आम जनता और मज़दूरों को इस किसान आंदोलन का क्यों समर्थन करना चाहिए?
By धर्मेंद्र आज़ाद
ये काले कृषि क़ानून पूँजीवाद के और क्रूर व संकटग्रस्त होते जाने की ही निशानी है। ऐसा नहीं कि पूँजीवाद पहले उदार या मानवतावादी था।
लेकिन यह पूँजी के एकाधिकारी घरानों के हाथों में अधिकाधिक संकेंद्रित होने व साम्राज्यवादी पूँजी के साथ भारतीय पूँजी के नापाक गठजोड़ व पूँजीवाद के अपने संकट के चलते और भी दानवाकार हो चुका है, जिसे ज़िन्दा रहने भर के लिये भी मेहनतकशों का और अधिक खून चूसने की ज़रूरत है।
इसीलिये देश भर से इतने बड़े प्रतिरोध के बावजूद पूँजीपतियों की यह फ़ासीवादी सरकार इन काले क़ानूनों को वापस लेने के बजाय किसानों के आन्दोलन को ही बदनाम करने व इसके ख़िलाफ़ भ्रम फैलाने में लगी हुई है।
ऐसे में संघर्षरत किसानों, क्रान्तिकारीयों, जनपक्षधर आवाम को क्या करना चाहिये?
ग़रीब व छोटे मझोले किसानों को तात्कालिक राहत पहुँचाने के लिये सरकार द्वारा एकाधिकारी पूँजी की ओर से किसानों पर किये गये इस हमले का पुरज़ोर विरोध किया जाना चाहिये।
यह माँग का समर्थन किया जाना चाहिये कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की (सभी फसलों के लिये) क़ानूनी गारण्टी करे।
ग़रीब व छोटे मझोले किसानों की उपज की ख़रीद की गारण्टी सरकार ले। इसके साथ उपभोक्ताओं (ख़ासकर मज़दूर वर्ग) पर इसका बोझ न पड़े इसलिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मज़बूत बनाया जाये।
इन सब के लिये धन जुटाने के लिये सरकार द्वारा बड़े पूँजीपतियों पर टैक्स माफ़ी, क़र्ज़माफ़ी के माध्यम से दौलत पर रोक लगाये, ज़रूरत पड़े तो इन एकाधिकारी पूँजीपतियों पर अतिरिक्त टैक्स लगाये।
सवाल यह है कि अगर ये कृषि क़ानून रद्द भी कर दिये जाते हैं तो क्या ग़रीब व छोटे मझोले किसान इस पूँजीवादी व्यवस्था के रहते अपनी खेती को लम्बे समय तक बचा पायेंगे? क्या उनका संकट हमेशा के लिये टल जाएगा?
इसका जवाब है – नहीं।
यह कड़वी सच्चाई है कि इस पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा किसी दूसरे तरीक़े से उनका संपत्तिहरण किया जाना तय है। चाहे बिजली, खाद, कीटनाशक आदि की क़ीमतें बढ़ाकर, या फिर नक़दी खेती के दामों की अनिश्चितताओं की वजह से, या फिर क़र्ज़जाल में फँसने से।
पूँजीवादी व्यवस्था में छोटी सम्पत्ति के मालिकों का संपत्तिहरण लम्बे समय तक नहीं रोका जा सकता है। ज़्यादा से ज़्यादा कुछ रियायतों व संघर्षों के मार्फ़त इस प्रक्रिया को धीमा भर किया जा सकता है।
पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर छोटी सम्पत्ति के किसानों का सम्पत्तिहरण होना उनका सर्वहारा के पाँतों में शामिल होना अनिवार्य है।
पर चूँकि छोटे-मझोले किसानों का पूँजीवाद के अन्दर यह सम्पत्तिहरण बहुत पीड़ादायी, निर्मम, लम्बा व निरंकुश है। ग़रीब व छोटे-मझोले किसानों की उनकी ज़मीन से अलगाव की प्रक्रिया कई पीढ़ियों का दुःख, तकलीफ़ों, आत्महत्याओं, मानसिक अवसादों से होकर गुजरती है। इसलिये किसानों के साथ संकट की इस घड़ी में खड़ा होने की ज़रूरत है।
लेकिन यह भी सच है कि समाज में उत्पादन का स्तर बढ़ाने की भी ज़रूरत है, खेती में लगे मेहनतकशों की संख्या कम कर उन्हें समाज को आगे ले जाने के लिए दूसरे उत्पादक कामों में लगाने की ज़रूरत है।
खेती में भी नयीं तकनीकि बड़ी-बड़ी मशीनों का इस्तेमाल, मानव श्रम को कम करना एक प्रगतिशील व आवश्यक कदम है।इस अग्रगति के रास्ते में सरपट दौड़ने में छोटी जोत वाली यह व्यवस्था एक हद तक बाधक भी है।
अब सवाल है किया क्या जाये??
दरअसल एक तरीक़ा है जो किसानों को इस पीड़ादायक रास्ते से गुज़रने से रोक भी सकता है, व कृषि के आधुनिकीकरण का रास्ता भी सुगम बना सकता है। यह कई देशों में सफलतापूर्वक अपनाया गया रास्ता है। सच तो यह है कि रास्ता किसानों के लिये एक आनंददायक रास्ता भी है।
इस रास्ते से सारे दुःख, तकलीफ़ों, वंचना, ग़रीबी की अंतहीन कहानी का अंत हो जाता है और वे बड़ी खेती के मालिक बन बैठते हैं। इस प्रक्रिया में वे स्वयं निजी ज़मीन के। छोटे छोटे टुकड़ों को संयोजित कर बड़े फार्म बनाकर उसके सामूहिक मालिक बन जाते हैं। उनकी आर्थिक हैसियत कुछ ही सालों में आज के धनी किसानों से भी ऊपर पहुँच जाती है।
हाँ जी! यह सच है।
और यह रास्ता है समाजवाद का।
इस रास्ते पर चलने के लिये मज़दूर वर्ग अपने स्वाभाविक मित्रों किसानों के कष्टों से मुक्ति में उनका मार्गदर्शन करता है।मज़दूर वर्ग किसानों को सामूहिक व सरकारी खेती के रास्ते में चलने में उनका साथ देता है, प्राकृतिक, सामाजिक, आर्थिक आपदाओं से होने वाली तकलीफ़ों पर विजय का उद्घोष करता है।
तब भाग्य या कोई पूँजीपति मेहनतकशों के जीवन का निर्धारण नहीं करेंगे बल्कि किसान व मज़दूर स्वयं अपने भाग्य का निर्धारण करने लगते हैं।
यहीं से न केवल मज़दूरों व किसानों की मुक्ति का रास्ता खुलता है बल्कि समूची मानवता हमेशा हमेशा के लिये शोषण-उत्पीड़न-ग़ैर बराबरी के पंजों से मुक्ति के मंज़िल की ओर छलाँग लगाती है।
(लेखक सामाजिक कर्मी हैं। लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।)
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