देश 70 साल पीछे जा चुका है, ये तस्वीर इसका जीता जागता सबूत है
‘दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा….’।
वर्ष 1957 में बनी फिल्म ‘मदर इंडिया’ के ये बोल और उसकी तस्वीर 2020 में इस कदर जिंदा हो उठेगी, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता था।
लगभग उसी जैसे लिबास में एक महिला हल चलाती और बैल की जगह दो बच्चे जोर लगाते। बल्कि तस्वीरों को देखकर उल्टा भी महसूस हो सकता है, जैसे ताजा तस्वीर 1957 की हो, क्योंकि इसमें तो बच्चों का जिस्म ढंकने को उतना भी कपड़ा नहीं है, जितना फिल्म में था।
मध्यप्रदेश के बेतुल जिला मुख्यालय से लगभग 140 किलोमीटर दूर आदिवासियों की कराह शायद उन तक नहीं पहुंच रही, जो पूरे आत्मविश्वास से दुनिया में तरक्की का बयान करते हैं।
इंदौर हाईवे के पास वनग्राम टांडा में कोरकू आदिवासी की रामप्यारी किसी भी तरह फसल को बचाने की कोशिश में दो नन्हें पोतों के साथ डौरा चलाने निकल पड़ीं। दो रकबों में दो एकड़ जमीन ही उनके परिवार की जिंदगी का सहारा है।
ये हल से खेत जोतने से अलग का तरीका है। इस इलाके में डौरा चलाना, अनचाहे जीवों से बचाने के लिए ये एक टोटका भी माना जाता है, साथ ही फसल के बीच उगने वाली घास भी साफ हो जाती है।
आमतौर पर इस प्रथा और जरूरत के लिए महिलाएं खेतों पर नहीं आतीं, ये सिर्फ मजबूरी ही है। एक रकबे पर यही काम उनका बेटा कर रहा है। इतनी मशक्कत के बाद भी पूरे परिवार के लिए सालभर का अनाज नहीं हो पाता।
मजदूरी करने को आसपास के कस्बों में भी जाते हैं, जो महामारी के समय में महीनों से बंद है। रोजमर्रा की जरूरतों के लिए भी एक-दूसरे का सहारा बनकर काम चल रहा है।
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दुश्वारियों में जी रहे इस क्षेत्र के लोग
तस्वीर लेने वाले पत्रकार सतीश के साहू का कहना है, इस क्षेत्र के लोग माली हालत खराब होने से दुश्वारियों में जी रहे हैं। उनके पास रहने, खाने, पहनने की परेशानियां जैसे जिंदगी का हिस्सा बन गई हैं।
वे बताते हैं कि वनग्राम को विशेष सरकारी योजनाओं में शामिल किया जाता रहा है, लेकिन हालात देखकर नहीं लगता कि यहां सहूलियत की कोशिशें भी हुई हों।
रामप्यारी कहती हैं, इस उम्र में खेती का काम करना बहुत मुश्किल है, बेटा अकेले कहां तक करेगा तो उसका हाथ बंटाते हैं। दो पोते ठीक से बड़े हो जाएं, इतना ही सोचा है। पक्का मकान और बाकी चीजें हमारी किस्मत में नहीं हैं।
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