नगालैंड के खनिक हत्याएं भारतीय गणतंत्र की बीमारी नहीं इसके लक्षण- नज़रिया

नगालैंड के खनिक हत्याएं भारतीय गणतंत्र की बीमारी नहीं इसके लक्षण- नज़रिया

By राजेश जोशी

दिनभर की दिहाड़ी करके थके हारे वो मज़दूर शाम को जब घर लौट रहे थे उन्हें मालूम नहीं था कि कुछ ही देर में वो बेक़ुसूर मारे जाएँगे और उन्हें मारने वाले होंगे गणतंत्र के पहरेदार। शनिवार 4 दिसंबर को नगालैंड के मोन ज़िले में हुई घटना दरअसल उस बीमारी का लक्षण मात्र है जिसने भारतीय गणतंत्र को लगभग पूरी तरह अपनी चपेट में ले लिया है। ये बीमारी है हर नागरिक पर शक करना, उसे छिपा हुआ षडयंत्रकारी मानना और उसके साथ नागरिक जैसा नहीं बल्कि ‘शासित’ जैसा व्यवहार करना।

सीमा पर तैनात फ़ौजी का काम सतर्क रहना है। दुश्मन की हर जुम्बिश, हर हरकत पर तुरंत प्रतिक्रिया ज़ाहिर करके उसके मंसूबों को नाकाम कर देना उसकी ट्रेनिंग में शामिल होता है। शक करना उसके लिए जीने की एक अनिवार्य शर्त होती है। अगर वो दुश्मन के षडयंत्रों को भाँप नहीं पाएगा, उसकी हर गतिविधि पर शक नहीं करेगा और बिना समय गंवाए कार्रवाई नहीं करेगा तो राष्ट्र की सुरक्षा ख़तरे में पड़ जाएगी। इतिहास हमें बताता है कि सैनिक की सतर्कता के कारण देश सुरक्षित रह पाए हैं या सतर्क न होने से बरबाद हो गए हैं।

लेकिन जब उसी सैनिक को सरकारें देश की आंतरिक शांति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए तैनात करती है तो वो अपने नागरिकों पर निगाह रखने का काम एक ऐसे व्यक्ति को सौंप देती है जो शक करना जानता है, सवाल पूछने से पहले गोली चलाना उसके ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी होता है। अगर उस सैनिक को बताया जाता है कि देश को खंड खंड करने वाली ताक़तें जगह जगह पर आम लोगों के भेस में छिपी हुई हैं और तुम्हारा काम उन्हें नाकाम करना है, तो वो हर नागरिक को शक की निगाह से देखने लग जाता है। उसके पास गोली चलाने का क़ानूनी और संवैधानिक अधिकार होता है।

पर नागरिक निहत्था होता है। सिर्फ़ क्रोध करके चुप रहने के सिवा अन्याय के जवाब में वो क्या करे? उससे कोई सवाल पूछे तो वो जवाब दे सकता है, लेकिन सवाल पूछे जाने से पहले ही फ़ौजी की गोली उसकी खोपड़ी को उड़ा दे तो? नगालैंड के मोन ज़िले में यही हुआ। कोई सवाल नहीं पूछा गया। कोई तलाशी नहीं ली गई। खदानों में दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करके अपने घरों को लौट रहे लगभग 30 मज़दूरों पर असम राइफ़ल्स के जवानों ने गोलियाँ चला दीं जिससे छह मज़दूर वहीं मारे गए। जब ख़बर आसपास के गाँवों में फैली कि उनके निर्दोष लोगों को फ़ौज ने मार डाला है तो ग्रामीण अपने ग़ुस्से पर क़ाबू नहीं रख सके। फ़ौजियों के साथ उनकी हिंसक झड़प हुई, फ़ौजियों ने फिर इन निहत्थे ग्रामीणों पर गोलियाँ चला दीं। सात और ग्रामीण मारे गए। एक सैनिक की भी मौत हो गई। कुल मिलाकर 14 भारतीयों की जान चली गई।

सेना का कहना है कि उसके पास भरोसेमंद ख़ुफ़िया जानकारी थी कि अलगाववादी छापामार घटना स्थल पर मौजूद हैं और गोलियाँ इसलिए चलाई गईं क्योंकि ट्रक में सवार लोग सेना से “सहयोग नहीं कर रहे थे।” पर गाँव वालों ने पत्रकारों को बताया कि सेना ने बिना किसी कारण के गोलियाँ चलाना शुरू कर दिया। सेना के दावे को सच भी मान लिया जाए तो क्या “सहयोग न करना” निहत्थे नागरिकों का इतना बड़ा अपराध है कि उनपर गोली चला दी जाए?

नगालैंड की पुलिस ने असम राइफ़ल्स के उन जवानों के ख़िलाफ़ एफ़आइआर दर्ज की है जिसमें कहा गया है कि “नागरिकों की हत्या करना और उन्हें घायल करना ही फ़ौजियों का मक़सद था”। पर क्या पुलिस असम राइफ़ल्स के उन जवानों के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर पाएगी जिन्हें केंद्र सरकार ने सशस्त्र बल विशेष अधिकार क़ानून या एएफ़एसपीए (एफ़्सपा) का कवच दिया है?

गृहमंत्री अमित शाह ने इस घटना पर संसद में बयान दिया और अपने क्षोभ का इज़हार भी किया। उन्होंने उच्चस्तरीय जाँच करवाने और पीड़ितों को न्याय दिलाने का रस्मी आश्वासन दिया। लेकिन एफ़स्पा के कवच और कुंडल के बारे में कोई बात नहीं की जो उत्तरपूर्व और कश्मीर मे तैनात सुरक्षा बलों को इस तरह की कार्रवाई पर सज़ा से सुरक्षित रखते हैं। ये वो कवच है जो मोन जैसी घटनाएँ होने के बाद सेना और सुरक्षाबलों को क़ानूनी कार्रवाई से बचाकर रखता है। पूर्वोत्तर राज्यों और कश्मीर में एफ़्सपा को हटाए जाने की माँग बहुत पुरानी है।

चूँकि फ़ौजियों और उनके अफ़सरों ने निहत्थे नागरिकों पर गोलियाँ चलाई इसलिए उनकी आलोचना हो रही है और उनके ख़िलाफ़ पुलिस रिपोर्ट भी दर्ज की जा चुकी है। पर हमेशा परदे के पीछे रहकर काम करने वाले ख़ुफ़िया विभाग के उन अधिकारियों से कौन जवाब माँगेगा जिनकी लापरवाही इस पूरी घटना के मूल में है? ये एक आमफ़हम बात है जिसे चुटकुले की तरह सुनाया जाता है कि ख़ुफ़िया विभाग के लोग हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को “संभावित आतंकवादी हमले” की एलर्ट जारी करते रहते हैं ताकि अगर वाक़ई हमला हो गया तो इंटैलिजेंस ब्यूरो और दूसरे ख़ुफ़िया विभाग कह सकें कि हमने तो पहले ही चेतावनी दे दी थी। ख़ुफ़िया विभाग क्या किसी के प्रति जवाबदेह है?

अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान संसदीय प्राक्कलन समिति के तत्कालीन अध्यक्ष जसवंत सिंह ने रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) और आइबी को संसदीय स्क्रूटिनी के दायरे में लाने का ऐलान किया था। पर तमाम कोशिशो के बावजूद वो ऐसा करने में असफल रहे। अगर ख़ुफ़िया एजेंसियाँ संसद के प्रति ज़िम्मेदार बना दी जातीं तो उनकी एक एक गतिविधि पर जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की नज़र रहती। उनके बजट का ऑडिट होता और जासूसी में होने वाले भ्रष्टातार पर रोक लग सकती थी। ख़ुफ़िया विभागों की जवाबदेही तब तक तय नहीं की जाएगी तब तक मोन जैसी घटनाएँ होती रहेंगी।

अगले महीने की 26 तारीख़ को राजधानी दिल्ली में भारतीय गणतंत्र का समारोह मनाया जाएगा। इस बरस देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। मगर मोन में हुए इस दर्दनाक गोलीकांड के बाद नगालैंड में मारे गए नागरिकों के परिवार वाले, रिश्तेदार, परिचित और आज़ाद हिंदुस्तान के इस त्यौहार को कैसे मना पाएँगे?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। वो बीबीसी हिंदी रेडियो के एडिटर रहे हैं। यह लेख उनके फ़ेसबुक पोस्ट से साभार प्रकाशित है।)

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