4 करोड़ मज़दूरों के नाम हटाए गए मनरेगा की सूची से, आखिर क्या है सरकार की मंशा
2014 के लोकसभा चुनावों का दौर था. पक्ष-विपक्ष के प्रचार अभियान अपने जोर पर था. हालाँकि की प्रचार अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी उन्नीस नज़र आ रहे थे. अपनी एक रैली को सम्बोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने तब के कांग्रेस सरकार पर हमला करते हुए मनरेगा को उनके घोटालों का गढ़ बोला था.
हालाँकि 2020 के कोरोना लॉकडाउन के बाद जब बड़ी संख्या में प्रवासी मज़दूर जैसे तैसे अपने घरों को लौटें तो मोदी सरकार को भी उन मज़दूरों के रोजगार का प्रबंध करने के लिए मनरेगा की शरण में ही आना पड़ा.
लेकिन मौजूदा मोदी सरकार द्वारा जारी ताज़ा आंकड़े कुछ अलग कहानी बयान कर रही हैं.
ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह ने बीते मंगलवार को लोकसभा में बताया कि 2022-23 में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) की सूची से 5.18 करोड़ श्रमिकों के नाम हटाए गए हैं.
मालूम हो की संसद में कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई और वीके श्रीकंदन द्वारा पूछे गए सवालों का जवाब देते हुए मंत्री गिरिराज सिंह ने ये आंकड़े संसद के समक्ष रखे.
हटाए गए नामों की संख्या 2021-22 की तुलना में 247% अधिक
यह योजना देश के प्रत्येक ग्रामीण परिवार के लिए 100 दिनों के काम की गारंटी देती है. काम करने योग्य लोगों के नाम एक जॉब कार्ड जारी किया जाता है और सारे मज़दूरों के नाम की एक सूची बनाई जाती है. लेकिन सूची से यदि किसी श्रमिक का नाम हट जाता है तो वो काम करने के अयोग्य करार दिया जाता है .
जनवरी में नरेंद्र मोदी सरकार ने मनरेगा जॉब कार्ड को आधार कार्ड से जोड़ना अनिवार्य कर दिया था. सरकार के इस फैसले का श्रमिकों और मनरेगा मज़दूरों के लिए काम करने वाले कई संगठनों ने भारी विरोध किया. देश भर कर श्रमिकों और संगठनों ने अपने विरोध को दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रतिरोध मार्च करते हुए दर्ज कराया.
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सस्ता श्रम पूंजीपतियों तक पहुँचाना है सरकार की मंशा
मज़दूर संगठनों का आरोप था की सरकार के इस फैसले से मनेरगा में व्याप्त भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी होगी. उनका कहना है की सरकार पूंजीपतियों को सस्ता श्रम उपलब्ध कराने के अपने मंसूबे पर आगे बढ़ रही है और इसलिए मनरेगा को कमजोर करने के लिए इस तरह की नीतियों को लागू कर रही हैं.
मज़दूर संगठनों के भारी विरोध के बाद भी सरकार अपने फैसले से पीछे हटने को तैयार नहीं है. हालाँकि विरोध प्रदर्शनों के बाद आधार-आधारित भुगतान के कार्यान्वयन की समय सीमा चौथी बार 31 अगस्त तक बढ़ा दी गई है.
सरकारी डेटाबेस में गड़बड़ी का खामियाज़ा मज़दूरों को भुगतना पड़ रहा
द हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार द्वारा दी गई समय सीमा को पूरा करने की कोशिश कर रही राज्य सरकारें उन श्रमिकों के नाम हटाने का सहारा ले रही हैं, जिनके रिकॉर्ड में दो डेटाबेस में विसंगतियां हैं. सरकारी डाटाबेस के लीपापोती का खामियाज़ा मज़दूरों को भुगतना पड़ रहा है.
ग्रामीण विकास मंत्रालय से पूछे गए एक सवाल में कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई और वीके श्रीकंदन ने पूछा था कि क्या 2021-22 की तुलना में वित्त वर्ष 2022 -23 के दौरान मनरेगा सूची से मज़दूरों के नाम हटाने में 244.3 फीसदी की वृद्धि हुई है.
इसके जवाब में सिंह ने कहा कि 2021-22 में 1,49,51,247 श्रमिकों के मनरेगा जॉब कार्ड हटाए गए थे, जबकि 2022-23 में यह आंकड़ा 5,18,91,168 था।
मंत्री गिरिराज सिंह ने इसका जबाव देते हुए कहा की नाम हटाने का काम राज्य सरकारों द्वारा किया जाता है और यह हमारे डाटाबेस में किसी प्रकार की कोई खामी का नतीजा नहीं है.
सिंह ने लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में कहा “जॉब कार्ड को हटाने के विभिन्न कारण हैं जैसे की फर्जी जॉब कार्ड, डुप्लिकेट जॉब कार्ड, काम करने के लिए तैयार नहीं होना, परिवार को ग्राम पंचायत से स्थायी रूप से स्थानांतरित कर दिया जाना इत्यादि.
हालाँकि मज़दूर संगठन सरकार के इस जबाव से संतुष्ट नज़र नहीं आ रहें है. उनका मानना है की सरकार एक तरह से छंटनी का सहारा ले रही है ,ताकि बड़े शहरों और फैक्टरियों तक मज़दूरों के सस्ते श्रम को पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त हो.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार पश्चिम बंगाल से सबसे ज्यादा 83.36 लाख मज़दूरों का नाम,इसके बाद आंध्र प्रदेश से 78.05 लाख, ओडिशा से 77.78 लाख, बिहार से 76.68 लाख और उत्तर प्रदेश से 62.98 लाख मज़दूरों के नाम वित्त वर्ष 2022 – 23 के दौरान मनरेगा सूची से हटाए गए हैं.
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