मनरेगा में खटते खटते मर गई पत्नी, मरने के बाद भी नहीं मिली मज़दूरी- ग्राउंड रिपोर्ट
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By अभिनव कुमार, रोहतास से
“मनरेगा में हम दोनों खटे थे। लेकिन मज़दूरी नहीं मिली। वो बीमार पड़ी और उसका ठीक से इलाज़ भी नहीं करा पाए। वो चली गई। उसके साथ ही मनरेगा की मज़दूरी भी बट्टे खाते में चली गई।”
बिहार के रोहतास जिले के करगहर ब्लॉक के मोहनपुर खरसान गांव के रहने वाले सुनील कुमार तांती कहते हैं कि वो और उनकी पत्त्नी सुनीता देवी मनरेगा मज़दूर के तौर पर काम करते थे।
सुनील अपनी आप बीती बताते हुए कहते हैं, “मज़दूरी का नियम यही है की काम खत्म होने के 15 दिनों तक मज़दूरी का भुगतान हो जाना चाहिए, लेकिन आलम ये है कि मज़दूरों को मज़दूरी के लिए महीनों यहाँ तक की कई मज़दूरों को साल- सालभर बाद भी मज़दूरी का भुगतान नहीं किया जाता।”
2019 में सुनील और उनकी पत्नी को भी अपने बकाया मज़दूरी के लिए महीनों चक्कर काटने पड़े। पत्नी की तबियत भी लगातार ख़राब रहने लगी थी।
सुनील बताते हैं कि अगस्त महीने की एक रात उनकी पत्नी की तबियत अचानक ज्यादा बिगड़ गई। पैसे न होने के कारण गांव के ही एक व्यक्ति से उन्हें ब्याज़ पर कर्ज लेना पड़ा। गाड़ी का बंदोबस्त कर वो हॉस्पिटल की ओर भागे, लेकिन बीच रास्ते में ही उनकी पत्नी की दर्दनाक मृत्यु हो गई।
वो कहते हैं, “समय से मज़दूरी मिल गई होती और सुनीता को इलाज मिल पाता तो शायद वो जिन्दा होती। पत्नी की मृत्यु के बाद भी उसकी मज़दूरी का भुगतान हमें नहीं किया गया। जब मैंने रोजगार सेवक और ब्लॉक में जाकर इस पर सवाल किया तो मुझे बताया गया कि मज़दूर के मृत्यु के बाद उसके मज़दूरी भुगतान करने का कोई प्रावधान नहीं है योजना में।”
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मोदी की गारंटी और मनरेगा मज़दूरों की बेबसी
लगभग ऐसी ही कहानी इसी ब्लॉक के योगीपुर गांव में मिले एक मज़दूर ने सुनाई।
उन्होंने बताया कि ‘वो और उसकी पत्नी मनरेगा के तहत गांव के पास ही मिट्टी खोदने का काम करते थे।
20 दिनों के काम की मज़दूरी के लिए उन्हें और उनकी पत्नी को महीनों सरकारी दफ्तर के चक्कर काटने पड़े पर मज़दूरी नहीं मिली।
पत्नी ने 8 माह के गर्भ के साथ मज़दूरी की। इसी बीच पत्नी को लेबर पेन हुआ और वो उसे पैसे के आभाव में समय पर अस्पताल नहीं ले जा पाए और उनके गर्भस्थ शिशु की मौत हो गई।
वर्कर्स यूनिटी के पड़ताल से पता चलता है कि बिहार के लगभग सभी ज़िलों में मज़दूरों के बकाया महीनों से लंबित पड़े हुए हैं। जबकि मनरेगा में काम करने वाले मज़दूरों को 15 दिनों में मज़दूरी भुगतान करने का विभागीय प्रावधान है।
बगल के ज़िले कैमूर में भी जनवरी माह में मज़दूरों ने अपनी बकाया मज़दूरी के लिए ज़िला मुख्यालय पर प्रदर्शन किया था। ज़िले के हज़ारों मज़दूर करीब 10 करोड़ रुपये से ज्यादा की बकाया मज़दूरी के लिए ज़िले से लेकर प्रखंडों में स्थित मनरेगा कार्यालय की दौड़ लगाते रहे।
रोहतास ज़िले में करगहर प्रखंड के मोहनपुर गांव की रहने वाली मनीषा देवी बताती हैं, “इतनी धूप और गर्मी में हम अपने बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए ही मेहनत करते हैं। अपने छोटे से बच्चे को घर पर अकेला छोड़ मैं काम पर आती हूँ और इतनी मुश्किलों के बाद पता चलता है कि मज़दूरी के लिए भी महीनों दौड़ना हैं।”
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पास ही खड़ी जीरा देवी बताती हैं, “इतने सालों से मनरेगा में हम काम कर रहे हैं। पहले मज़दूरी को लेकर इतनी समस्या नहीं आती थी लेकिन बीते सालों में ये समस्या बहुत बढ़ गई है। क्या फायदा हमारे काम करने का जब हमारी जरूरतें ही पूरी नहीं हो पा रही हैं। अब तो दुकानदार ने भी उधार देना बंद कर दिया है।”
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इसी बातचीत के बीच अपनी चिंता ज़ाहिर करते हुए सहोदार देवी कहती हैं, “मज़दूरी समय पर न मिलने का ज़्यादा ख़ामियाज़ा हम महिलाओं को भुगतना पड़ता है। मर्द आस-पास के बाजार जाकर छोटे- मोटे काम कर लेते हैं। हम कहाँ जाएं? हमें तो घर के पास ही काम करना होता है, परिवार-बच्चों को देखना होता है। यहाँ काम करके कुछ हाथ खर्च निकल जाते थे, पर अब मजूरी करने के बाद भी पैसे नहीं मिल रहे।”
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मनरेगा पर मोदी का हमला
मनरेगा में घटता बजट आवंटन, इलेक्ट्रॉनिक हाज़िरी का तुगलकी फरमान और बकाया भुगतान का एक मकड़जाल ग्रामीण मज़दूरों के लिए एक अदृश्य फांसी बन चुका है।और इस फांसी की रस्सी का धागा खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार सत्ता में आते ही बांटना शुरू कर दिया था।
2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में एक बहस के दौरान कहा था कि “मनरेगा यूपीए के भ्रष्टाचार का स्मारक है।”
लेकिन तब शायद उन्हें भी नहीं पता था कि 5 साल बाद जब ये देश, दुनिया का सबसे बड़ा रिवर्स माइग्रेशन देख रहा होगा तब यही ‘स्मारक’ उनकी सरकार के डूबते के लिए तिनका का सहारा बन जाएगा।
लेकिन मोदी सरकार की इससे भी आंख नहीं खुली और सरकारी नौकरियों पर ताला लगाने के बाद गांव में मनरेगा के बजट को भी लगातार भुखमरी के समान बनाए रखा।
मोदी की गारंटी, मनरेगा बजट घट कर आधा रह गया
केंद्र सरकार की ओर से जारी आंकड़ों (https://nrega.nic.in/Nregahome/MGNREGA_new/Nrega_StateReport.aspx?typeN=1) के मुताबिक बीते 2 फरवरी 2023 तक देश भर में 15,06,76,709 एक्टिव मज़दूर हैं. यानी जिन्हें इस वक्त काम मिल रहा है.
वहीं देशभर में कुल रजिस्टर्ड मज़दूरों की संख्या 29,72,36,647 है.
2008 से 2011 के बीच मनरेगा के लिए सालाना आवंटन जीडीपी का 0.4 फ़ीसदी था। लेकिन साल 2023 का 60 हज़ार करोड़ का बजट आवंटन जीडीपी का महज़ 0.2 फ़ीसदी है।
इस योजना पर अध्ययन करने वाले अर्थशास्त्रियों और कार्यकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि ज़रूरत इस आवंटन से दोगुनी है, हालांकि फिर भी यह जीडीपी का एक मामूली हिस्सा ही है।
लेकिन देखिए मनरेगा बजट में कटौती का हाल ये है-
वित्तीय वर्ष 2020-2021 एक लाख 11,500 करोड़ रुपये
वित्तीय वर्ष 2022-23 89,000 करोड़ रुपए
वित्तीय वर्ष 2023-24 60,000 करोड़ रुपए
नरेंद्र मोदी ने मनरेगा पर खुद आगे बढ़कर प्रहार करते हुए इसे कांग्रेस सरकारों की असफलता का स्मारक बताया था और कहा था कि कांग्रेस के कुशासन ने इतने लोगों को मनरेगा में काम करने लायक बना कर छोड़ दिया।
हालांकि ये अलग बात है कि बीते दो साल से मोदी सरकार 80 करोड़ लोगों को फ्री का राशन दे रही है।
और उस तर्क से उसने 80 करोड़ लोगों को इस हालात में पहुंचा दिया है जहां उन्हें दो वक्त की रोटी के लिए भी सरकार के रहमोकरम पर निर्भर होना पड़ रहा है।
रोज़गार नहीं है, महंगाई चरम पर है। मनरेगा में भी काम नहीं है। जो काम है, उसका दाम नहीं मिल रहा है। विश्व गुरू का गुरूर पाले नए इंडिया में कहीं भी 10-15 हज़ार रुपये से अधिक की नौकरी नहीं है। तो मनरेगा को वेंटिलेटर पर डालने से क्या बदलाव हुआ?
यानी ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट जो कहते हैं कि पूंजीपतियों के लिए सस्ते से सस्ते मज़दूरों की सेना खड़ी करने के लिए मनरेगा पर प्रहार हुआ था?
मोदी सरकार के तर्क में कितना दम?
क्या सचमुच मनरेगा ने ग्रामीण अकुशल मज़दूरों के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं लाया? क्या ये पिछली सरकार के घोटालों का नमूना भर है?
पिछले लगभग 20 सालों से बिहार के रोहतास ज़िले में मनरेगा मज़दूरों के बीच काम कर रहे अशोक कुमार हमारे इन सवालों का जवाब देते हुए बताते हैं।
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“मनरेगा ग्रामीण मज़दूरों के जीवन में और खासकर मालिक- मज़दूर संबंधों में एक बड़ा बदलाव लेकर आई। इसने ग्रामीण इलाकों में मज़दूरों से काम निकलवाने के जो सामंतवादी तौर-तरीके थे, उनको काफ़ी कमज़ोर किया। इस योजना के आने के पहले हमारे इलाके में मज़दूरों के लिए कोई तय मज़दूरी दर नहीं थी। मालिक मज़दूरों से अपने मनचाहे दर या सिर्फ अनाज देकर काम निकलवा लेते थे।”
“साल 2005 में हमारे इलाके में न्यूनतम मज़दूरी 20 रुपये या कहीं-कहीं 40 रुपये हुआ करती थी या फिर 3 किलो अनाज। फरवरी, 2005 में मनरेगा के आने के बाद इस योजना के तहत मज़दूरों से न्यूनतम मज़दूरी 65 रुपये पर काम लिया जाने लगा। तब मनरेगा के तहत मज़दूरों को नकद मज़दूरी भुगतान की जाती थी। इस योजना ने मालिकों को मज़बूर किया और उनको भी मज़दूरी बढ़ानी पड़ी, मज़दूर भी अपने मन मुताबिक काम करने लगे”।
वो कहते हैं, “लेकिन बाद के समय में सरकार द्वारा इस योजना को जानबूझ कर कमजोर किया जाने लगा। मोदी सरकार ने इस योजना का बजट लगातार कम किया है। नए-नए नियम बनाये गए, जिससे मज़दूरों की परेशानियां बढ़ती गईं। कभी काम के लिए तो कभी मज़दूरी के लिए मज़दूरों को प्रखंड कार्यालय और रोजगार सेवक के चक्कर काटने पड़ते हैं। काम के दिन लगातार कम हो रहे हैं।”
मज़दूरों का 32000 करोड़ रुपये बकाया
आंकड़े ये बताते हैं कि 2023-24 के लिए मनरेगा के तहत बकाया भुगतान सहित कुल खर्च 99,514 करोड़ रुपये का था. अकेले अवैतनिक बकाया राशि 11,000 करोड़ रुपये से अधिक था।
एक्सपर्ट्स ने आशंका जताई थी कि वित्तीय वर्ष 2023 -24 के दौरान मज़दूरों की बकाया मज़दूरी 32,000 करोड़ रुपये हो जाएगी।
2024 – 25 के अंतरिम बजट में घोषित आवंटित राशि 86,000 करोड़ रुपये में से 32,000 करोड़ के बकाया मज़दूरी को कम कर दिया जाये तो केवल 54,000 करोड़ रुपये ही बचता है।
अशोक ने एक और समस्या के तरफ ध्यान दिलाते हुए बताया, “मज़दूरों के सामने समस्या सिर्फ बकाया मज़दूरी का ही नहीं है. काफी संख्या में जाली जॉबकार्ड ठेकेदार और मनरेगा के विभागीय लोगों के मदद से बनाये गए हैं। ऐसे लोग जो गांव में नहीं रहते उनके भी जॉब कार्ड बनाये गए है और उनकी झूठी हाज़री बनाई जाती है.”
वो बताते हैं, “मज़दूर अगर 20 दिन काम करता है तो ठेकेदार 10 दिनों की मज़दूरी देकर बाकि के 10 दिनों की मज़दूरी लटका देते हैं, ये बाकि के 10 दिनों की हाज़री उन फ़र्ज़ी जॉबकार्ड वालों के नाम पर बना देते हैं। और जिन मज़दूरों ने सचमुच योजना के तहत काम किया उनकी उपस्थिति अगले वित्तीय वर्ष के अंतर्गत किसी दूसरे मस्टररोल में दिखा देते हैं। ऐसे में मज़दूर की मज़दूरी भी फंसी और अगले साल के काम के दिनों में से 10 दिन भी कम हुए।”
100 दिन का दावा, 16 दिन भी काम नहीं मिलता
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2023 -24 के बजट में आवंटन से प्रति परिवार लगभग 16 दिनों का ही औसत रोजगार मिला।
मनरेगा मज़दूर रविंद्र पासवान बताते हैं “एक तो न काम का ठिकाना न मज़दूरी और ऊपर से ठेकेदार कहता है कि मज़दूर अपने घर से कुदाल, फावड़ा और टोकरी लेकर आएं। जब हमारे लिए मज़दूरी से परिवार चलाना ही संभव नहीं तो हम ये सब सामान कहां से ख़रीदें।”
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अशोक कहते हैं, “मनरेगा के तहत मज़दूरों को कार्य स्थल पर ही कुदाल-फावड़ा और बाकि की चीजें उपलब्ध कराने का प्रावधान है. इसके साथ ही मज़दूरों के लिए पीने के पानी ,शौच, फर्स्ट ऐड किट, उनके छाँव के लिए तिरपाल की व्यवस्था के प्रावधान है। लेकिन जब मज़दूरी ही सही से न मिले तो बाकि की सारी चीजों पर बात करना ही बेमानी है।”
ग्रामीण मज़दूर यूनियन से सम्बद्ध अशोक बताते हैं, “जिन भी गांव के मज़दूर किसी संगठन से सम्बद्ध है ,उनमें एक बात देखने को मिलती है कि उनकी मज़दूरी और काम मिलने की दशा उन मज़दूरों से बेहतर है जो किसी भी संगठन से नहीं जुड़े हैं।”
हालांकि अशोक का कहना है कि इस काम के दौरान उन जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं को कई खतरों से गुजरना पड़ता है। ठेकेदार और रोजगार सेवक कई बार मारपीट पर उतारू हो जाते हैं। कई बार तो जान से मार देने की धमकी मिलती है।
बिहार का पलायन और नेताओं की चुप्पी
वर्कर्स यूनिटी ने कई गांव में मज़दूरों से मनरेगा के बारे में बात करने की कोशिश कि लेकिन वो मनरेगा का जिक्र आते ही बिदक जाते है.
वो कहते हैं, “अगर मनरेगा सही से काम करे तो आपको गांव में इतने बड़े स्तर पर पलायन देखने को नहीं मिलेगा। हम भी गांव घर छोड़ कर नहीं जाना चाहते।”
वर्कर्स यूनिटी ने मनरेगा से संबंधित सवालों को लेकर जब जिले के लेबर सुपरिटेंडेंट निशा कुमारी से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने आचार संहिता का हवाला देकर बात करने से इनकार कर दिया।
बिहार देश का वो राज्य रहा है जहां से मज़दूर बड़ी संख्या में काम की तलाश में पलायन करते हैं। मनरेगा ने अपने शुरुआती दौर में बिहार में जो थोड़े- बहुत बदलाव लाये, उस बदलाव की बयार को अक्सर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कैश करते नज़र आते हैं।
जनवरी माह से पहले तक केंद्र की मोदी सरकार को अक्सर मनरेगा के सवाल पर कोसने वाले नीतीश कुमार फिलहाल इस मामले पर चुप्पी साधे हुए हैं।
रोजगार बिहार के आम जनता के बीच सबसे बड़ा मुद्दा है। मनरेगा जैसी योजना अपनी तमाम तरह की विरोधाभासों के बीच आज भी करोड़ों लोगों को रोजगार देने में सक्षम है। लेकिन चुनावी सरगर्मियों के बीच विपक्ष भी अपने मंचों से इसकी बदहाली को लेकर मुखर नज़र नहीं आता।
मनरेगा योजना क्या है?
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) का क़ानून अगस्त, 2005 में पास हुआ और अप्रैल 2008 से लागू हुआ।
इसके तहत हर परिवार के एक व्यक्ति को साल भर में 100 दिन तक रोज़गार देने की गारंटी है।
रोज़गार चाहने वाले व्यक्ति को ग्राम पंचायत की ओर से पांच किलोमीटर के दायरे में काम मिलता है और न्यूनतम मज़दूरी दी जाती है।
आवेदन के 15 दिनों के भीतर काम नहीं मिलने पर बेरोज़गारी भत्ता दिए जाने का प्रावधान भी है।
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