दसियों हजार आदिवासियों के प्रदर्शन की ख़बर मीडिया से गायब क्यों?

दसियों हजार आदिवासियों के प्रदर्शन की ख़बर मीडिया से गायब क्यों?

संदीप राउज़ी, बस्तर, छत्तीसगढ़ से:

बीते एक साल से बस्तर के जंगल में सीआरपीएफ कैंप के पास धरने पर बैठे आदिवासियों के विशाल प्रदर्शन की खबर स्थानीय मीडिया में हाशिए पर भी नहीं छपी।

जहां प्रदर्शन हुआ, वहां से बीजापुर मुख्यालय महज 70 किलोमीटर दूर है। यहां हिंदी के दो अखबार आते हैं, जिनमें देश का नंबर वन होने का दावा करने वाला भास्कर भी शामिल है। दूसरा अखबार है हरिभूमि।

विडंबना देखिए कि 15 से 17 मई के दरम्यान पूरे बस्तर से इकट्ठा हुए दासियों हजार आदिवासियों के प्रदर्शन के बारे में इंडोनो अखबारों में एक लाइन भी नहीं छपा।

जबकि 17 मई को सिलंगेर में दसियों हजार की तादाद में प्रदर्शनकारियों ने सीआरपीएफ कैंप तक मार्च किया। इससे पहले उबलती हुई गर्मी में पुरुष, महिलाएं, बुजुर्ग, नौजवानों का हुजूम धरना स्थल से शहीद स्मारक पहुंचा। ये स्मारक एक साल पहले प्रदर्शन के दौरान गोलीकांड में मारे गए लोगों की याद में बनाया गया है, जोकि सीआरपीएफ कैंप से महज कुछ ही मीटर दूर है।

हालांकि इस कार्यक्रम में बहुत थोड़े पत्रकार ही पहुंच पाए, क्योंकि बीजापुर से सिलगेर तक बने 15 सीआरपीएफ कैंपों और पुलिस नाकों से आगे बढ़ने ही नहीं दिया गया।

 

जो स्थानीय पत्रकार पहुंचे उनमें से अधिकाश यूट्यूबर, अल्टरनेटिव मीडिया, चुनिंदा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग और फ्रीलांस पत्रकार थे।

Front page headlines of Hindi newspapers juxtaposed

रायपुर से आए पीसी रथ स्थानीय पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। उन्होंने हमें बताया कि ‘स्थानीय मीडिया पर राज्य सरकार का भारी सेंसरशिप लागू है। यहां के पत्रकारों को जिला प्रशासन के सामने अपनी खबरों पर अप्रूवल लेना पड़ता है, तभी छापा जा सकता है।’

इतनी तगड़ी सेंसरशिप में अगर अखबारों में इस इलाके की सबसे बड़ी घटना के बारे में कुछ खबर न छ

 

पना, कोई आश्चर्यजन नहीं लगता।

क्या है मामला?

 

छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में 17 मई को दासियों हजार आदिवासियों ने एक साल पहले सीआरपीएफ गोलीकांड में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि देने सिलंगेर में जमा हुए थे।

ठीक एक साल पहले 14-15 मई की दरमियानी रात सिलंगेर में सीआरपीएफ कैंप बना दिया गया। इसके खिलाफ आदिवासी समुदाय विरोध प्रदर्शन करने लगा लेकिन तीसरे दिन सीआरपीएफ ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चला दी। इसमें मौके पर ही तीन लोगों ने दम तोड़ दिया। एक की मौत उसी दिन बाद में हुई। जबकि 25 मई को एक घायल गर्भवती महिला की मौत हो गई।

शहीद स्मारक पर इन पांच लोगों के नाम लिखे हुए हैं।

इस घटना के बाद हजारों की तादाद में आदिवासी प्रदर्शनकारी वहीं धरने पर बैठ गए। दिल्ली के किसान आंदोलन की तरह उन्होंने वहीं कच्ची सड़क पर ही अस्थाई झोपड़ियां बना लीं। करीब दो किलोमीटर के दायरे में जिसको जहां जगह मिली घेरा डाल दिया। बहुत मूलभूत सुविधाओं की घनघोर कमी के बावजूद वे साल भर से डेट हुए हैं।

इस दौरान उन्हें कड़ाके की ठंड,भीषण गर्मी, जंगल की खतरनाक बारिश का सामना करना पड़ा। प्रदर्शनकारियों में अधिकांश महिलाएं हैं। खाने से लेकर, नहाने, शौच जाने, पीने का पानी और सोने की भारी परेशानी बीच सभी लोग डेट हुए हैं।

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बीते 17 मई को हुई सभा में ऐलान किया गया कि सरकार ताक अपनी आवाज सुनाने के लिए आगामी 25 मई से सिलंगेर से सुकमा मुख्यालय तक एक पदयात्रा आयोजित की जायेगी।

मीडिया सेंसरशिप, प्रशासन का रवैया और आगे का रास्ता तय करने के लिए भले ये फैसला हुआ है, लेकिन सुकमा में धरने के बावजूद ये खबर मीडिया में जगह बना पाएगी, मौजूदा हालात देख, संदेह अधिक होता है।

देश का सर्वाधि सैनिककरण वाला इलाका

बस्तर है। जबकि कश्मीर और पूर्वोत्तर की तरह यहां अफस्पा लागू नहीं है। फिर भी मार्शल लॉ की तरह यहां सेंसरशिप, सीआरपीएफ को असीमित अधिकार समेत कड़ी निगरानी के असंख्य उपाय किए गए हैं

मानवाधिकार कार्यकर्ता बादल बनर्जी कहते हैं कि “दंतेवाड़ा के पास बैलेडिला से ले कर जगरगुंडा तक हर एक एक दो दो किलोमीटर पर सीआरपीएफ कैंप है। हर कैंप के बाहर नाका लगा है। आदिवासियों को अपने गांव से निकलने पर क्रॉफ के जवानों से पूछताछ का सामना करना पड़ता है।”

वो कहते हैं कि “अपने देश में ऐसी कौन सी जगह है जहां स्थानीय आबादी से अधिक अर्द्धसैनिक बल लगाए गए हों? ये कश्मीर से बदतर हालात हैं।”

रायपुर के पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता पीसी रथ कहते हैं कि “सैन्यीकरण का हाल ये है कि अगर आदिवासी फ्रेश होने के लिए अपने घर से लोटा लेकर बाहर निकले तो उसे रास्ते में कांप मिल जायेगा।”

 

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Workers Unity Team

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