क्या अमेरिका के कहने पर नरेंद्र मोदी ने बनवाया तीन कृषि क़ानून?
By कमल सिंह
किसान आंदोलन ने मोदी सरकार की बुनियाद हिला दी है। उसके फासीवादी दमन की धज्जियां उड़ा दी हैं। अमेरिका, विश्व व्यापार संगठन (WTO) और कारपोरेट पूंजीपतियों के दबाव में आरएसएस/भाजपा द्वारा लाए गए नए कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ किसान आंदोलित हैं। इन कानूनों के कारण लाखों गरीब और छोटे किसानों की ज़मीन छिन जाएगी।
इनके जरिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमसीपी) पर सरकारी खरीद समाप्त करने का रास्ता तैयार किया जा रहा है। राशन की दुकानों (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) की व्यवस्था की जगह बैंक खातों में सीधे पैसे जमा (ङीबीटी) करने के रास्ते से सरकार खाद्य सुरक्षा की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना चाहती है।
कृषि मंङियों के मुकाबले देशी-विदेशी कंपनियां छा जाएंगी। ये कंपनियां उन फसलों का ही उत्पादन करेंगी, जिनसे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा हो।
वे कृषि उत्पादों का विदेशों में निर्यात कर मुनाफा बटोरने में लगी रहेंगी, चाहे जनता भूखों मरे। खुले बाजार के नाम पर कालाबाजारी और जमाखोरी को इजाजत मिल जाएगी, खाद्यान्न महंगाई बेलगाम हो जाएगी।
शुरूआत में जनसंघ (अब भाजपा) का सामाजिक आधार शहरी मध्य वर्गीय व्यापारी और छोटे-मझोले किसान थे, हालांकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) शुरू से ही हिंदुत्व के नाम पर राजे-महाराजे, जमींदार-सामन्तों और साम्राज्यवाद का हिमायती (आज़ादी के आंदोलन के समय अंग्रेज़ी साम्रज्यवाद फिर अमेरिका और अन्य साम्राज्यवादियों का तरफदार) रहा है।
आरएसएस/भाजपा की मोदी सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी के बाद अब तीन क़ानून पारित करके कृषि क्षेत्र को कारपोरेट कंपनियों के हवाले करने का रास्ता तैयार किया है।
तीन कृषि कानून
तीन में से दो कानून नए हैं- ‘1)कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम, 2020’ और कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य अश्वासन और 2) कृषि सेवा करार अधिनियम, 2020।
तीसरा कानून जमाखोरी रोकने के लिए बने कानून में संशोधन- आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 है।
‘कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम, 2020’ कृषि मंडी समितियों (एपीएमसी) के मुकाबले देशी-विदेशी कंपनियों को खड़ा करने की योजना है। सरकार इसे ही खुला बाजार बता रही है। इन निजी मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य की बाध्यता नहीं होगी।
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के अनुसार सरकार रबी और खरीफ की फसल बोने से पहले न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है। फसल के समय किसान को अपनी फसल बेचने की जल्दी होती है। उसे घाटा नहीं हो इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद की व्यवस्था की जाती है।
यह अनाज गोदाम (भारतीय खाद्य निगम FCI) में जमा होता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बंटने वाला राशन यहीं से आता है।
नियम तो यह है, मंडी में न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम मिल रहा हो तो सरकार किसान की फसल तय किए गए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदे लेकिन ऐसा होता नहीं है।
एफसीआई अधिकारियों और आढ़तियों के बीच सांठगांठ रहती है। किसान गरीब है तो कह दिया जाता है, गोदाम में जगह नहीं है। यह सही है कि मंडियों में गरीब और छोटे किसान की लूट होती है।
पांच आढ़तिये मिल करके किसान की फसल की क़ीमत तय करते हैं। इसमें बेईमानी और जम कर धांधली होती है। इसका समाधान मंडी समितियों का सुधार है, न कि किसान को मंडी समितियों की जगह निजी कंपनियों (मगरमच्छों) के हवाले करना।
हर पांच मील के दायरे में कृषि मंडी होनी चाहिए। इस समय देश में कुल 7000 मंडियां हैं, जबकि जरूरत 42,000 मंडियों की है।न्यूनतम समर्थन मूल्य की बाध्यता के लिए कोई कानून नहीं है। सरकार को ऐसा कानून बनाना चहिए।
निजी कपनियों के लिए भी न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर फसल खरीदना जरूरी करना, ऐसा न करने पर दंडित करने के लिए कानून होना चाहिए।
‘कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य अश्वासन और कृषि सेवा करार अधिनियम, 2020’ संविदा खेती या ठेके पर खेती से संबंधित कानून है। संविदा खेती के लिए 2003 में कानून बना था।
इसके अनुसार, कंपनी या कोई व्यक्ति किसान के साथ अनुबंध करता है कि वह फसल को एक निश्चित समय पर तय दाम पर खरीदेगा। इसमें खाद-बीज, सिंचाई व मजदूरी सहित अन्य खर्चे ठेकेदार करता है।
नए कानून के तहत बड़ी कंपनियां सैंकड़ों एकड़ के बड़े-बड़े कृषि फार्म बनाएगी, गांव के गांव ठेके पर ले लेंगी। गरीब और छोटे किसान खेतिहर मज़दूर बन जाएंगे। देश का पूरा कृषि परिदृश्य बदल जाएगा।
नीति अयोग ने 2017 में एक उच्च-स्तरीय बैठक की थी। इसमें शामिल लगभग 150 व्यक्तियों में सरकारी अधिकारी, कृषि और आर्थिक विशेषज्ञ, कारपोरेट क्षेत्र के प्रतिनिधि और कुछ किसान नेता थे।
बैठक का विषय था कृषि का आधुनिकीकरण और इसके लिए बड़े पैमाने पर निवेश की जरूरत पर ज़ोर दिया गया।
किसान इतना निवेश करने की स्थिति में नहीं हैं, इस आकलन के साथ बैठक में कारपोरेट क्षेत्र (देशी-विदेशी कंपनियों) कृषि में निवेश करें यह कहा गया।
कंपनियों की शर्त थी कि, ‘सरकार उन्हें 10,000 एकड़ भूमि खेती के लिए उपलब्ध कराए। किसान इस भूमि पर खेतिहर मजदूर की हैसियत से काम कर सकते हैं, इसके अतिरिक्त उनका किसी प्रकार का दखल नहीं होगा।’
जमाखोरों को खुली छूट
‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020’ अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने के लिये यह कानून है।
आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में बना था। अब इसमें संशोधन करके जमाखोरी और काला बाजारियों को खुली छूट दे दी गई है।
फसल के समय कंपनियां अपने गोदाम भरेंगी, बाद में अधिक दाम पर बेचेंगी। इस तरह मंहगाई बढ़ेगी। यह सिर्फ किसानों के लिए ही नहीं, आम जनता के लिए भी ख़तरनाक़ है।
ङब्ल्यूटीओ, अमेरिका और कारपोरेट की हुक्मबरदारी
इन जन विराधी कानूनों को विश्व व्यापार संगठन (ङब्ल्यूटीओ), आमेरिका और अंबानी-आडानी जैसे कारपोरेट पूंजीपतियों के दबाव में पारित किया गया है। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना अप्रैल, 1994 में मराकेश (मोरक्को) संधि के जरिए हुई थी।
उस समय नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री और डॉ. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे। कांग्रेस को संसद में स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं था। इसलिए संसद में पारित किए बिना ही भारत को विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना दिया गया था।
इसके प्रावधानों के अनुसार, मुक्त व्यापार और खुले बाजार के लिए कृषि क्षेत्र में छूट या किसी भी स्वरूप में सरकार द्वारा प्रदत्त सहयोग, सहायता समाप्त करना होगा।
खाद्य सुरक्षा को छोड़कर सरकार को कृषि व्यापार से अलग रहना होगा। विश्व व्यापार सगठन की बैठकों में कृषि में छूट (सब्सिडी) समाप्त किए जाने के सवाल पर विकसित (साम्राज्यवादी) और विकासशील/अल्पविकसित देशों के बीच लगातार टकराव चला आ रहा है।
क्रांतिकारी उथल-पुथल की संभावना का तर्क देकर खाद्य सुरक्षा के नाम पर भारत सरकार ने अब तक न्यूनतम समर्थन मूल्य और अनाज की सरकारी खरीद जारी रखी है।
विश्व व्यापार संगठन की 2013 में एक बैठक में तय हुआ था कि कृषि क्षेत्र को मुक्त व्यापार के लिए खोलना होगा। भारत को पांच साल की मोहलत दी गई थी।
उस समय वामपंथियों द्वारा समर्थित काग्रेस नीत यूपीए सरकार थी। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। डब्ल्यूटीओ की बैठक में तय हुआ था कि 2018 तक कृषि उपज की सरकारी खरीद और कृषि संबंधित सभी छूटें समाप्त कर दी जाएंगी।
भारत सरकार पर आरोप है कि वह अब भी किसानों को छूट, समर्थन मूल्य पर अनाज की सरकारी खरीद और अन्य सुविधाएं देकर मुक्त व्यापार समझौते का उल्लंघन कर रहा है।
अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार विवाद निपटान अधिकरण में इसकी शिकायत दर्ज की है। मोदी सरकार ने कृषि संबंधित ये तीनों जनविरोधी कानून अमेरिका के कहने पर पारित किए हैं।
अमेरिका की एजेंट बीजेपी का कारनामा
साम्राज्यवाद के हुक्मबरदार आरएसएस/भाजपा की मोदी सरकार ने आंदोलन रत किसानों का दमन करने की भरपूर कोशिश की, उन पर आंसू गैस के गोले बरसाए, तेज धार के साथ पानी की बौछार की गई।
रास्ते में बेरिकेड लगाकर, गहरी खंदक खोद करके उन्हें रोकना चाहा। सभी बेकार गया।
अंदोलन में फूट डालने और इसे बदनाम करने की भरपूर कोशिश की गई।
सरकार इन तीन कानूनों को खतम करने के लिए हजगिज तैयार नहीं है, जिन्हें उसने अपने आकाओं- डब्ल्यूटीओ, अमेरिका, आडानी-अंबानी कारपोरेट पूंजीपतियों के हुक्म पर पारित किया है।
कृषि क्रांति की दिशा में भारत
भारत एक कृषि प्रधान देश है। किसान समस्या भारत की प्रमुख समस्या है। राजे-महाराजों का रूप बदला है, जमींदारी/जागीरदारी उन्मूलन, भूमि सुधार कानून बने हैं, आसामी किसानों को भूमिधर अधिकार भी मिले हैं। इसके बावजूद, देश का 80 प्रतिशत किसान भूमिहीन-गरीब (सीमांत),छोटा- मझौला किसान है।
छोटी-अलाभकारी जोतें और उपभोग प्रधान कृषि अर्द्ध सामंती उत्पादन संबंधों की निशानी हैं। कृषि उद्योग नहीं बन सका है, इसकी मुख्य वजह यह है कि हमने जोतने वाले की जमीन के अधार पर कृषि क्रांति के जरिए सामंतवादी उत्पादन संबंधों का जड़ से उन्मूलन नहीं किया है।
हमारे यहां मनुवाद या सवर्ण वर्चस्व के रूप में जातिवाद या सांप्रदायिकता जैसा पिछड़ापन अर्द्ध सामंती संबंधों का ही सबूत है।
समस्या यह है पिछड़ी कृषि को आधुनिक कैसे बनाया जाए? तीन कृषि कानूनों के जरिए देशी-विदेशी पूंजीपति कंपनियों के हवाले कृषि व्यवस्था करने की जिस दिशा में बढ़ा जा रहा है उससे अंतर्विरोध तेज होंगे।
जमीन से बेदखल सीमांत-छोटे किसानों के लिए शहर या मिल-कारखानों में रोजगार नहीं है। इन तीन कानूनों का मुख्य निशाना गरीब और छोटे किसान हैं।
इस हमले के दायरे में मझोले और धनी किसान तथा व्यापारी वर्ग भी है। ये कानून किसानों की आमदनी नहीं बल्कि कंपनियों का मुनाफा बढ़ाने के लिए हैं।
इस आंदोलन ने एक नई क्रांतिकारी चेतना जाग्रत की है।
यदि सरकार ने कानून वापस नहीं लिए, दमन या किसानों में फूट पैदा करके कामयाबी हासिल करने की कोशिश की तो शांतिपूर्वक आंदोलन कर रहे जुझारू किसानों के पास एक ही विकल्प बचेगा, साम्राज्यवाद कारपोरेट पूंजीपतियों की हिमायती सरकार और व्यवस्था के ख़िलाफ़ क्रांति!
(लेखक आजीवन सामाजिक कार्यकर्ता और वरिष्ठ पत्रकार रहे हैं।)
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