वो तीन कृषि क़ानून जिसकी वजह से किसान बैरिकेड लांघते हुए दिल्ली घेरने निकल पड़े

वो तीन कृषि क़ानून जिसकी वजह से किसान बैरिकेड लांघते हुए दिल्ली घेरने निकल पड़े

By विनय

5 जून 2020 को केंद्र सरकार की कैबिनेट बैठक में 3 अध्यादेश लाए गए। जो सितम्बर 2020 मानसून सत्र में संसद में शोर-शराबे के साथ पास हुआ। फिर बिल पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी मुहर लगा दी है।

पूरे देश में किसानों के बीच इस बिल को लेकर खासा गुस्सा व असंतोष दिख रहा है, किसान सड़कों पर उतर रहे हैं। तमाम किसान संगठन आपसी एकजुटता बनाते हुए इन तीनों बिलों का विरोध कर रहे हैं।

आइये देखते हैं कि इन तीनों विधेयकों में क्या है जिसका किसानों द्वारा इतना तीखा विरोध किया जा रहा है।

किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) क़ानून

किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) क़ानून, 2020 [The Farmers’ Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Bill, 2020: इस बिल के बाद किसान किसी भी ज़िले या राज्य में अपना उत्पाद बेच सकता है। इसमे इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफॉर्म पर बिना किसी बिचौलिये के अपने उत्पाद को सीधा बेचने व उसका पूरा लाभ मिलने की बात कही गई है।

किसान अपने उत्पाद को अपने ‘चॉइस’ के अनुसार ‘आज़ादी’ के साथ बेच सकता है। यह दलीलें सरकार की हैं। पर यह कितनी सही हैं यह समझना कोई कठिन नहीं है, क्योंकि जब हम खेती किसानी से जुड़े पहले की योजनाओं व नीतियों का असर देखते हैं तो काफी स्पष्ट हो जाता है कि यह किसान विरोधी ही है।

बिल में किसानों को यह ‘आज़ादी’ दी गई है कि वह कहीं भी अपने उत्पाद को बेच सकता है। पहले किसान अपने ही गांव/इलाके के मंडी APMC (Agriculture Produce Marketing Committee) में बेचता था।

farmers protest Haryana 1

यह सच है कि यहां किसानों का शोषण काफी होता था और इसमें बिचौलिए भी शामिल रहते थे। पर सरकार ने इसे बेहतर बनाने की बजाय इसे खत्म ही कर दिया।

इस मंडी के खत्म होने का एक सीधा मतलब है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की व्यवस्था खत्म। क्योंकि किसान जहाँ भी अपना उत्पाद बेचेगा वह एक निजी फर्म या कंपनी होगी। इस तरह सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया।

2006 में ही बिहार में APMC को खत्म किया जा चुका है। पर क्या बिहार के किसान अपने उत्पाद को देश में कहीं भी सही दाम में बेच पाने में समर्थ हैं? इसका जवाब है – नहीं। बल्कि उनका शोषण और दिक्कतें और भी बढ़ गयीं।

जहाँ तक बात इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफॉर्म की है तो एक आंकड़े के अनुसार 70% किसानों ने कभी भी किसान कॉल सेंटर पर सम्पर्क नहीं किया। इससे पहले भी अप्रैल 2016 में कृषि मंत्रालय ने एक इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग पोर्टल e-Nam लांच किया था।

इसको लेकर भी बहुत हवा हवाई बातें सरकार ने की कि किसान अब अपने उत्पाद को आसानी से बेच सकेगा और लाभ पायेगा। पर 4 साल बीत जाने के बाद भी सरकार इससे बहुत कम ही किसानों को जोड़ पाई है।

तो अब जिस नए इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफार्म की बात हो रही है वो सफल नहीं हो सकती न सरकार यह चाहती है। क्योंकि वो सिर्फ कॉरपोरेट की हितों के लिए ही ऐसा कर रही है।

farmers march Ambala

कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन समझौता और कृषि सेवा पर करार क़ानून-2020

दूसरा बिल है, कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन समझौता और कृषि सेवा पर करार बिल-2020 [The Farmers’ (Empowerment and Protection) Agreement of Price Assurance and Farm Services Bill, 2020]।

इस बिल का जोर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पर है। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का सीधा मतलब है बड़ी कंपनियों का सीधा हस्तक्षेप होगा।

बाजार के हिसाब से यह तय होगा न कि जनता की ज़रूरत के हिसाब से की किसान किसका उत्पादन करें और कितना करें।

किसान अपने उत्पाद का दाम भी तय करने की स्थिति में नही होगा क्योंकि उसके सामने एक कंपनी खड़ी होगी।

आवश्यक वस्तु क़ानून (संशोधन) 2020

तीसरा बिल आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1995 में संशोधन करके आवश्यक वस्तु बिल(संशोधन) 2020 लाया गया। इस बिल में अनाज, दलहन, तिलहन, आलू, प्याज जैसे ज़रूरी उत्पादों को आवश्यक वस्तु की सूची से बाहर कर दिया गया है।

स्टॉक होल्डिंग यानी जमाखोरी पर भी कानून बनाए गए हैं। कृषि क्षेत्र में उत्पादन, संग्रहण तथा सप्लाई को बाधामुक्त और कोल्ड स्टोरेज व फ़ूड सप्लाई के लिए निजी व प्रत्यक्ष निवेश को बढ़ावा दिया गया है।

इससे महंगाई कम करने की बात कही गई पर जून में अध्यादेश आने बाद से ही आलू प्याज के दाम लगातार तेजी के साथ बढ़ रहे हैं।

आपातकाल में कुछ चुनिंदा कृषि उत्पादों पर पाबंदी लगाने की शक्ति पहले राज्य सरकार के पास थी पर अब यह केंद्र सरकार के पास हो गई। भारत के संघीय ढांचे को तोड़कर ज्यादा से ज्यादा ताकत केंद्र सरकार तक केंद्रीकृत किया जा रहा है।

farmers protest Delhi 2

1991 में उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण के मॉडल आने के बाद से भारत मे सारी आर्थिक नीतियां इसी के इर्द-गिर्द घूमती हैं। कृषि के क्षेत्र में भी यही हाल है।

कृषि क्षेत्र को पूंजीपतियों की सेवा में लगाने के लिए WTO जैसे साम्राज्यवादी संगठनों से गठजोड़ किया गया। मुनाफे की होड़ में बायर व मैनोसेंटो कंपनियों ने यहां की मिट्टी की उर्वरकता तक को बर्बाद किया है।

एक सर्वे के अनुसार, लगातार रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी खराब हो रही है जिसकी वजह से उर्वरक के प्रतिक्रिया अनुपात में लगातार गिरावट देखी जा रही है। 1970 में यह आनुपातिक प्रतिक्रिया 13.4 थी जबकि 2000 में यह अनुपात गिरकर 4.1 हो गया।

हाल ही में आए ग्लोबल हंगर इंडेक्स- 2020 की जारी रिपोर्ट में 107 देशों में भारत 94वें स्थान पर है। इससे भारत के खाद्य सुरक्षा की भयावह स्थिति समझी जा सकती है।

25 जुलाई 2017 को लोकसभा में मिनिस्ट्री ऑफ कंज्यूमर अफेयर्स, फ़ूड एंड पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन की ओर से यह जानकारी दी गई कि चंडीगढ़ व पांडुचेरी की सभी राशन दुकान बंद कर दी गई हैं।

इन दो केंद्र शासित प्रदेशों में 91,584 टन अनाज 8,57,000 उपभोक्ताओं के बीच वितरण किया जाता था। 2017-18 से यह खत्म करके लोगों को कैश ट्रांसफर किया जाने लगा, जिससे लोग खुले बाजार में अपने हिसाब से कैश देकर खरीदें।

यदि केंद्र सरकार किसानों से सार्वजनिक संग्रह के लिए खाद्यान्न नहीं खरीदती है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से नहीं वितरित करती है तो इसका मतलब यह है कि खाद्यान की व्यवस्था को कॉरपोरेट के हाथों में दिया जा रहा है।

farmers arrests

कॉर्पोरेट को फायदा पहुंचाने के लिए ही सरकार यह कह रही कि किसान ‘आज़ाद’ है कहीं भी अपना उत्पाद बेचने के लिए।

13 जुलाई 2017 को भारत सरकार ने अपनी सब्सिडी एकाउंट WTO में पेश करते हुए यह खुशी जताई कि भारत ने कृषि में सब्सिडी की तय सीमा को पार नहीं किया है। उर्वरक, सिंचाई, बिजली पर 2011 में सब्सिडी जहां $29.1 बिलियन थी वहीं 2014 में घटकर $ 22.8 बिलियन हो गई।

इस प्रकार देखा जाय तो सरकार द्वारा लगातार नए नए नामों और लोकलुभावन वादों के पीछे खेती किसानी विरोधी नीति-योजनाएँ लाकर किसानों को कॉर्पोरेट के आगे शोषित होने के लिए खड़ा कर दिया जाता है।

फरवरी 2018 में किसानों की आय 2022 तक दुगनी करने का ऐलान करते हुए Rationale, Strategy, Prospects and Action plan लाया गया। यह 2018-19 के बजट के एलान के बाद आया। बजट में कृषि को लेकर ऐसा कुछ नहीं था जिसके आधार पर किसानों की आय को दुगुनी करने में सहायता मिले।

दरअसल सरकार की गलत नीतियों की वजह से किसानों (खासकर छोटे व माध्यम किसान) की खेती छोड़ने की संख्या बढ़ रही है, क्योंकि खेती-बाड़ी घाटे का सौदा हो गया है। इसी आधार पर सरकार यह बता रही है कि बचे हुए किसानों की आय दुगुनी हो जाएगी।

31 जनवरी 2020 को जारी आर्थिक सर्वे 2019-20 में यह बताया गया है कि कृषि व इससे जुड़े सेक्टर की औसत वार्षिक विकास दर पिछले 6 सालों से स्थिर है। यह विकास दर 2014-15 से 2018-19 में 2.28% है।

फिर किसानों की आय 2022 तक दुगुनी करने की बात भी सरकार का झूठ ही है। अगर सच मे सरकार थोड़ा भी कुछ करना चाहती है तो स्वामीनाथन रिपोर्ट के अनुसार कुल लागत का डेढ़ गुना करने की नीति को अपनाती।

हाल के कुछ सालों पर नज़र डालें तो 2015 के बाद भारत मे 2 सूखे समेत बेमौसम बरसात और अन्य संबंधित घटनाओं के कारण फसल बर्बाद होने की लगभग 600 घटनाएँ हुई हैं।

किसानों को उचित दाम नहीं मिले। सरकार ने बीमा योजना का हो-हल्ला तो किया पर आखिरकार यह भी किसानों के शोषण और कंपनियों के लूट का टूल ही बना। मतलब अब एक किसान के पास निवेश करने के लिए एक आधार पूंजी भी नही है कि फिर से खेती कर सके।

किसान की अपनी श्रम फसल की बर्बादी की वजह से आत्महत्याएं बेहद चिंताजनक है। कृषि संकट गहराता जा रहा है, जिसने किसानों में असंतोष को काफी बढ़ा दिया है। किसी भी संसदीय राजनीतिक पार्टी के नेतृत्व के बिना भी किसान अपनी एकजुटता के साथ सड़कों पर रोष के साथ उतर रहे हैं।

(लेखक बीएचयू के छात्र हैं।)

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