डालमियानगरः इंदिरा गांधी के ज़माने से नाइंसाफी झेल रहे श्रमिक, अब बुढ़ापे में खदेड़ने की कोशिश- ग्राउंड रिपोर्ट
By अभिनव कुमार, डालमियानगर, रोहतास, बिहार से
57 वर्षीय मुन्ना सिंह बताते हैं कि उनकी उम्र 16-17 साल रही होगी जब डालमियानगर स्थित रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड फैक्ट्री बंद हुई।
एक वाकया साझा करते हुए वो कहते हैं कि, “1984 के नवम्बर का महीना रहा होगा। मैं और मेरे कुछ दोस्त इसी डालमियानगर हाई स्कूल के मैदान में बैठे थे कि हमने देखा कुछ लोग एक शव ले जा रहे थे। शव फैक्ट्री में काम करने वाले हमारे एक पड़ोसी की थी। शव पर कफ़न भी नहीं डाला हुआ था, मृतक की लुंगी से ही उसके शव को ढंक दिया गया था।”
“इस वाकये ने हमे बुरी तरह डरा दिया। इस एक शव यात्रा में हमे हमारे परिवार का भविष्य दिख रहा था। उसी शाम हमने योजना बनाई कि हम अगले दिन दिल्ली-हावड़ा रेल लाइन जाम करेंगे। लगभग सभी कर्मचारी परिवारों ने इस जाम में भाग लिया।”
“लेकिन इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद उपजे माहौल के बीच हमारे आंदोलन को पुलिस द्वारा क्रूरता से कुचल दिया गया। पुलिस की तरफ से आंदोलनकारियों पर गोली भी दागी गई, जिसमें दर्जनों लोग घायल हुए। इस गोलीकांड में कई लोगों मारे गए, ऐसी बात आज भी लोगों के ज़ेहन में हैं, हालांकि मैं पुख़्ता तौर पर कुछ नहीं कह सकता।”
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आज़ादी के पहले बसा था उद्योग, सुभाष चंद्रबोस ने किया था उद्गाटन
दक्षिणी बिहार के रोहतास ज़िले में सोन नदी के तट स्थित डालमियानगर इंडस्ट्रीज की स्थापना 1933 में रामकृष्ण डालमिया ने की थी। रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड कारखाना डालमिया ग्रुप का था, इसलिए यह औद्योगिक क्षेत्र डालमियानगर के नाम पर प्रसिद्ध हो गया।
तब ये इलाका शाहाबाद क्षेत्र में आता था और गन्ने की खेती के लिए ये इलाका मशहूर था, इसलिए फैक्ट्री की शुरुआत भी रोहतास शुगर लिमिटेड के नाम से की गई।
फिर बाद में जैसे-जैसे फैक्ट्री में दूसरे यूनिट खुलते गए इसका नाम बदल कर रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड कर दिया गया।
बाद में मार्च, 1938 में दूसरे यूनिट के तौर पर सीमेंट कारखाना भी खोला गया, जिसका उद्घाटन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने किया था। उस समय यह पूरे भारत में सबसे बड़ा सीमेंट कारखाना था। फिर पेपर मिल की स्थापना की गई जिसका उद्घाटन राजेंद्र प्रसाद ने किया। बाद में फैक्ट्री में कई दूसरे यूनिट भी स्थापित किये गए।
यहां कभी 20 से अधिक फैक्ट्रियां थीं।
देश की सबसे बड़ी टाउनशिप में एक था डालमियानगर
लगभग 4000 एकड़ में फैली ये टाउनशिप अपने दौर में देश की सबसे बड़ी टाउनशिप में से एक थी। ये पूरा औद्योगिक परिसर एक समय में एशिया में सबसे बड़ा औद्योगिक परिसर माना जाता था।
फिलहाल ये पूरा इलाका इसलिए फिर से चर्चा में है क्योंकि पटना हाईकोर्ट ने अपने एक ताज़ा फैसले में कहा है कि सालों से स्टाफ़ क्वार्टर में रह रहे लोगों को अपने क्वार्टर खाली करने होंगे या फिर क्वार्टर खरीदने होंगे।
लगभग 40 सालों से कर्मचारियों की क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे गया शर्मा बताते हैं, “8 जुलाई,1984 को फैक्ट्री पूरी तरह से बंद कर दी गई थी। फैक्ट्री के तत्कालीन मालिक अशोक जैन (रामकृष्ण डालमिया ने ये फैक्ट्री अपने दामाद शांति प्रसाद जैन को दे दी। अशोक जैन इन्हीं शांति प्रसाद जैन के पुत्र हैं) को उम्मीद थी कि फैक्ट्री को दुबारा शुरू करने में उन्हें सरकारी मदद मिलेगी। लेकिन उम्मीद के मुताबिक कोई मदद नहीं मिली। इसी बीच फैक्ट्री को प्रोविज़नल लिक्विडेशन (Provisional liquidation) के तहत डाल दिया गया।”
वो कहते हैं कि, “1986 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रोविज़नल लिक्विडेशन की प्रक्रिया पर रोक लगाते हुए फैक्ट्री में पुनर्वास की प्रक्रिया शुरु की गई। फैक्ट्री को 40 करोड़ रुपये की मदद मिली, जिसके बाद फैक्ट्री 1994 तक चली भी। लेकिन उसके बाद फिर से बंद होने के कगार पर आ गई।”
25 साल तक चली वेतन बकाए की लड़ाई, लेकिन…
नवम्बर,1995 में फैक्ट्री अंततः बंद हो गई और उसे पूरी तरह से लिक्विडेशन के तहत डाल दिया गया।
फैक्ट्री के बंद हो गई लेकिन कर्मचारियों के वेतन और मुआवज़े नहीं दिए गए और इसके लिए कर्मचारी यूनियन को लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी लेकिन जो बकाया मिला वो 25 साल पहले की दर से मिला।
गया शर्मा बताते हैं कि “कर्मचारियों के बकाया वेतन और मुआवज़े की मांग करते हुए हाई कोर्ट में याचिका दायर की गई। एक लम्बी क़ानूनी लड़ाई के बाद 2008 में हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि 1995 तक का कर्मचारियों के बकाया वेतन का भुगतान किया जाए।”
इसके बाद ऑफिशियल लिक्विडेटर ने एक नोटिफ़िकेशन जारी किया और कहा कि सभी कर्मचारी अपने दावे प्रस्तुत करें जिसके बाद कर्मचारियों के आधे-अधूरे वेतन का भुगतान किया गया और वो भी 1984 के मज़दूरी की दर से।
लेकिन 1984 के बाद के वेतन बढ़ोतरी, डीडीए इत्यादि को देने से कंपनी साफ़ मुकर गई। ग्रैच्युटी भी 1984 तक का ही दिया गया जबकि कोर्ट का आदेश था की 1995 तक का हिसाब किया जाए।
फिलहाल इस मामले पर भी कर्मचारी हाई कोर्ट में अपना केस लड़ रहे हैं। कर्मचारियों का दावा है कि ऑफिसियल लिक्विडेटर द्वारा कोर्ट को यह बोलकर कि कर्मचारियों के सभी बकाया राशि का भुगतान कर दिया गया है, लगातार गुमराह किया जा रहा है।
अब घरों से खेदड़ने की कोशिश
अब क्वार्टर खाली कराने को जो आदेश आया है, उसके बारे में गया शर्मा बताते हैं कि, “2004 से कर्मचारियों के क्वार्टर के मालिकाना हक़ को लेकर हम कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। 2004 में जज आरएस गर्ग ने सबसे पहले आदेश दिया कि जो भी कर्मचारी क्वार्टर खरीदना चाहते हैं वो अपना एक ऑफर लेटर कि किस क़ीमत पर लेना चाहते हैं, ऑफिशियल लिक्विडेटर के सामने पेश करें।”
गया शर्मा के अनुसार, कर्मचारियों ने क्वार्टर की कीमत 1986 के दर पर लेने की पेशकश की जिसे ऑफिशियल लिक्विडेटर ने बेहद कम बताया और ख़ारिज कर दिया।
ऑफिशियल लिक्विडेटर द्वारा कोर्ट को सलाह दी गई कि कर्मचारी यदि 1996 के वैल्यूएशन के आधार पर क्वार्टर लेने को तैयार हैं तो हम आगे बढ़ सकते हैं।
कर्मचारी यूनियन ने 1996 की दर पर भी क्वार्टर खरीदने की सहमति दे दी। लेकिन बाद में फिर ऑफिशियल लिक्विडेटर अपने वायदे से मुकर गए।
शर्मा आगे बताते हैं कि “इस पूरे मामले को जानबूझ कर ऑफिशियल लिक्विडेटर द्वारा उलझा कर रखा गया और हमें नहीं मालूम इसके पीछे उनकी क्या मंशा रही होगी। 2023 में हाई कोर्ट के डबल बेंच के द्वारा हमारे उम्मीद के उलट 23 अगस्त 2023 तक क्वार्टर खाली करने का फैसला सुनाया गया जिसके बाद अफरातफरी का माहौल बन गया।”
फिलहाल पूरा मामला सुप्रीम कोर्ट में है और कोर्ट का कहना है कि जो भी कर्मचारी क्वार्टर खरीदना चाहते हैं वो अपने क्वार्टर का अंडरटेकिंग दें और फिर ऑक्शन के ज़रिये खरीद सकते हैं। लेकिन पूरा मामला फिर से क्वार्टर की क़ीमत तय करने को लेकर फंस गया है।
सरकारी फंड डकारने के लिए दिखाया गया था घाटे में
कई कर्मचारियों ने बताया कि ‘वर्तमान में इस इलाके में ज़मीन का सर्किल रेट 7 लाख प्रति डिसमिल है जबकि बाज़ार रेट 12 लाख रुपये तक चला गया है। इस पूरे इलाक़े पर भू माफियाओं की भी नज़र गाड़ी हुई है। इसलिए लड़ाई सिर्फ ऑफिशियल लिक्विडेटर के साथ ही नहीं बल्कि भू माफियाओं से भी है।’
फैक्ट्री के कर्मचारी रह चुके और मज़दूरों को संगठित करने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले 72 वर्षीय सुभाष विद्रोही फैक्ट्री के बंद होने से लेकर कर्मचारियों के क्वार्टर के मालिकना हक़ की लड़ाई पर विस्तारपूर्वक जानकारी दी।
उन्होंने कहा कि, “इंदिरा गाँधी के द्वारा जब ये घोषणा की गई सरकार घाटे में चल रहे उद्योग- कारखानों को मदद देकर उनको दुबारा खड़ी करेगी। इसके बाद फैक्ट्री के तत्कालीन मालिक अशोक जैन ने मुनाफ़े में चल रहे कारखाने को जानबूझ कर लगातार 4-5 साल तक अपने बैलेंससीट में घाटा दिखाया।”
इसी बीच इंदिरा गाँधी की हत्या हो गई और अगले प्रधानमंत्री राजीव गाँधी इस सरकारी वायदे से मुकर गए।
सुभाष विद्रोही कहते हैं कि सरकारी मदद के इंतज़ार में बैठे अशोक जैन को ये बड़ा झटका लगा। इससे पहले भी कई बार वो इसी तरह सरकारी मदद का लाभ उठा चुके थे। लेकिन इस बार उनका दावं उल्टा पड़ गया था। अब उन्होंने फैक्ट्री में कर्मचारियों की छंटनी शुरू कर दी।
सुभाष कहते हैं कि, “सितम्बर,1984 में हमने छंटनी के ख़िलाफ़ एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया। हमने रेल रोको अभियान शुरू किया और तब देश की लाइफ़ लाइन कही जाने वाली हावड़ा-दिल्ली रेल लाइन को कई दिनों तक बाधित किए रखा। हमारे आंदोलन को दबाने के दौरान ही डालमियाननगर गोलीकांड हुआ था।”
“हमने आंदोलन दुबारा शुरू किया ही था कि इंदिरा गाँधी हत्या हो गई और हमारे ऊपर भी पुलिसिया दमन हुआ। हमारे कई साथियों को झूठे दंगा विरोधी कानूनों में गिरफ्तार कर लिया गया।”
सुभाष विद्रोही कहते हैं कि उन्हें भी कई महीने जेल में बिताने पड़े।
वो कहते हैं कि, “हमारे आंदोलन का ही नतीजा था कि फैक्ट्री मालिक को सरकार की ओर से 40 करोड़ रुपये की मदद मिली, लेकिन उस राशि को भी फैक्ट्री मैनेजरों और मालिक ने आपस में बाँट लिया।”
फ़ैक्ट्री बंदी के बाद दर दर भटकते रहे मज़दूर
फैक्ट्री बंद होने के बाद के समय को याद कर सुभाष थोड़े भावुक हो जाते हैं, “फैक्ट्री बंद के होने बाद कई महीनों तक हर तीसरे- चौथे दिन किसी न किसी गली में किसी के आत्महत्या करने की ख़बर हमें मिलती थी। कई परिवारों ने एक साथ आत्महत्या कर ली। एक पूरी पीढ़ी की पढ़ाई- लिखाई ठप हो गई।”
“कल तक फैक्ट्री में इंजीनियर, क्लर्क रहे लोगों को रिक्शा चलाना पड़ा, सब्ज़ी बेचनी पड़ी, किसी के दुकान पर काम करना पड़ा। 1984 के बाद की एक पीढ़ी के युवक- युवतियों की शादियां तक नहीं हुईं। आज भी कॉलोनी में आपको ऐसे लोग मिल जाएंगे। जो सक्षम थे, लौट गए लेकिन बाकियों ने मालिकों की कारगुजारियों का नरक भोगा।”
आज के हालात पर वो कहते हैं कि, “आज क्वार्टर के मालिकाना हक़ के लिए चाहे जो भी रेट तय कर दिया जाये लेकिन सच यही है कि 90 प्रतिशत लोग किसी भी मूल्य पर क्वार्टर खरीदने की स्थिति में नहीं हैं। दिहाड़ी पर काम करके जैसे- तैसे घर चला रहे लोगों पर मालिकों द्वारा दुबारा कहर ढाया जा रहा है। खंडहर बन चुके ये क्वार्टर ही उनके सर पर एक आसरा हैं, ऐसे में अगर ये भी उनसे छीन लिया गया तो सड़क पर के सिवा उनके पास दूसरा कोई रास्ता नहीं बचेगा।”
80 साल के बुज़ुर्ग अब कहां जाएं
ऐसे कई मज़दूर अब बेसहारा वयोवृद्ध हो चुके हैं, जो यहां अपनी जवानी में काम करने आए थे। बढ़ी उम्र में बीमारियों ने घेर लिया। न इलाज़ का इंतज़ाम है न देखरेख का कोई बंदोबस्त, लेकिन यहां रहना उनकी मज़बूरी है।
इन्हीं में से हैं 80 वर्षीय सतपातो देवी। उन्होंने बताया कि, “मेरे परिवार में सिर्फ मैं और मेरे पति हैं। पति को भूलने की बीमारी (संभवतः डिमेंशिया) है, कभी- कभी तो मुझे भी भूल जाते हैं। अब इस उम्र में यदि हमें ये क्वार्टर छोड़ना पड़ा तो हमारे पास मरने के सिवाय और कोई दूसरा रास्ता नहीं हैं’।”
लौटते वक़्त रास्ते में हमें एक स्थानीय पत्रकार मिले जिन्होंने नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर बताया कि, “डालमियानगर फैक्ट्री के बंद होने के कुछ महीनों के बाद स्थानीय बाजार डेहरी और जिला मुख्यालय सासाराम में हमने देखा की रूम भाड़े पर देने वाले होटल बड़ी संख्या में खुलने लगे। ये हमारे लिए हैरानी की बात थी कि एक तो यहाँ के बाज़ारों में पहले वाली रौनक नहीं रही, न कोई टूरिस्ट स्पॉट है फिर ये कौन बाहरी लोग हैं जो यहाँ आ रहे हैं।”
उन्होंने बताया कि, “तहकीकात के बाद हमने पाया कि डालमियाननगर फैक्ट्री बंद होने के बाद कई कर्मचारियों के परिवारों की माली हालत इतनी दयनीय हो गई कि उनको देहव्यापार के लिए मज़बूर होना पड़ा।”
शाम के 7 बज चुके थे और मैं लौट रहा था। किसी ज़माने में रौशनी से जगमग रहने वाला ढह चुका औद्योगिक परिसर किसी भूतिया फिल्म के सेट जैसा लग रहा था।
इस पूरे दिन ऐसी कई कहानियां सुनने को मिलीं जो मालिकों द्वारा मज़दूरों को उनके हाल पर छोड़ देने वाले वेज स्लेवरी (वैतनिक गुलामी) जैसी प्रथा कि तरफ़ इशारा करती हैं।
कभी ये औद्योगिक टाउनशिप पूरे देश में विकास का मॉडल हुआ करता था। यहाँ देश का पहला वीमेन रात्रि कॉलेज था और उसमें 3,000 से अधिक लड़कियां पढ़ती थीं।
रोहतास इंडस्ट्रीज़ की चमक-धमक के बारे में कहावत थी कि यहां कभी रात नहीं होती थी। तीन शिफ़्टों में फैक्ट्रियां चला करती थीं। वर्करों के आने जाने के लिए इंडस्ट्रीज़ ने रेल की व्यवस्था की थी। लोगों को रहने के लिए क्वार्टर दिए थे।
आज इस अतीत के आलीशान शहर पर घास उग रही है, कारखानों में जंगल हो गए हैं। श्रमिकों की दो पीढ़ियां यहां खप चुकी हैं। बिहार के विकास के मोदी, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के दावे यहां मुंह चिढ़ाते नज़र आते हैं।
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