क्यों 1850 रुपये एमएसपी होने के बावजूद 900 रुपये में धान बेच रहे गरीब किसान

क्यों 1850 रुपये एमएसपी होने के बावजूद 900 रुपये में धान बेच रहे गरीब किसान

By आशीष आनंद

उत्तरप्रदेश के बरेली मंडल मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर दूर गांवों में 24 अक्टूबर को शाम लगभग आठ बजे अचानक कई लोगों के मोबाइल फोन घनघनाने लगे। अफरातफरी का सा माहौल। सूचना सिर्फ ये थी कि जो लोग धान खरीद केंद्रों से बोरे ले गए हैं, वे सभी वापस कर दें। बोरे लाने वाले उनसे संपर्क करने लगे, जिन्हें उन्होंने बांट दिए थे।

अल सुबह तमाम लोग खरीद केंद्र पर भी पहुंच गए। किसान ट्रैक्टर-ट्राली, भैंसा गाड़ी या अन्य साधनों पर अपने धान की तौल कराने को कतारें पहले ही लगाए थे। दस बजने तक वहां एसडीएम, विधायक, कई छोटे बड़े अधिकारी और इलाकाई नेता भी पहुंच गए। आपस की नोकझोंक शुरू हो गई। कभी गरम तो कभी नरम होकर अफसर मामले पर पानी डालने लगे। फिर एक ‘रहस्यमयी समझौता’ हो गया और बात रफा-दफा हो गई।

आखिर माजरा था क्या! ये जानने की कोशिश की गई तो पता चला कि खेत में अनाज उगाने वाले कैसे ठगे जा रहे हैं। सरकार ने धान खरीद के लिए जो न्यूनतम मूल्य 1850 रुपये प्रति कुंतल तय किया है, इसके बावजूद अभी भी गरीब किसानों को धान 900-1000 रुपये में क्यों बेचना पड़ रहा है। मतलब उसके हाथ आधा ही पैसा आ रहा है। ऐसा है तो बाकी रकम पर झपट्टा कौन मार रहा है?

खरीद केंद्रों पर धान बेचने की मुश्किलें

गरीब किसान और बंटाई या ठेका पर खेत लेकर खेती करने वालों के लिए एमएसपी से कम दाम पर फसल बेचने की मजबूरी नई नहीं है। अलबत्ता, पहले ये काम सांठगांठ करके चोरी-छुपे अंजाम दिया जाता था और भ्रष्टाचार की दर कम थी। लेकिन अब ये काम सुगठित नेटवर्क के जरिए छाती ठोंककर किया जा रहा है।

ये सभी जानते हैं कि गरीब किसानों को तुरंत पैसे की जरूरत होती है इसलिए उसको जो भी बेहतर दाम मिलता है, बेच देता है। क्रय केंद्रों पर पहले खाता खुलवाना जरूरी है, इसके लिए खतौनी और स्टेट बैंक का खाता भी हो, जिसमें आधार पैन नंबर बगैरा भी लिंक हो। इतनी झंझटों के बाद खाता खुलने पर फसल केंद्र तक ले जाने का साधन जुटाना, साधन का किराया जुटाना। फसल केंद्र पर पहुंच भी जाए तो उसकी तौल कब होगी, कहा नहीं जा सकता।

वाहन का किराया चढ़ता जाएगा और तौल के बाद खाते में पैसा आने में पंद्रह दिन या उससे ज्यादा लग जाते हैं। बंटाई या ठेके पर खेती करने वाले तो ये भी नहीं कर सकते। उनके नाम खेती नहीं होती है, इसलिए खाता खुलने का सवाल ही नहीं है। केंद्रों पर बोरे न होने तक तौल कराने को गरीब किसान बिना किसी बंदोबस्त के कई दिन तक भी इंतजार करने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। वो जो फोन घनघनाए थे, सिर्फ इसलिए कि बोरे एजेंटों के पास थे और दो दबंग सत्ताधारियों में लाभ कमाने के लिए खींचतान शुरू हो गई थी। अगले दिन ये मामला आपस में उन्होंने सुलझा लिया।

मोटे आसामियों को नहीं दिक्कत

इस प्रक्रिया में संपन्न किसानों को कोई दिक्कत नहीं आती। वे अपने साधनों से फसल लेकर पहुंचते हैं, उनकी माली स्थिति अच्छी होने से इलाकाई दबदबा भी होता है और क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों से लेकर अफसरों तक पहचान भी होती है। कई बार तो वे खुद ही एजेंट की भूमिका में होते हैं या फिर जनप्रतिनिधि ही होते हैं। उनकी तुरंत बेचकर कर्ज निपटाने या कोई और काम की जरूरत इस पर निर्भर नहीं होती।

सुसंगठित नेटवर्क से लूट करने वाला गिरोह

दूसरी ओर एक गिरोह सक्रिय है, जिसमें दबंग सत्ताधारी और विपक्ष के नेता, प्रशासनिक ढांचे के अहम अफसर और उनके एजेंट हैं। ये गैंग केंद्र पर खातेदार अपने एजेंटों को खाली बोरे थमा देते हैं, जिसमें वे अपना और दूसरों से खरीदकर केंद्र पर तौल कराते हैं। मतलब, जरूरतमंद से 900 रुपये में खरीदा और 1850 रुपये एमएसपी पर अपने खाते में सरकार को बेच दिया। उसके हाथ लाभ आया 950 रुपये।

इस लाभ का बंटवारा तय है। ये अलग-अलग आपसी ‘रहस्यमयी शर्तों’ से तय हैं। इस तरह सरकार ज्यादा एमएसपी देने का दावा करके खरीद करती है। खरीद के लिए आवंटित धनराशि टैक्स के जरिए वसूल ली जाती है, बाकी जिंस की बिक्री और निर्यात से लाभ कमा लेती है। दूसरी ओर नीचे से ऊपर तक प्रति कुंतल 950 रुपये का बंटवारा गैंग सदस्यों को करोड़ों का खजाना बनाता है।

सिर्फ एक रुपये की हिस्सेदारी से अरबों की कमाई

मान लीजिए, क्षेत्रीय विधायक का एजेंटों से तय है कि वह प्रति कुंतल 100 रुपये देगा, प्रशासक का तय है कि प्रति कुंतल 100 रुपये देगा, इसी तरह बाकी का भी तय है। इसी तरह अगर प्रति कुंतल एक रुपये शासन के किसी अफसर या नेता तक पहुंचता है तो अब तक अरबों रुपये का खेल हो चुका है।

उत्तरप्रदेश खाद्य एवं रसद विभाग की 28 अक्टूबर शाम साढ़े आठ तक की रिपोर्ट के अनुसार, अब तक 6 लाख 11 हजार 674 किसानों ने क्रय केंद्रों पर पंजीकरण के लिए आवेदन किया है। इनमें से 1 लाख 28 हजार 767 किसानों के खाते खतौनी में नाम मिसमैच होने से लंबित हैं। खतौनी के हिसाब से 100 कुंतल से ज्यादा बिक्री के लिए लंबित खाते 55 हजार 533 हैं। बैंक खाते के सत्यापन के लिए 59 हजार 36 खाते लंबित हैं।

फिलहाल तक 4 लाख 11 हजार 567 किसानों के खाते सत्यापित हुए हैं, जिनमें 15 हजार 793 टोकन जारी हुए हैं। प्रदेश सरकार की 11 एजेंसियों के 3819 केंद्रों के मार्फत 28 अक्टूबर को शाम सात बजे तक 53 हजार 723 किसानों से 3 लाख 68 हजार 488 मीट्रिक टन से ज्यादा धान की खरीद हो चुकी है, जिसकी एमएसपी के हिसाब से कुल धनराशि 6 अरब 90 करोड़ 12 लाख 43 हजार 56 रुपये हो चुकी है। प्रदेश सरकार का खरीद लक्ष्य 55 लाख मीट्रिक टन है।

आम किसान तो ये भी नहीं जानता कि एक मीट्रिक टन 10 कुंतल के बराबर होता है। उसकी मेहनत की लूट तो हर कुंतल पर 950 रुपये है। सरकार में बैठे ओहदेदार ने सिर्फ एक रुपये भी हिस्सा लिया तो अब तक उसकी भ्रष्टाचार की कमाई 6 अरब 90 करोड़ 12 लाख 43 हजार 56 रुपये हो चुकी है, जबकि अभी 15 गुना खरीद बकाया है।

इस तरह सिर्फ एक रुपये की हिस्सेदारी खरबों में पहुंच जाएगी। इस तरह क्षेत्रीय विधायकों के हाथ ही करोड़ों पहुंच जाते हैं, एजेंट ही लाखों कमा लेते हैं। जबकि किसान पहले से भी खराब हाल में पहुंच चुका होता है।

किसानों ही नहीं, शहरी उपभोक्ताओं को भी लग रहा चूना

किसान की उपज शहर के उपभोक्ता तक पहुंचने में सस्ती इसके बावजूद नहीं है। मिसाल के तौर पर देहात में खाने में जायकेदार अच्छी गुणवत्ता का शरबती धान इस समय 1300 रुपये प्रति कुंतल के भाव में है। इस धान का खुला रेट 2013 के नवंबर महीने में 2500 रुपये प्रति कुंतल था। ये कीमत उसके बाद से अब तक आधी ही है। इस धान की चक्की पर कुटाई के बाद कम से कम आधा वजन यानी 50 किलो साफ-सुथरा चावल निकलता है।

यानी एक कुंतल शरबती धान के चावल की कीमत हो गई 2600 रुपये प्रति कुंतल यानी 26 रुपये किलो। जबकि ये चावल इस समय शहर के अंदर 45 रुपये प्रति किलोग्राम से कम कीमत में कहीं उपलब्ध नहीं है। सीधे तौर पर 19 रुपये प्रति किलो का अंतर है। धान की कुटाई का चक्की पर कोई पैसा नहीं जाता, क्योंकि उसके एवज में चक्की मालिक को धान की परत का बुरादा यानी घूंटा मिलता है, जिसे बेचकर उसको मुनाफा मिलता है।

रही बात ढुलाई की, तो प्रति किलो एक रुपये से ज्यादा ढुलाई नहीं आती। सीधे तौर पर 15 रुपये प्रति किलो चावल का लाभ न किसान को मिलता है और न ही शहरी उपभोक्ता को। बात इतनी ही नहीं है। जिस चावल को 45 रुपये में बेचा जा रहा है, वो राईस मिलों से आ रहा है, जिसकी ऊपरी परत उतार दी गई होती है। इस परत को अलग से महंगे दाम पर कई दूसरे खाद्य उत्पादों के लिए बेचा जाता है। इस खेल में मिलावटखोरी का मसला अलग मुद्दा बनता है।

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ashish saxena

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