मजदूर वर्ग व उत्पीड़ित जनता के दोस्त फादर स्टैन स्वामी -1
By मुकेश असीम
‘सत्य और न्याय’ की आवाज के प्रतिनिधि के तौर पर शोषित-उत्पीड़ित जनता एवं वंचित समुदायों के संघर्षों की मुखर आवाज तथा ता-उम्र गरीब व जरूरतमंद जनता के लिए अपनी पूरी ताकत से कार्य करने वाले फादर स्टैन स्वामी ने इसके साथ ही लंबे समय तक बिना मुकदमा बंदियों व विचाराधीन कैदियों के साथ होने वाले जुल्म के खिलाफ, उनके संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा व रिहाई के लिए भी संघर्ष किया।
और इस संघर्ष की सजा के तौर पर भारत के इस बुर्जुआ ‘जनतंत्र’ की फासीवादी सरकार ने उन्हें चढ़ती उम्र और गंभीर बीमारी के बावजूद बिना मुकदमा और सजा के ही जेल में बंदी बना लिया और तब रिहा किया इलाज के लिए जब ज़िंदगी का दिया लगभग बुझ चुका था।
8 अक्तूबर 2020 को पार्किंसन बीमारी से पीड़ित फादर स्टैन को नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) ने भीमा-कोरगांव हिंसा व माओवादियों से संबंध के इल्जाम में आतंकवाद निरोधक कानून यूएपीए के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया और तलोजा जेल में रखा।
स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याओं के बावजूद नीचे से ऊपर तक किसी अदालत ने उन्हें जमानत देना तो दूर, बेहद कांपते हाथों से पकड़कर पानी पीने के लिए सिपर बोतल व स्ट्रॉ तक नहीं दिया गया, इलाज के लिए उपयुक्त डॉक्टर तक को नहीं दिखाया गया।
आखिर लगभग अचेत हो जाने पर होली फैमिली अस्पताल, मुंबई में भर्ती किया गया जहाँ मुंबई हाईकोर्ट द्वारा जमानत की सुनवाई होने से पहले ही 5 जुलाई 2021 को उनकी मृत्यु हो गई।
ऐसा नहीं कि उन्हें भारतीय राजसत्ता खास तौर पर उसके फासिस्ट संस्करण के प्रतिशोधी व हिंसक चरित्र का अंदाजा नहीं था। अच्छी तरह पता था। ‘मैं मूकदर्शक नहीं रहूंगा और भारत के सत्ताधारियों से असहमति व्यक्त करने और उन पर प्रश्न उठाने की जो भी कीमत मुझे अदा करनी पड़ेगी, उसे अदा करने के लिए मैं तत्पर हूं।’
फादर स्टेन स्वामी ने अपनी गिरफ्तारी के दो दिन पूर्व यह बयान दिया था, जिसे उन्होंने ता-उम्र निभाया। दरअसल, वे अपनी पूरी उम्र पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण व अन्याय के विरुद्ध प्रश्न उठाते रहे और इसकी कोई भी कीमत चुकाने के लिए भी तैयार रहे, और अंत में चुकाई भी।
वैचारिक विकास यात्रा
1937 में त्रिची (तमिलनाडु) में जन्मे स्टैन रोमन कैथोलिक ईसाई थे और युवावस्था में ही पादरी बन कैथोलिकों के जेसूइट ऑर्डर में शामिल हो गए थे। उसकी ओर से ही धर्मशास्त्र व समाजशास्त्र की उच्च शिक्षा हेतु वे 1960 के दशक में फिलीपींस गए।
इसी अध्ययन के दौर में वे दक्षिण अमरीका में ‘मुक्ति के धर्मशास्त्र’ (लिबरेशन थिओलोजी) के प्रमुख हिमायतियों में से एक ब्राजीलियन बिशप एव्डर कमारा के विचारों के संपर्क में आए। ब्राज़ील में सैन्य तानाशाही के उस दीर्घ दौर में कमारा गरीबों के लिए सामाजिक-आर्थिक कार्य और मानव अधिकारों व जनतंत्र के लिए आवाज उठाने के लिए जाने जाते हैं जो चर्च को जीसस के उपदेशों के अनुरूप गरीबो-वंचितों के करीब ले जाने के प्रबल पक्षधर थे।
“जब मैं गरीबों को रोटी देता हूँ तो वे मुझे संत कहते हैं, पर जब मैं पूछता हूँ कि वे गरीब क्यों है तो मुझे कम्युनिस्ट कहा जाता है” यह मशहूर कथन एव्डर कमारा का ही बताया जाता है। पर कमारा कम्युनिस्ट नहीं, समाजवादी थे, जिनकी नजर में समाजवाद का अर्थ न्याय था जो ईसा के उपदेशों के अनुरूप था। खुद कमारा के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था के मार्क्स के विश्लेषण से उनकी सहमति थी पर मार्क्स के निष्कर्षों से नहीं। कमारा अहिंसा के समर्थक थे पर सशस्त्र संघर्ष के विरोधी नहीं।
एक इंटरव्यू में उन्होने कहा था, “कंधे पर राइफल रखे पादरियों का मैं बहुत आदर करता हूँ…उत्पीड़क के खिलाफ शस्त्र प्रयोग अनैतिक या ईसाइयत विरोधी नहीं है। पर यह मेरा मार्ग नहीं है।”
कमारा व लिबरेशन थिओलोजी के अन्य विचारकों ने युवा स्टैन को बेहद प्रभावित किया और वे जीवन पर्यंत उत्पीड़ितों के साथ मजबूती से खड़े रहे।
फादर स्टैन पर एक और गहरा प्रभाव डालने वाले एक अन्य ब्राजीलियाई क्रिश्चियन समाजवादी पाओलो फ्रेरे थे। शिक्षा प्रसारक व दार्शनिक फ्रेरे समालोचनात्मक शिक्षण शास्त्र के सर्वप्रमुख विचारक माने जाते हैं और ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’ (पेडागोगी ऑफ द ऑप्रेस्ड) उनकी अत्यंत प्रसिद्ध पुस्तक है।
फ्रेरे के अनुसार शिक्षा कोई तटस्थ प्रक्रिया नहीं है, जो या तो पीढ़ियों को मौजूदा व्यवस्था के तर्कों व हितों के अनुरूप ढाल आज्ञाकारी बनाने का औज़ार होती है या ‘आजादी का औजार’ जो उन्हें अपनी वास्तविकता के बारे में आलोचनात्मक समझ विकसित करने व इसे बदलने में शामिल होने की दृष्टि प्रदान करती है।
फ्रेरे लैटिन अमरीका, एशिया व अफीकी देशों की जनता मे परंपरागत व औपनिवेशिक संस्कृति के प्रसार के बजाय गैर-परंपरागत व उपनिवेशवाद विरोधी शिक्षा की जरूरत पर बल देते हैं। उत्पीड़क-उत्पीड़ित अंतर्विरोध की हेगेलीय धारणा को आगे बढ़ाते हुये फ्रेरे ऐसी शिक्षा की वकालत करते हैं जो उत्पीड़ितों के अपने मानवता बोध को जगाए, उन्हें बेचारे की तरह न देखे, परमुखापेक्षी बनाने के बजाय उन्हें खुद अपनी मुक्ति के संघर्ष के संचालन के लिए सक्षम बना सके।
अतः फ्रेरे के लिए शिक्षा अराजनीतिक कार्य नहीं है बल्कि शिक्षण-अध्ययन दोनों का राजनीतिक गतिविधि होना आलोचनात्मक शिक्षा शास्त्र का बुनियादी सिद्धांत है। फ्रेरे समकालीन चीनी सांस्कृतिक क्रांति को सामाजिक रूपांतरण के ऐसे सांस्कृतिक कार्य का उत्कृष्ट उदाहरण मानते हुये मार्क्सवादी सिद्धांत व प्रयोग में माओ के योगदान की प्रशंसा करते हैं। पर याद रहे वे मार्क्सवादी नहीं, क्रिश्चियन समाजवादी थे जो 1980 के दशक में ब्राज़ील की सामाजिक-जनवादी वर्कर्स पार्टी में भी शामिल रहे।
अपनी वैचारिक विकासयात्रा के बारे में खुद फादर स्टैन अपनी आत्मकथात्मक पुस्तिका ‘आई एम नॉट अ साइलेंट स्पेक्टेटर’ में बताते हैं कि वे बैंगलोर के इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट (आईएसआई) में थे जहाँ सामाजिक-आर्थिक विकास का प्रशिक्षण दिया जाता था जिसका मकसद प्रशिक्षुओं को किसी व्यवसाय के कौशल से युक्त करना था।
मगर 1970 का दशक आते-आते समझा गया कि समाज के शीर्ष स्तर को समृद्ध बनाने और नीचे तक इस समृद्धि के बूंद-बूंद टपकने वाले सिद्धांत वाले ‘विकास’ से उनको कोई लाभ नहीं हुआ जिन्हें इसकी सर्वाधिक जरूरत थी। पूरी विकासशील दुनिया में यही बूंद टपकने वाला सिद्धांत हावी था, मगर उत्पीड़ित जन बस ऊपर की ओर निगाह गड़ाए थे, पर कोई बूंद रिस कर उन तक नहीं पहुंच रही थी।
इसी बीच इमरजेंसी के दौरान ‘भूमि जोतने वाले को’ की घोषित सरकारी नीति के कार्यान्वयन का अनुभव भी हुआ। बैंगलोर के ठीक बाहर स्थित इस गांव में भूस्वामियों के स्वामित्व में 300 एकड़ जमीन थी जबकि जमीन को असल में जोतने वाले 30 परिवार उनके बंटाईदार थे।
आईएसआई व कुछ कार्यकर्ताओं ने इन किसानों को उनके अधिकारों के प्रति सचेत करने के साथ ही इस पर एक रिपोर्ट बनाई जो बैंगलोर के एक अखबार में प्रकाशित होने पर वहां के जिलाधिकारी ने तुरंत खुद वहां जाकर सारी पड़ताल की और जमीन का मालिकाना जोतने वालों को देने के आदेश दिये। पर भूस्वामी हाईकोर्ट में चले गए जिसने तकनीकी आधार पर उनके पक्ष में फैसला दिया।
जिलाधिकारी को भी पहले तबादला किया गया और बाद में जर्मनी में मत्स्यपालन के ‘अध्ययन’ के लिए भेज दिया गया। इस अनुभव से भी स्पष्ट था कि अफसरशाही व न्यायालय के मौजूदा तंत्र के सहारे जनता को न्याय और अधिकार दिलाने की बात भ्रम से अधिक कुछ नहीं। उन गांवों के चर्च के संबंध भी इन भूस्वामियों के साथ अच्छे थे अतः चर्च की ओर से भी फादर स्टैन और उनके साथियों को विरोध का सामना करना पड़ा।
यही हालात थे जब पाओलो फ्रेरे के ‘पेडागोगी ऑफ द ऑप्रेस्ड़’ के दर्शन ने फादर स्टैन के दिमाग के तारों को झनझनाया। इसके अनुसार अगर उत्पीड़ितों को उनकी स्थिति, समाज में मौजूद अंतर्विरोधों एवं शोषण-उत्पीड़न के तंत्र के बारे में जागृत कर दिया जाए तो वे उठ खड़े होंगे व खुद को उत्पीड़न मुक्त करने के उपाय ढूंढ निकालेंगे। तब उन्होंने इसी संदेश को स्थानीय भाषा में वंचित जनता के बीच पहुंचाना शुरू किया जिसने कार्यकर्ताओं व जनता में एक नये उत्साह का संचार किया।
इसी क्रम में नौजवानों की ओर से मांग उठी कि उन्हें मार्क्सवाद सीखना है। तब उन्होंने ‘सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण’ तथा शोषित-उत्पीडित जनता को अपने अधिकार हासिल करने के संघर्ष हेतु कैसे जुटाया/संगठित करने के तरीकों के छोटे पाठ्यक्रम आरंभ किए जिनमें स्पष्ट रूप से स्वीकृति थी कि उनके सामाजिक विश्लेषण मार्क्सवादी विश्लेषणात्मक उपकरणों पर आधारित थे।
पर जैसा फादर स्टैन स्वयं बताते हैं कि इन पाठ्यक्रमों व प्रकाशनों के ‘मार्क्सीय’ स्वर से चर्च के हलक़ों में भी विरोध खड़ा हुआ कि आईएसआई जेसूइट धार्मिक संस्था है या ‘मार्क्सीय’? किंतु धर्मशास्त्रियों के एक समूह ने लंबी चर्चा के बाद संयुक्त बयान जारी कर उनके विश्लेषण को सही ठहराते हुये इसे वक्त की जरूरत करार दिया जिसने उनके इरादों और गतिविधियों पर चर्च के भीतर विरोध के स्वरों को कुछ हद तक शांत किया।
यहाँ हम उस दौरान चर्च के कुछ हलक़ों में प्रचलित हो रही लिबरेशन थिओलोजी के प्रभाव की स्पष्ट झलक देख सकते हैं।
स्वाभाविक ही था सामाजिक ढांचे और उसकी गतिकी की समझ के लिए एक स्पष्ट तौर पर ‘मार्क्सीय’ नजरिया अपनाने से मार्क्सवाद की ‘नास्तिकता’ से पारंपरिक विरोध रखने वाले संगठन, समूह खास तौर पर धार्मिक समूह आईएसआई के इस समूह से अलग हो गए और नए वामपंथी व जन अधिकारों के लिए काम करने वाले नए संगठनों के साथ फादर स्टैन का जुड़ाव बड़ा।
इस बदलाव को उन्होने स्वागतयोग्य सकारात्मक चीज माना। इस प्रकार फादर स्टैन वैचारिक रूप से वामपंथी-समाजवादी रुझान रखने वाले समूहों-आंदोलनों के करीब आए।
इस प्रकार फादर स्टैन निश्चित रूप से समाजवादी समाज व्यवस्था के समर्थक बन गए। हांगकांग एवं चीन की अपनी यात्रा के तुलनात्मक अनुभव के आधार पर उन्होने लिखा कि, “पूंजीवाद व समाजवाद में निश्चय ही अंतर है, जहां पूंजीवाद गुलामी का अनुभव कराता है, तो समाजवाद मुक्ति का।“ (आई एम नॉट अ साइलेंट स्पेक्टेटर, Page 48; आगे के उद्धरणों सभी पृष्ठ संख्यायें इसी पुस्तक से हैं; सभी अनुवाद मेरे हैं – लेखक)
चीनी समाज का वर्णन करते हुये वे लिखते हैं, “कुछ दिन बाद एक चीनी मित्र के साथ चीन जाने का अवसर मिला। हम दक्षिण-पूर्व चीन के बड़े शहर ग्वांग्झु गए। वहां मैंने निम्न आर्थिक स्तर वाले साधारण लोगों से मिलकर उनके जीवन के बारे में जानने का प्रयास किया। याद रहे कि 1989 पूंजीवादी आक्रमण के सामने पूरी तरह समर्पण से ठीक पहले चीनी समाजवाद के सुदूर अंत का वक्त था।
हर वयस्क के पास रोजगार था, मजदूरी भारतीय स्तर की तुलना में भी कम थी, पर हर परिवार के पास अपना छोटा घर था, 3 साल की उम्र से बच्चे की शिक्षा की ज़िम्मेदारी राज्य लेता था (एक बच्चे का कायदा लागू था), परिवार के सभी सदस्यों को निशुल्क स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध थीं, सार्वजनिक यातायात पर्याप्त था, स्त्री-पुरुष काम पर जाना-आना अधिकांशतया साइकिल से करते थे और खाद्य सामग्री व कपड़ों जैसे उपभोक्ता सामानों के दाम भी आय के अनुपात में ही थे।“ (Page 49)
और भी, “उनसे बात करने पर पता चलता था कि साधारण चीनी भारतीयों से कतई नफरत नहीं रखते थे। उनका कहना था कि भारत व चीन सरकारों में झगड़ा है पर आम लोगों को भारतीयों से कोई दिक्कत नहीं। मेरी घड़ी की चेन टूटी हुई थी तो मेरे दोस्त मुझे एक चकाचौंध रहित छोटी घड़ी दुकान में ले गए जहां बिक्री व मरम्मत के लिए दर्जनों घड़ियां दीवार पर टंगी थीं। एक नवयुवती घड़ी ठीक कर रही थी। उसे मेरी टूटी चेन दिखाने पर उसने तुरंत दराज खोलकर एक पिन निकाली और कुशलता के साथ उसे लगाकर मुझे घड़ी पहनने को कहा। घड़ी पहनकर मैंने पूछा कितना भुगतान करना है तो उसने चौड़ी मुस्कराहट के साथ सिर हिलाया और कहा, “आप हमारे मेहमान हैं। हम मेहमानों से शुल्क नहीं लेते।“
यह सरल पर उदारहृदय कृत्य मेरे लिए बिल्कुल अप्रत्याशित था। मैंने अभिवादन के साथ उसे धन्यवाद दिया तो उसने और भी चौड़ी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया! अपने दोस्त के साथ उससे विदा लेते वक्त मैंने मन में सोचा, “समाजवाद की यह झलक कितनी प्यारी है! क्या अब दोनों व्यवस्थाओं के बीच अंतर साफ है?” (यहां वे हांगकांग पूंजीवाद के साथ तुलना कर रहे हैं, जहां का वर्णन इससे पहले दिया गया था – लेखक) (Page 50)
यहां तक कि जेल के बंदी जीवन के वर्णन में भी वे समाजवाद की कल्पना ले आते हैं। उनकी जेल डायरी से यह कविता देखिये –
बंदी जीवन, कर देता सबको समान
जेल के डरावने फाटकों के भीतर
जब आपसे सब कुछ ले लिया जाता है
बस जिंदा रहने वास्ते कुछ जरूरी चीज छोड़
‘आप’ आने लगता है पहले ‘मैं’ बाद में
‘हम’ बन जाता है जिंदगी का सूत्र
कुछ मेरा नहीं, कुछ तुम्हारा नहीं, सब कुछ है हमारा
तब बचा खाना फेंका नहीं जाता
चिडियों के साथ बंटता है, जो आती हैं, पेट भरती हैं, खुश हो उड़ जाती हैं
अफसोस इतने सारे नौजवान चेहरे, पूछा “यहां क्यों”?
उन्होंने भी बिना दुराव सब बताया।
हरेक से क्षमता अनुसार
हरेक को आवश्यकतानुसार
यही तो समाजवाद है
आह, पर ये तो विवशता की सामूहिकता है
अगर इंसान आजादी और स्वेच्छा से इसे अपना पाते
तब सब सच में मां धरती की सच्ची संतान बन पाते
(Page 111)
किंतु याद रहे सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण में ‘मार्क्सीय’ उपकरण प्रयोग करने वाले स्टैन स्वामी दार्शनिक तौर पर मार्क्सवादी अर्थात भौतिकवादी नहीं थे। उनकी प्रेरणा का स्रोत जीसस का संदेश है तो खलील जिब्रान का रहस्यवाद भी है, और आदिवासी जनजातियों का सर्वेश्वरवादी प्रकृतिवाद भी है। किन्तु उनके ये विश्वास उन्हें भाग्यवादी व भीरु नहीं बनाते। उनके ये विश्वास उन्हें हताशा-निराशा की ओर नहीं धकेलते।
उनके ये विश्वास उन्हें जीवन संघर्षों में पूरे धैर्य व साहस के साथ डटे रहने की प्रेरणा देते हैं। लंबे संघर्ष के बाद मृत्यु के करीब आने तक भी वे अपने इन विश्वासों के बल पर अपने विचारों पर दृढ़ रहते हैं। उनकी आस्तिकता उन्हें कैद और बीमारी में भी नाउम्मीदी से दूर रखती है। अंधता की हताशा के बाद अपनी आस्तिकता से प्रेरणा पाने वाले जॉन मिल्टन की तरह वे भी कह उठते हैं, “जो खड़े रहते हैं इंतजार में, वे भी तो सेवा करते हैं।“
जेल में कैद और बीमारी भी उन्हें डिगा नहीं पाती। अपने आत्मकथन के उपसंहार में वे खलील जिब्रान की बात याद करते हैं, “जीवन और मृत्यु एक ही हैं, जैसे नदी और सागर एक ही हैं।” अतः उन्हें मृत्यु का भय नहीं। मृत्यु के 3 महीने पहले जेल से भेजी गई कविता के इस अंश से उनकी मनःस्थिति स्पष्ट होती है:
प्रकाश, आशा, प्रेम – नूतन व्यवस्था
अंधेरे पर विजयी प्रकाश
हताशा को परे करती आशा
नफरत को पराजित करता प्रेम
यही पुनर्जीवित जीसस का संदेश
किंतु हम लड़ेंगे अंत तक
सजा से खुद को बचाने के लिए नहीं
बल्कि सत्ता के मुकाबिल सच बोलने के लिए
जानते हुए कि आप सब दिल-ओ-दिमाग से हमारे साथ हैं। (Page 110)
फादर स्टैन लिखते हैं कि “मूलवासी आदिवासी समाजों के बीच एक दृढ़ विश्वास है कि जब कोई मर जाता है तो वह अपने उन प्रियजनों के पास आत्मा के रूप में वापस आ जाता है, जिन के साथ उन्होंने जीवन साझा किया था, जिन समुदायों के साथ उन्होंने अन्याय के विरोध में संघर्ष किया था, उनके पास वापस आ जाता है।… यह भावना अन्य परंपराओं में भी प्रतिध्वनित होती है। शहीदों को ‘अमर’ (मृत्यु से परे) कहा जाता है। कुछ धार्मिक ग्रंथ मृत्यु की व्याख्या ‘जीवन बदल गया है’, ‘समाप्त नहीं हुआ’ के रूप में करते हैं। कवि खलील जिब्रान का कहना है कि “नदी और समुद्र एक हैं” अर्थात नदी का ताजा पानी जब समुद्र में बहता है तो खारा पानी बन जाता है, लेकिन पानी पानी ही रहता है। रूप बदल सकता है लेकिन पदार्थ वही है। मैं ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों से प्रेरित हुआ हूं। मैं अक्सर उन लोगों के बारे में सोचता हूं जिन्होंने मेरे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिन्हें धरती मां ने अब अपनी गोद में ले लिया है, मुझे वे हर कदम पर मेरे करीब, कभी न खत्म होने वाली एकजुटता में मेरा मार्गदर्शन करते, मजबूती देते और साथ खड़े महसूस होते हैं। यही वह तरीका है जिसे मैं अपने निकट और प्रिय सहयोगियों और साथियों के साथ-साथ उन लोगों द्वारा याद किया जाना चाहता हूं, जिन्हें मैंने सच्चाई, न्याय और मानवता के लिए उनके संघर्ष में साथ देने की पूरी कोशिश की है। लेकिन जिंदगी अभी बाकी है। हम सब अपना जीवन पूरी तरह से जीएं!” (Page 112-113)
निश्चय ही भौतिकवादी दर्शन को मानने वाला कोई मार्क्सवादी व्यक्ति इन विचारों से असहमति रखेगा, पर इन निजी विश्वासों पर ऐतराज करने का कोई कारण नहीं। हम जानते हैं कि ये विचार निजी संपत्ति के वजूद में आने और वर्ग विभाजन द्वारा शोषण-उत्पीड़न आधारित समाज कायम होने के बाद अस्तित्व में आए क्योंकि मृत्युपर्यंत जीवन के ये विचार पीड़ित जनता को अपनी पीड़ा भुलाने वाले मरहम का काम देते हैं, उसके उत्पीड़ित जीवन के दुख, दर्द व तकलीफ को ‘सहनीय’ बना देते हैं, और इस प्रकार उसे विद्रोह के मार्ग से दूर ले जाते हैं। ठीक इसीलिए मार्क्स ने इसे जनता की अफीम कहा था।
किन्तु ठीक इसीलिए इन विचारों का आधार वर्ग रहित समाज के निर्माण तक बना रहेगा और शोषण के खिलाफ संघर्ष में शामिल होने वाले हर व्यक्ति के लिए इन विचारों से पूर्ण मुक्ति की पूर्वशर्त आयद करना बहुतों को दूर धकेल कर इस संघर्ष को ही कमजोर करना है। हरेक मार्क्सवादी के लिए जरूरी है कि वह इन विचारों से मुक्त हो भौतिकवादी दर्शन को अपनाए, किन्तु किसी व्यक्ति के मार्क्सवाद और मजदूर वर्ग के संघर्षों के मित्र व हिमायती होने के लिए भी ऐसी शर्त आयद करना अतार्किक होगा।
अगर स्टैन स्वामी जैसे लोग इन्हीं विचारों के रहस्यवाद से जनता के शोषण विरोधी न्यायपूर्ण संघर्ष में शामिल होने व अपना जीवन बेझिझक उत्पीड़ित जनता के पक्ष में समर्पित करने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं, तो उनके इस निजी विश्वास से असहमति रखते हुये भी उनके ऐसा विश्वास रखने पर हम ऐतराज नहीं कर सकते। (प्रथम किश्त)
(लेखक यथार्थ पत्रिका के संपदकीय सदस्य हैं।)
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