‘सस्ता श्रम, महंगा जीवन: मुनाफे में उछाल के बावजूद मज़दूरों के हाथ खाली’

‘सस्ता श्रम, महंगा जीवन: मुनाफे में उछाल के बावजूद मज़दूरों के हाथ खाली’

बीते 9 सितंबर को चेन्नई के पास सैमसंग की फैक्ट्री में एक हज़ार से अधिक मज़दूरों ने वेतन बढ़ोतरी के साथ-साथ अपने और भी कई मांगों के समर्थन में हड़ताल कर दिया। सैमसंग मज़दूरों के इस हड़ताल को भारत में एक दशक से अधिक समय में सबसे बड़े औद्योगिक आंदोलनों में से एक कहा जा रहा है।

तमिलनाडु की राजधानी से लगभग एक घंटे की दूरी पर स्थित श्रीपेरंबुदूर का यह संयंत्र सैमसंग की भारत में होने वाली एक तिहाई राजस्व का स्रोत है।

हड़ताल के समर्थन में मज़दूरों का कहना है कि उनकी वेतन वृद्धि राज्य में जीवन-यापन की बढ़ती लागत के अनुरूप नहीं है। जबकि सैमसंग का कहना है कि वह क्षेत्र की अन्य कंपनियों से दोगुना वेतन देता है।

फिलहाल सैंतीस दिनों बाद हड़ताल समाप्त हो गई है लेकिन इस हड़ताल का एक व्यापक असर हुआ है।

केंद्र और राज्य सरकारें दुनिया भर से इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माताओं को भारत में कारखाने स्थापित करने के लिए आकर्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं।

जब तमिलनाडु में सैमसंग के मज़दूरों ने काम रोक दिया, उस समय राज्य के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन अमेरिका में विदेशी निवेशकों के लिए अपने राज्य के अनुकूल माहौल की चर्चा कर रहे थे।

केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार भी सतर्क है। यदि यह औद्योगिक अस्थिरता बड़ी हो गई, तो इससे सरकार की प्रमुख योजना ‘मेक इन इंडिया’ अभियान पटरी से उतर सकता है।

पिछले एक दशक में भारत ने श्रम कानूनों में महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं। जहां वैश्विक पूंजी ने इसे सुधार कहा, वहीं मज़दूरों और ट्रेड यूनियनों ने इसे मज़दूर अधिकारों का हनन बताया।

25 सितंबर को जब मोदी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने ‘मेक इन इंडिया’ पहल की 10वीं वर्षगांठ मनाई, तो मज़दूरों और ट्रेड यूनियनों ने दिल्ली, लखनऊ और कोलकाता की सड़कों पर श्रम कानूनों में हुए बदलावों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया।

गुस्से की वजह

दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में गिने जाने वाले भारत में हालिया मज़दूर विरोधों के मूल में जीवन-यापन की बढ़ती लागत है। अनियमित मानसून, हीट वेव्स और बार-बार होने वाली चरम मौसम की घटनाएं महंगाई को अस्थिर और अनिश्चित बना रही हैं, जिससे लाखों घरों में रसोई का बजट तंग हो गया है।

भारत में जून 2020 से जून 2024 तक खाद्य महंगाई दर 6% से अधिक रही है। 12 खाद्य श्रेणियों में से 6 में इस अवधि में 6% से अधिक महंगाई रही है। पिछले चार वर्षों में खाद्य महंगाई दर लगभग 6.3% औसत रही है, जो 2016 से 2020 के बीच की 2.9% औसत दर से कहीं अधिक है।

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के डिप्टी गवर्नर माइकल देबब्रत पात्रा और अन्य के एक हालिया पेपर में उल्लेख किया गया है कि, “उच्च खाद्य महंगाई घरेलू उपभोक्ताओं की महंगाई की धारणा और उम्मीदों को प्रभावित कर रही है, जिससे गैर-खाद्य वस्तुओं के दामों में भी असर पड़ सकता है।”

उन्होंने पेपर में बताया कि 2020 के बाद से खाद्य महंगाई एक स्थायी समस्या बन गई है, जिससे व्यापक चिंता उत्पन्न हो रही है। इन चिंताओं को वेतन वृद्धि की धीमी गति ने और बढ़ा दिया है।

भारत के विनिर्माण क्षेत्र में मज़दूरों का वेतन अन्य क्षेत्रों के मुकाबले पहले ही कम है। वित्तीय वर्ष 2020 से 2023 के बीच प्रति मज़दूर औसत वेतन वृद्धि भी महज 5% रही है, जबकि देश में औद्योगिक उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

सिर्फ मज़दूर ही नहीं, बल्कि केंद्र सरकार भी कंपनियों से निवेश नहीं बढ़ाने पर कुछ हद तक नाराज़ है।

मोदी सरकार ने वर्षों में बुनियादी ढांचे पर करोड़ों रुपए खर्च किए हैं और निवेश व रोजगार से जुड़ी समस्याओं को हल करने के लिए कॉर्पोरेट क्षेत्र को बड़े पैमाने पर कर रियायतें दी हैं।

2022 में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी इस पर टिप्पणी की थी, जब उन्होंने उद्योगपतियों से पूछा था कि करों में कमी के बाद भी वे निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं।

तीन साल पहले, सरकार ने मौजूदा कंपनियों के लिए कॉर्पोरेट टैक्स दर को 30% से घटाकर 22% और नए निर्माताओं के लिए 25% से घटाकर 15% कर दिया था।

भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए) वी. अनंत नागेश्वरन ने 2023-24 के आर्थिक सर्वेक्षण में इस पर ध्यान दिया, जहां उन्होंने कहा कि वर्तमान में निजी क्षेत्र का निवेश अनुपात इतना पर्याप्त नहीं है कि इससे देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण का हिस्सा बढ़ सके और यह केवल कुछ ही उच्च वेतन वाली नौकरियां पैदा कर सकता है।

अत्यधिक लाभ के बावजूद, भारतीय व्यवसायों ने सरकार की निवेश करने की अपील पर प्रतिक्रिया नहीं दी है।

आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, 33,000 से अधिक कंपनियों के वित्तीय परिणामों के नमूने से पता चलता है कि 2020 और 2023 के बीच कर पूर्व लाभ लगभग चार गुना हो गया है।

भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए) वी. अनंत नागेश्वरन कहते हैं, ‘नौकरी देने और वेतन वृद्धि में बहुत मामूली वृद्धि हुई है ‘।

मणिकंदन एसएम जो एक कंपनी में चीफ बिजनेस ऑफिसर और लेबर कम्प्लायंस समाधान प्रदाता हैं वो कहते हैं, ‘ महामारी के बाद की रिकवरी फेज में, व्यवसायों ने खुद को अधिक प्रभावी बनाने पर ध्यान केंद्रित किया। इस कारण लागत में कटौती और डिजिटलीकरण में वृद्धि हुई। इन परिवर्तनों से लाभ मार्जिन में वृद्धि हुई, खासकर तकनीक, वित्त और फास्ट-मूविंग कंज्यूमर गुड्स (FMCG) जैसे क्षेत्रों में। लेकिन इनका मज़दूरों के वेतन में बढ़ोतरी पर कोई असर नहीं पड़ा ‘।

अनौपचारिक श्रम बाजार की चुनौतियाँ

मणिकंदन आगे कहते हैं कि, ‘ भारत में एक बड़ा अनौपचारिक श्रम बाजार है, जिससे नौकरी की सुरक्षा और सौदेबाजी की क्षमता कम हो जाती है। हाल के वर्षों में, यहां तक कि औपचारिक नियोक्ता भी पूर्णकालिक कर्मचारियों की बजाय अल्पकालिक ठेके पर काम करने वालों की ओर रुख कर रहे हैं। इस व्यवस्था में, मज़दूरों को पारंपरिक नौकरियों की तरह नियमित वेतन वृद्धि नहीं मिलती है ‘।

कई दशकों से, जिन कंपनियों ने भारत में विनिर्माण संयंत्र स्थापित किए हैं, उन्होंने ऐसा सस्ते श्रम लागत के कारण किया है।

2022 में, यूएस न्यूज एंड वर्ल्ड रिपोर्ट के अनुसार, ‘ भारत को वैश्विक स्तर पर सबसे कम विनिर्माण लागत वाले देश के रूप में स्थान दिया गया। इसके बावजूद सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान केवल 17% ही है। इसके विपरीत वियतनाम और मेक्सिको जैसे देशों में जो चीन प्लस वन रणनीति के प्रमुख लाभार्थी हैं विनिर्माण का योगदान उनके जीडीपी में 20% से अधिक है। वहां के कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों को बेहतर वेतन भी मिलता है ‘।

इसका मुख्य कारण यह है कि भारतीय विनिर्माण में उत्पादकता की समस्या है। भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) द्वारा KLEMS (पूंजी, श्रम, ऊर्जा, सामग्री और सेवा) डाटाबेस का विश्लेषण बताता है कि 2022-23 में 27 में से 9 उद्योगों में श्रम उत्पादकता पिछले वर्ष की तुलना में घटी है। इनमें से आठ उद्योग विनिर्माण क्षेत्र के थे।

केंद्र सरकार इस समस्या को हल करने के लिए औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों (आईटीआई) को अपग्रेड करने का प्रयास कर रही है।

2024-25 के केंद्रीय बजट में 1,000 आईटीआई के उन्नयन की घोषणा की गई। लेकिन क्या ये कदम उस विनिर्माण क्षेत्र की मदद करेंगे, जिसमें पहले से 1.84 करोड़ लोग काम कर रहे हैं, यह विचारणीय है।

लॉजिस्टिक्स की बढ़ती लागत का बोझ मज़दूरों पर

टीमलीज की भर्ती सेवा कंपनी के मुख्य रणनीति अधिकारी सुब्बुरातिनम पी कहते हैं, ‘ फ्रंटलाइन मैन्युफैक्चरिंग भूमिकाओं, जो अक्सर सपोर्ट और असेंबली पर केंद्रित होती हैं, को अधिक प्रतिस्थापनीय माना जाता है। नतीजतन, कंपनियां व्यक्तिगत मज़दूरों के बजाय विशिष्ट कौशल सेट बनाए रखने पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं ‘।

वे आगे कहते हैं, ‘ भारत की विशाल जनसंख्या एक दोधारी तलवार है एक तरफ, यह दक्षिण एशियाई बाजार में देश को एक प्रतिस्पर्धात्मक लाभ देती है, जबकि दूसरी ओर, यह श्रम लागत को कम कर देती है।’

मणिकंदन कहते हैं, “मेक्सिको और वियतनाम जैसे देशों की तुलना में भारतीय विनिर्माण उच्च लागत के कारण प्रतिस्पर्धा में पिछड़ रहा है। दुख की बात यह है कि यह अतिरिक्त लागत कारखाने के दरवाजे पर नहीं आती, बल्कि उच्च लॉजिस्टिक्स लागत के कारण होती है। इसके परिणामस्वरूप, जबकि इस क्षेत्र ने लाखों लोगों को रोजगार दिया है, यह अपने मज़दूरों को बेहतर वेतन देने में असमर्थ रहा है।”

केंद्रीय श्रम सचिव सुमिता डावरा कहती हैं, ‘ मज़दूरों की कठिनाइयों को समझते हुए, केंद्र सरकार नौकरियों को औपचारिक बनाने और मज़दूरों को सामाजिक सुरक्षा लाभ देने की कोशिश कर रही है। इन प्रयासों से भारत के रोजगार परिदृश्य में औपचारिक क्षेत्र की हिस्सेदारी में उल्लेखनीय वृद्धि होने की उम्मीद है, जिससे अधिक मज़दूरों को नौकरी की सुरक्षा, सामाजिक लाभ और बेहतर कार्य स्थितियाँ मिलेंगी ‘।

लेकिन अगर सैमसंग में अपेक्षाकृत बेहतर वेतन पाने वाले औपचारिक मज़दूर भी विरोध कर सकते हैं, तो केवल औपचारिकता से भारतीय मज़दूरों की समस्याओं का समाधान संभव नहीं है।

भारत में मज़दूर असंतोष कोई नई बात नहीं है। कपड़ा और ऑटोमोबाइल जैसे कई क्षेत्रों में मज़दूरों के बेचैन होने पर उद्योग प्रभावित हुए हैं।

श्रीपेरंबुदूर में सैमसंग संयंत्र में असंतोष ने भारत के विनिर्माण गलियारों में अलार्म बजा दिया है। एक प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनी में मज़दूरों का यह असंतोष हो सकता है एक बड़े प्रतिरोध का आहट हो।

(आउटलुक बिजनेस की खबर से साभार)

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Abhinav Kumar

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