अरुंधति रॉय के ख़िलाफ़ आतंकवाद निरोधी क़ानून यूएपीए के तहत मुकदमा, सामाजिक संगठनों, बुद्धिजीवियों ने उठाए सवाल

अरुंधति रॉय के ख़िलाफ़ आतंकवाद निरोधी क़ानून यूएपीए के तहत मुकदमा, सामाजिक संगठनों, बुद्धिजीवियों ने उठाए सवाल

बुकर पुरस्कार विजेता और अपनी तीखी टिप्पणियों से सरकार को घेरने वाली राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्राख्यात लेखिका अरुंधति रॉय पर यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की मोदी सरकार की कड़ी आलोचना हो रही है।

आलोचना करने वालों में देश के प्रतिष्ठित वकील प्रशांत भूषण, जाने माने एंकर राजदीप सरदेसाई, प्रख्यात पत्रकार रवीश कुमार, लेखिका मीना कंडास्वामी, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा, शिव सेना यूबीटी नेता प्रियंका चतुर्वेदी के अलावा पीपुल्स् यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी, समाजवादी लोकमंच और कई अन्य सामाजिक संगठनों और बुद्धिजीवी शामिल हैं।

सुप्रीम कोर्ट के जाने माने वकील प्रशांत भूषण ने ट्वीट किया कि, “एलजी ने कश्मीर की आज़ादी की वकालत करने के आरोप में अरुंधति रॉय के ख़िलाफ़ एक 14 साल पुराने मामले में यूएपीए कानून के तहत मुकदमा चलाने की मंज़ूरी दे दी है। लगता है कि मोदी सरकार ने 2024 की हार से कुछ सीखा नहीं है। भारत को तानाशाह बनाने के लिए और भी अधिक दृढ़ संकल्पित!”

पहले एनडीटीवी के स्टार एंकर रहे और अब अपने यूट्यूब कार्यक्रमों से जनता की बात करने वाले रवीश कुमार ने इस पर एक पूरा एपिसोड किया है।

राजदीप सरदेसाई ने ट्वीट किया कि, “लेखिका एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय पर 2010 के एक कथित हेट स्पीच मामले में यूएपीए के तहत मुकदमा चलेगा। जो लोग चुनाव के दौरान लगातार धार्मिक ज़हर उगलते रहे वे बच जाएंगे और असहमति की अगुवा आवाज़ को एंटी नेशनल ब्रांड किया जा रहा है। आज अधिकाधिक बनाना रिपब्लिक होते जा रहे हैं।”

तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा ने कहा, “अरुंधति रॉय पर मुकदमा चलाकर बीजेपी यह साबित करने की कोशिश कर रही है कि वो फिर से पुराने रंग में लौट आई है तो ऐसा नहीं है। इसी तरह के फासीवाद के ख़िलाफ़ भारतीय मतदाताओं ने वोट किया है।”

लेखिका और उपन्यासकार मीना कंडास्वामी ने कहा कि सरकार कम बहुमत से लौटी है तो लगता था कि असहमतियों पर दमन धीमा होगा लेकिन हम कितने ग़लत थे. 14 साल पुराने एक भाषण के आधार पर अरुंधति रॉय के ख़िलाफ़ आतंकवाद के मामले में फंसाने की वे कोशिश कर रहे हैं। यह शर्मनाक है।”

किन धाराओं में मुकदमा चलाया जाएगा

दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने लेखिका अरुंधति रॉय और सेंट्रल कश्मीर यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसरप डॉक्टर शेख़ शौकत हुसैन के खिलाफ़ यूएपीए के तहत मुक़दमा चलाने की मज़दूरी दे दी।

यह मामला 27 नवंबर 2010 का है। अरुंधति रॉय को उनकी किताब ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ के लिए 1997 में बुकर पुरस्कार मिला था। उसके बाद वो लगातार देश के दलितों, अल्पसंख्यकों ख़ासकर मुसलमानों, आदिवासियों, देश को चलाने वाले कार्पोरेट घरानों, भ्रष्ट नेताओं और भारतीय राज्य सत्ता पर हिंदू बर्चस्व को लेकर मुखरता से बोलती रही हैं।

शेख शौकत हुसैन कश्मीर सेंट्रल यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल लॉ के पूर्व प्रोफेसर हैं।

बीते साल अक्टूबर में एलजी ने विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्यता बढ़ाने और सार्वजनिक अशांति फैलाने वाले बयान के आरोप में इन दोनों को आईपीसी की धारा 196 के तहत मुकदमा चलाने की मंज़ूरी दी थी।

हालांकि दिल्ली पुलिस ने अरुंधति रॉय और शेख़ शौकत हुसैन के ख़िलाफ़ पहले आईपीसी की धाराओं 153ए, 153बी, 504, 505 और यूएपीए की धारा 13 के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी थी लेकिन एलजी ने अक्टूबर में केवल आईपीसी धाराओं की ही मंज़ूरी दी थी।

यूएपीए की धारा 13 किसी भी ग़ैरक़ानूनी गतिविधि को उकसाने, प्रेरित करने या वकालत करने के लिए सज़ा से जडुी है और इसमें अधिकतम सात साल की क़ैद हो सकती है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समुदायों में दुश्मनी बढ़ाना और सद्भाव के ख़िलाफ़ काम करने से संबंधित है जबकि 153बी राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचाने से जु़ड़ी हुई है।

धारा 505 जानबूझकर शांति भंग करने के इरादे से जुड़ी हुई है।

कश्मीर पर दिया गया भाषण

अरुंधति राय पर जिसके लिए मुकदमा चलाने की कोशिश हो रही है वो कश्मीर पर था। उनके ख़िलाफ़ सुशील पंडित की शिकायत पर एफ़आईआर दर्ज की गई थी।

एलजी ऑफ़िस के बयान में कहा गया है कि 2010 में ‘दिल्ली के एलटीजी ऑडिटोरियम में ‘आज़ादी – द ओनली वे’ नामक कॉन्फ़्रेंस के बैनर तले ‘कश्मीर को भारत से अलग करने’ का प्रचार किया गया था।’

सम्मेलन में भाषण देने वालों में सैयद अली शाह गिलानी, एसएआर गिलानी (सम्मेलन के एंकर और संसद हमले मामले के मुख्य अभियुक्त जिन्हें बाद में इस केस से बरी कर दिया गया था), अरुंधति रॉय, डॉ. शेख शौकत हुसैन और माओवादी समर्थक वरवर राव शामिल थे।”

आरोप लगाया गया कि गिलानी और अरुंधति रॉय ने ‘दृढ़ता से प्रचार’ किया कि कश्मीर कभी भी भारत का हिस्सा नहीं था और उस पर भारत के सशस्त्र बलों ने जबरन कब्ज़ा कर लिया था।

‘शिकायतकर्ता ने सम्मेलन की रिकॉर्डिंग प्रदान की थी। शिकायतकर्ता ने सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत एमएम कोर्ट, नई दिल्ली के समक्ष शिकायत दर्ज की थी। इसी आधार पर एक प्राथमिकी दर्ज कर जांच की गई।’

दरअसल इस सम्मेलन में कश्मीर की स्वायत्तता के पक्ष में बात की गई थी। अरुंधति ने कहा था कि ‘कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा है।’ उन्होंने देश के किसी भी हिस्से के मुकाबले सबसे अधिक सैन्यीकृत  कश्मीर में भारतीय सेना की ओर से ‘दमन और उत्पीड़न’ पर भी सवाल उठाए थे।

इसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उर्फ संघ उर्फ आरएसएस, भाजपा और उनसे जुड़े संगठनों ने भारत विरोधी कृत्य के रूप में प्रचारित किया। शनिवार को जब दिल्ली एलजी की ओर से फैसला आया तो भी सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी ट्रोल्स ने उनके भाषणों के एक हिस्से को काट कर प्रचारित करने और जानी मानी लेखिका को बदनाम करने उन्हें शैतान सिद्ध करने की पुरज़ोर कोशिश की।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन

समाजवादी लोकमंच के संयोजक मनीष कुमार का कहना है कि दोनों शख़्सियतों पर मुकदमा दर्ज करने की अनुमति देना देश के संविधान के अनुच्छेद 19 में दर्ज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है।

उन्होंने कहा कि गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत मुकदमा दर्ज करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन बताते हुए कहा है कि भाजपा सरकार केंद्र में पूर्ण बहुमत न मिल पाने के बावजूद भी अपना तानाशाही पूर्ण रवैया कायम किए हुए हैं।

उन्होंने कहा कि कश्मीर के भारत में विलय के बाद से ही कश्मीर का मसला विवादास्पद बना हुआ है। भारत सरकार कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानती है जबकि कश्मीर के लोग तथा देश के अन्य जन पक्षधर लोग भी कश्मीर की विलय की शर्तों के अनुरूप जनमत संग्रह करवाए जाने के पक्षधर हैं।

लोकतंत्र में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है और सरकार की राय से जुदा राय रखने पर यूएपीए के तहत मुकदमा कायम करना मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की श्रेणी में आता है तथा ये शासन सत्ता द्वारा प्राप्त शक्तियों का दुरपयोग है।

समाजवादी लोकमंच ने मांग की है कि इसलिए अरुंधति रॉय व अन्य पर यूएपीए के तहत दर्ज मुकदमा वापस लिया जाना चाहिए तथा भाजपा सरकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 में दर्ज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए।

अरुंधति रॉय- सरकार की मुखर आलोचक

मौजूदा मोदी सरकार की वो मुखर आलोचक रही हैं और बीजेपी के राज में देश में फासीवाद, तानाशाही और दलितों-आदिवासियों- मुसमलानों के उत्पीड़न पर बिना डरे झिझके बोलती रही हैं।

1997 में जब उन्हें बुकर पुरस्कार मिला, उन्हें देश और विदेश में बहुत ख्याति मिली। उनकी किताब गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स से उन्होंने दुनिया के पटल पर एक लेखिका के रूप में स्थापित हुईं।

2023 में उनके निबंध संग्रह आज़ादी के फ़्रांसीसी अनुवाद के लिए उन्हें यूरोप का प्रतिष्ठित लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड 45वां यूरोपियन डे ल’एसाई पुरस्कार दिया गया था।

अपनी राजनीतिक टिप्पणियों के लिए अक्सर वो निशाने पर आती रही हैं। राजनीतिक टिप्पणियों पर उनके दो लेख संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं।

2010-11 में बस्तर में माओवादियों के बारे में उनका एक बड़ा लेख आउटलुक में छपा। 2011 में इस पर एक किताब भी आई। इसमें माओवादियों के साथ बिताए समय पर विस्तृत रूप से लिखा। इसके बाद वो भारत सरकार के निशाने पर आ गईं। उस समय कांग्रेस की अगुवाई वाली यूएपीए सरकार थी।

तत्काल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माओवादी आंदोलन को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा बताया था। हथियारबंद संघर्ष में विश्वास रखने वाली माओवादी पार्टी को भारत सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है।

और बीते एक दशक में इस संगठन से जुड़े कई लोगों को यूएपीए के तहत जेलों में डाला गया है। 2018 में हुए भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में लगभग दर्जन भर से अधिक बुद्धिजीवी, पत्रकार वकील, प्रोफ़ेसर और एक्टिविस्टों पर यूएपीए लगाया गया है जिसमें अधिकांश लोग सालों से जेल के अंदर हैं।

वो छत्तीगढ़ में चलाए गए ग्रीन हंट को लेकर भी सरकार की तीखी आलोचना की थी। आदिवासी इलाक़ों से माओवादियों के सफाए को लेकर तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदम्बर ने ग्रीन हंट चलवाया था।

उससे पहले 2005 में बस्तर में सरकारी देखरेख में सलवा जुडुम चलाया गया था जिसमें सरकारी बल और भाड़े के हत्यारे आदिवासी गांवों पर हमला करते, गांव जला डालते। इस दौारन बड़े पैमाने पर हत्याएं और बलात्कार हुए. एक बड़ी आबादी पड़ोस के आंध्र प्रदेश पलायन कर गई थी। इसके कई मुकदमें आज भी चल रहे है। तो यह पृष्ठभूमि थी।

लेकिन जब भारत में बीजेपी की मोदी सरकार भारी बहुमत से आई इसके बाद अरुंधति रॉय सरकार के ख़िलाफ़ और मुखर हो गईं।

साल 2022 में अरुंधति ने एक लेख में सत्तारूढ़ बीजेपी की तुलना छह जनवरी को यूएस कैपिटल हिल में दंगाईयों से की और कहा, “मेरे जैसे लोग राष्ट्र विरोधियों की सूची-ए में आते हैं। ख़ासकर जो मैं लिखती या कहती हूं उसके कारण। विशेष तौर पर कश्मीर के बारे में।”

फ़रवरी 2022 में ही उन्होंने द वायर के लिए करण थापर को दिए इंटरव्यू में कहा था कि हिन्दू राष्ट्रवाद की सोच विभाजनकारी है और देश की जनता इसे कामयाब नहीं होने देगी।

अरुंधति रॉय ने भाजपा को फासीवादी कहा और बताया कि उन्हें उम्मीद है कि देश एक दिन इनका विरोध करेगा।

उन्होंने कहा, “मुझे भारतीय लोगों पर भरोसा है और मेरा मानना है कि देश इस अंधेरी खाई से बाहर निकल आएगा।”

उन्होंने कहा, ”मोदी के आने के बाद देश में गैरबराबरी और बढ़ी है। देश के 100 लोगों के पास भारत की 25 फ़ीसदी जीडीपी है। उत्तर प्रदेश के एक किसान ने बहुत सटीक टिप्पणी करते हुए कहा था- देश को चार लोग चलाते हैं, दो बेचते हैं और दो ख़रीदते हैं। ये चारों गुजरात से हैं।”

उनकी एक बहुत मशहूर टिप्पणी है जिसे उन्होंने तीन अगस्त 2018 में जंतर मंतर पर एक भाषण में कहा था, “1990 के आस पास इस देश में दो ताले खोले गए थे। एक बाबरी मस्जिद का ताला और दूसरा बाज़ार का ताला। आज जो हो रहा है वो उसी का नतीजा है। चुनाव के पहले भारत जलाओ पार्टी माचिस लेकर खड़ी है आग लगाने के लिए…आने वाले कुछ दिन बहुत ख़तरनाक़ होने वाले हैं।”

तब 2019 का लोकसभा चुनाव कुछ ही दिनों दूर था। 2019 में पुलवामा की आड़ में भारी बहुमत लेकर दूसरी बार सत्ता में पहुंची मोदी सरकार ने उसके बाद जो कुछ किया, उसकी तपिश अभी तक महसूस की जा रही है।

अरुंधति रॉय पर मुकदमा उसकी एक बानगी भर है।

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Workers Unity Team

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