नाम बदलने के बाद चंदे पर उतर आई है मिड-डे मील योजना: ग्राउंड रिपोर्ट

नाम बदलने के बाद चंदे पर उतर आई है मिड-डे मील योजना: ग्राउंड रिपोर्ट

By आमिर मलिक

जींद, हरियाणा: वह अपने हिस्से का बचा हुआ पुलाव लाल रंग के छोटे डिब्बे में रख रहा था। वह यह भी देख रहा था कि कोई उसे देख न रहा हो। जब वह उस डिब्बे को अपने बस्ते में डाल चुका तब मैंने पूछा  क्या, खाने का जी नहीं कर रहा है? वह मेरे सवाल पर चौंका मगर फिर झेंप गया। कहने लगा- घर जाकर खाऊँगा।

टूटे चावल की तुरंत तैय्यार रेसिपी उसे पसंद थी। हाँ, रेसिपी में कभी बदलाव न आया था। चावल में हल्दी और नामक डालकर उसे पुलाव कहने की चालाकी खाना बनाने वाले उन जादुई हाथों में हो या मास्टर-साहब मजबूरी में इस नाम का बोझ ढ़ो रहे हों, नहीं मालूम। मगर, पुलाव सुनकर बच्चों के चेहरे पर बिखरती सुहानी मुस्कान से भला किसे ऐतराज़ था?

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हरियाणा के जींद ज़िले में ईगराह गांव के शहीद हवलदार राजकुमार आरवीएम विद्यालय में बच्चे खाना ख़ा चुके हैं। इस वक़्त तक, देशभर में चल रहे लगभग 11.2 लाख ऐसे ही विद्यालय में बच्चे खाना ख़ा चुके होंगे।

इस बरस चिल्ड्रेन डे पर पारी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत की मिड-डे मील (मध्याह्न भोजन) योजना के तहत सरकारी व सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों, और सर्व शिक्षा अभियान द्वारा समर्थित सरकारी शिक्षण केंद्रों में पढ़ने वाले कक्षा 1 से 8 के लगभग 118 मिलियन (11.8 करोड़) स्टूडेंट्स  को निःशुल्क भोजन कराया जाता है।

बदले जा रहें हैं योजनाओं के नाम

पिछले बरस मध्याह्न भोजन योजना का नाम बदलकर ‘प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण’ या ‘ पीएम पोषण ‘ कर दिया गया था। यह केंद्र प्रायोजित राष्ट्रीय योजना 1995 से चल रही है, जिसे भारत के प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश में लागू किया गया है।

शिक्षा मंत्रालय की 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, स्कूलों में भोजन पकाने के लिए अलग-अलग तरह के अनाज, दालों और सब्ज़ियों के साथ तेल या वसा, नमक और मसालों का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन कई राज्यों ने खाने की सूची में अपने स्वादानुसार बदलाव किए हैं, जिसके तहत पोषण को बढ़ाने वाली खाद्य सामग्री अलग से शामिल की जाती है। झारखंड, तमिलनाडु और केरल ने अपने स्कूली भोजन में अंडे और केले शामिल किए हैं, जबकि कर्नाटक में एक गिलास दूध (और इस साल से अंडा) भी दिया जाता है।

पारी की रिपोर्ट ने बताया कि गोवा में महिलाओं के स्वयं सहायता समूह भोजन की आपूर्ति करते हैं, जबकि मणिपुर और उत्तराखंड में अभिभावकों को मदद के लिए आगे आने को कहा जा रहा है। ऐसा पंजाब में भी देखने को मिला, मगर बहुत काम विद्यालयों में ऐसा हुआ की अभिवावक स्वयं अपने-अपने घरों से खाना भेज दें, और सब बच्चे मिलजुलकर उसे खाएँ।

गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में स्थानीय समुदायों के लोग भोजन में पौष्टिक आहार शामिल करने के लिए अपनी स्वेच्छा से खाद्य सामग्रियों की आपूर्ति करते हैं।

पीएम-पोषण योजना पर 2021-22 से लेकर 2025-26 तक कुल 1,30,794 करोड़ रुपए ख़र्च किए जाएंगे, जिसे केंद्र सरकार और राज्यों द्वारा साझा किया जाएगा। ईगराह में हाइ-वे के बगल में मौजूद यह स्कूल धूप में नहाए हुए था, खिला-खिला था। ऐसा लग रहा था हर थाली में एक सूरज बैठा है। उस रोज़ हल्दी में डूबे चावल, नमक की चादर ओढ़े हुए थे। बच्चों ने बताया उन्हें राजमा चावल भी जमता है। पिछले हफ़्ते मिला था।

इस हफ़्ते की गैरंटी न थी। वह कनस्तर जिनमें अनाज रखे थे, हाथ लगते ही बजने लगते थे। रसोईये ने बताया “कनस्तर कहाँ भरा है? ख़ाली होने लगा है।” कई बार ऐसा होता है कि मिड-डे मील के लिए आवंटित धनराशि और खाद्यान्न (छह लाख मेट्रिक टन से ज़्यादा) वितरण में कभी-कभी गड़बड़ी हो जाती है।

चंदा के द्वारा इकट्ठा होता है अनाज

एक प्लेट खाने की क़ीमत टूटकर पाँच रुपए और कुछ पैसे होते हैं। शहीद हवलदार राजकुमार आरवीएम विद्यालय में जून से पैसे नहीं आए हैं। इस हालत में शिक्षकगण चंदा इकट्ठा कर लेते हैं ताकि बच्चे भूखे न रहें। कौन होगा जो बच्चों से खाना छीनकर उन्हें भूख के हवाले करना चाहें? आँकड़े मगर कुछ और ही दर्शाते हैं।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-21 ( एनए फ़ए चएस-5 ) के अनुसार, पांच वर्ष से कम आयु के 32 प्रतिशत बच्चे सामान्य से कम वज़न के हैं। साल 2019 में यूनिसेफ़ की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की 69 प्रतिशत मौतों का कारण कुपोषण है।

कोविड महामारी ने इसे और गहरा कर दिया है। जिस प्रकार देश में हर चीज़  भ्रष्टाचार, मिलावट, ख़राब गुणवत्ता और भोजन की विविधता में कमी, और जातिगत भेदभाव जैसे मसलों से जूझती रही है, मिड-डे मील योजना को भी इन मसलों से लोहा लेना पड़ा ही है।

चौथी कक्षा में पढ़ने वाले जतिन कहते हैं, “मेरे पिता ईंट-भट्टी पर मज़दूरी करते हैं। आज मैं कुछ खाकर नहीं आया, न उन्होंने कुछ खाया था। क्यूँकि तबतक कुछ बना ही नहीं था।” मानवी 11 बरस की हैं, और उनका परिवार पश्चिम बंगाल से यहाँ आया है। पिता यहाँ के सरपंच के मुर्गी-पालन फार्म में दिहाड़ी करते हैं। मानवी का छोटा भई हर्ष भी यहीं पढ़ता है। इसी तरह अंकुश के पिता बस कंडक्टर हैं। इसी तरह तीसरी कक्षा के अंकुश के पिता लकड़ी तोड़ते हैं और उसे बेचकर अपना पालन-पोषण करते हैं।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हमारा देश सात रैंक खिसक गया है। इस योजना लाज बचा रखी है। आज यह पुलाव खाने वाले कल देश की सेवा में अलग-अलग काम करेंगे।निशांत कटारिया को फ़ौज में जाना है। पास खड़ी शिवानी ने भी फ़ौज में जाने की इच्छा जताई।

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अंशु कहने लगा, मैं चित्र बनाऊँगा।” मैंने पूछा  कैसी? किस रंग की? कहने लगा—अपने पिता की, लकड़ी काटते हुए। अंशु जब चित्रकार बने, तो उस कनस्तर की तस्वीर बनाए जो अब ख़ाली हो चुका है, या उस मज़दूर की जो ईंट-भट्टी में पसीने की कमाई को इज़्ज़त देता है। अंशु शायद उस बच्चे की तस्वीर भी बनाए जो अपने बस्ते में लाल डिब्बे को रख रहा है जिसमें चंद निवाले पीले पुलाव के भरे हैं।

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WU Team

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