“हमसे पूछिए आज़ादी के असली मायने” : कॉफी बागानों के बंधुआ मज़दूरों की आपबीती
दोपहर का समय है,चिलचिलाती धुप में कोडागु के एक स्थानीय बाज़ार में 40 वर्षीय रमेश अपने एक रिश्तेदार से लम्बे समय के बाद टकरा जाते हैं. ढेर सारी बातों के बाद जब उनके रिश्तेदार जो की आदिवासी हक्कुगला समन्वय समिति (एएचएसएस) के साथ काम करते हैं, उनके काम धंधे के बारे में पूछते है तब रमेश रुआंसे से होकर बताते है ” पिछले 10 सालों से मैं और मेरी पत्नी कोडागु के कॉफी बागान में काम कर रहे हैं.लेकिन हमारे हालात बहुत ख़राब है. 14 घंटे की शिफ्ट के बाद हमे मात्र 100 रुपये मिलते हैं. मालिक से लिए 25 हज़ार कर्ज के चंगुल में फंस चूका हूँ. हर महीने ब्याज दर बढ़ जा रहे हैं,कर्ज है की खत्म होने का नाम नहीं ले रहा.हम बागान में फंस गए हैं. बागान से बाहर जाने की भी इज़ाज़त नहीं मिलती. महीने में सिर्फ एक दिन पुरे महीने के राशन खरीदने के लिए अनुमति मिलती है.” उनके रिश्तेदार उनको मदद का आश्वासन देकर चले जाते हैं.
आदिवासी हक्कुगला समन्वय समिति (एएचएसएस) जो आदिवासी अधिकारों पर काम करने वाली एक समन्वय समिति है जो 12 साल पहले शुरू की गई थी. इसके सदस्य बताते हैं की कोडागु कर्नाटक का ही नहीं बल्कि भारत के सबसे बड़े कॉफी उत्पादक जिलों में से एक हैं. लेकिन यहाँ के कॉफी बागानों में मज़दूरों की स्थिति दयनीय हैं. मज़दूरों को मालिकों द्वारा बंधुआ मज़दूर बना कर उनसे काम लिया जाता हैं. हमने कोडागु में लगभग 1,500 बंधुआ मजदूरों को बागान से छुटकारा दिलाने में उनकी मदद की हैं.”
बाज़ार में मिले रमेश के रिश्तेदार 6 महीने के बाद जुलाई,2020 की एक दोपहर तमाम सबूतों और पुलिस के साथ बागान पहुँच रमेश और उनकी पत्नी को छुड़ा लाते हैं साथ ही उनका कर्ज भी माफ़ कर दिया जाता हैं.
रिहा होने के बाद के क्षण को याद कर 35 वर्षीय नंदिनी बताती हैं की ” जब पुलिस हमे छुड़ाने आई थी ,वो पल मेरी ज़िंदगी का सबसे गौरवशाली क्षण था. वहां से निकलना एक सपने जैसा था. पुलिस के साथ आए एएचएसएस के सदस्य बागान में हमारे पास पहुंचे और हम हमेशा के लिए वहां से चले गए. ये आज़ादी भरा जीवन मेरी ज़िंदगी का सबसे बड़ा उपहार हैं.”
दक्षिण-पश्चिम कर्नाटक में हजारों परिवार बागानों पर कर्ज में फंसे हुए हैं. और कर्ज के बोझ तले दबे इन लोगों से बागान मालिक बंधुआ मज़दूरों जैसा काम लेते हैं. जबकि 70 के दशक में ही सरकार द्वारा इस प्रथा को समाप्त कर दिया गया था.
पिछले साल अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा जारी किए गए आंकड़ों से पता चला कि 1976 में समाप्त होने के बावजूद भारत में बंधुआ मजदूरी कितनी व्यापक है.औपचारिक बैंकिंग प्रणालियों तक कम पहुंच के कारण गरीब लोगों के लिए अपने नियोक्ताओं से उधार लेना आम बात है. क्योंकि एक तो उन्हें किसी तरह के कागजी करवाई की जरुरत नहीं होती और साथ ही तुरंत पैसे भी मिल जाते हैं मालिकों से. और फिर इन कर्ज के तले दबे लोगों से बागान मालिकों को मनचाहा काम लेने की छूट जैसा मिल जाता हैं. मज़दूर बेईमान मालिकों की दया के भरोसे छोड़ दिए जाते हैं.
एएचएसएस के सचिव वाईके गणेश कहते हैं कि” कुछ कॉफी बागान तो पूरी तरह से कर्ज के बंधन का दुष्चक्र बन गए हैं. हमारे संगठन के 600 सदस्य पूर्व बंधुआ मजदूर रहे हैं ,तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं की हालात कितने ख़राब हैं. मैं स्वयं इस दर्द को जानता हूं और मैं नहीं चाहता कि दूसरों को भी इसी तरह के शोषण से गुजरना पड़े. हमारा संगठन इससे लड़ने की भरसक कोशिश कर रहा है.”
कोडागु के बागानों पर 200,000 से अधिक लोग काम करते हैं, जो एक वर्ष में लगभग 110,730 मीट्रिक टन कॉफी का उत्पादन करते हैं, जो भारत के कुल वार्षिक उत्पादन का लगभग 35% है.
एएचएसएस का मानना है कि कोडागु में 8,000 से अधिक परिवार कर्ज के बंधन में फंसे हुए हैं. एएचएसएस से जुड़े एक सदस्य बताते हैं की मज़दूरों की सुरक्षा के लिए पुलिस और जिला प्रशासकों की तरफ से पर्याप्त कदम नहीं उठाये जाते. इन दोनों ही संस्थाओं ने लोगों को बचाने में असंतोषजनक काम किया है.”
एएचएसएस के सचिव गणेश बताते हैं की “भारतीय कानून के तहत बंधुआ मजदूरी में रखे गए लोग मुआवजे के हकदार हैं. उनके लिए पैसे की मदद के साथ-साथ रहने के लिए एक जगह की भी व्यवस्था करनी पड़ती हैं. लेकिन ये भी सरकार समुचित तरीके से नहीं किया जा रहा. अब तक केवल 100 परिवारों को कुल 300,000 रुपये की वित्तीय सहायता मिली है जो की बेहद कम हैं.”
60 वर्षीय गौरी अपनी बेटी के साथ जिले के एक कॉफी एस्टेट में काम करती हैं, ताकि 2014 में उधार लिए गए 30,000 रुपये वापस कर सकें. वह कहती है कि उनके मालिक लगातार कर्ज का ब्याज बढ़ाते जा रहे हैं.
गौरी बताती हैं की “जब मैंने क़र्ज़ वापस करने का प्रस्ताव दिया, तो मालिक ने मनमाने ढंग से राशि को 1,30,000 रुपये तक बढ़ा दिया और हमारे लिए इसका भुगतान करना असंभव था. एक दिन में 150 रुपये कमा कर क्या इस जन्म मई ये कर्ज चूका पाऊँगी? अब बस एक ही उम्मीद हैं कि एएचएसएस उसकी रिहाई सुनिश्चित करा दे”.
कावेरी कॉफी बागान की मालिक कावेरी अम्मा से जब बात करने की कोशिश की गई तो उन्होंने कुछ भी कहने से इंकार कर दिया. हालाँकि उन्होंने कहा की “एएचएसएस के सदस्यों ने हम पर बागान में काम के ख़राब स्थिति का आरोप लगाया था ,जिसके बाद हमने मज़दूरी बढ़ा दी थी. उनकी वजह से कई मज़दूरों ने काम छोड़ दिया.”
रमेश और नंदिनी अपने घर गांव वापस चले गए हैं और अब वे एक छोटे से कॉफी बागान पर काम करते हैं. रमेश बताते हैं यहाँ रोज के लगभग 400 रुपये मिल जाते हैं. साथ ही जब चाहें तब आने-जाने की आज़ादी भी हैं. ”
नंदिनी कहती हैं, “बंधन में जीवन का अनुभव करने से हमें आज़ादी के साथ-साथ अपने श्रम की गरिमा का एहसास हुआ. अब मई चाहती हूँ की हमने जो सहा वो और किसी मज़दूर को न सहना पड़े और अब मैं इसके लिए संगठन के साथ जुड़ कर काम भी करती हूँ.”
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