों के दौरान डेढ़ करोड़ मज़दूर खेती किसानी छोड़ चुके हैं, वो आज किन हालातों में गुज़र बसर कर रहे हैं?
उत्तरः जनगणना आंकड़ों के अनुसार, 1991 और 2011 के बीच 20 सालों में डेढ़ करोड़ किसानों ने खेती किसानी छोड़ दी। इनमें से अधिकांश खेतिहर मज़दूर बन गए।
हो क्या रहा है, किसान खेती से बाहर होकर अन्य गांवों, कस्बों, शहरों, महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। और वो ऐसा रोज़ग़ार की तलाश में कर रहे हैं जोकि न गांवों में है न शहरों-महानगरों में। यानी आपने लाखों लोगों की आजीविका छीन ली, बिना वैकल्पिक रोज़ग़ार पैदा किए।
पहले बाहरीकरण में वे गांव छोड़ देते हैं, दूसरे बाहरीकरण में उन्हें शहर के झुग्गी में धकेल दिया जाता है। और तीसरे बाहरीकरण तब होता जब स्मार्टसिटी बनती है, क्योंकि यह वस्तुतः 2.8 प्रतिशत मौजूदा शहरी लोगों की ही सेवा के लिए है।
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प्रश्नः फसल बीमा योजना को आप रफ़ाएल से भी बड़ा घोटाला मानते हैं, क्या वजह है?
उत्तरः फसल बीमा योजना में कंपनियों ने किसानों को जितना भुगतान नहीं किया उससे कई गुना उन्होंने प्रीमियम वसूला है। सरकार ने इस योजना से ग्रामीण अंचलों पर एक नई किस्म की ज़मींदारी थोप दी है। चार तालुका को एक कंपनी के हवाले, चार को दूसरे के हवाले…इस तरह कंपनियों के बीच ग्रामीण इलाकों को बांट दिया गया।
इस पूरी योजना में 18 बीमा कंपनियां शामिल हैं। इनमें तीन या चार सरकारी बीमा कंपनियां हैं जो कि ट्रोजन हॉर्स हैं। यानी पहले साल उन्हें बहुत सारा बीमा का काम दिया जाएगा और उसके बाद इनसे ठेका छीन कर उन्हें निजी बीमा कंपनियों के हवाले कर दिया जाएगा। सरकार ने ऐसे नियम बनाए कि किसी तालुका में बड़े पैमाने पर फसल बर्बाद हो तभी हर्जाने का दावा किया जा सकता है।
तो महाराष्ट्र के कई ऐसे तालुका हैं जिनके कुछ हिस्से में सूखा पड़ा। अब कंपनियां मानने को तैयार नहीं कि ये तालुका सूखाग्रस्त हैं। दूसरा उदाहरण है कि महाराष्ट्र में रिलायंस की बीमा कंपनी ने 173 करोड़ रुपये वसूले। जबकि उसने किसानों को बमुश्किल 30 करोड़ रुपये भुगतान किया और 143 करोड़ का मुनाफ़ा कमा लिया। ये सिर्फ एक कहानी है।
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प्रश्नः संसद के विशेष सत्र से आपकी क्या अपेक्षाएं हैं और उसके बाद का क्या रास्ता है?
उत्तरः जब कार्पोरेट जगत की बात आती है तो आधी रात को संसद का विशेष सत्र आमंत्रित करके जीएसटी बिल पारित किया जाता है। लेकिन कृषि संकट 25 साल से आधिक समय से जारी है, संसद में इस पर क्या और कितनी चर्चा हुई अबतक? स्वामिनाथन आयोग ने दिसम्बर 2004 में अपनी पहली रिपोर्ट सरकार को दी थी। अपनी अंतिम रिपोर्ट आयोग ने अक्टूबर 2006 में सरकार को दी।
आयोग को अपनी छह वॉल्यूम में पांच रिपोर्ट को सरकार को दिए 14 साल बीत गए। तबसे संसद में वो बिना बहस के पड़ी हुई है। इस पर एक घंटे भी चर्चा नहीं हुई। सवाल ये है कि क्या ये संसद कार्पोरेट जगत की सेवा के लिए बनी है या इस देश की आम जनता के लिए?
हमारी समझदारी है इस समय संसद सिर्फ कार्पोरेट जगत के प्रति जवाबदेह बनी हुई है। ये हमारे ऊपर है कि हम उसे अपने प्रति जवाबदेह बनाएं। इसीलिए किसान 29-30 नंबवर को मार्च कर रहे हैं।
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