दत्ता सामंत की हत्या मामले में गैंगेस्टर छोटा राजन बरी, एक उभरते मज़दूर आंदोलन की कैसे हुई हत्या?
सीबीआई की विशेष अदालत ने पिछले हफ़्ते गैंगेस्टर छोटा राजन को महाराष्ट्र के सबसे प्रमुख ट्रेड यूनियन नेताओं में से एक दत्ता सामंत की हत्या के मामले में बरी कर दिया है।
बीते शुक्रवार को दिए अपने फैसले में अदालत ने कहा कि सबूतों के अभाव में छोटा राजन को बरी किया जा रहा है. बचाव पक्ष की दलील थी कि सामंत की हत्या के समय छोटा राजन दुबई में था।
मालूम हो कि जाने माने ट्रेड यूनियन नेता दत्ता सामंत ने 1982-83 में मुंबई कपड़ा मिल के मज़दूरों के ऐतिहासिक हड़ताल का नेतृत्व किया था, जिसे इतिहास की सबसे लंबी हड़तालों में से एक माना जाता है।
दत्ता सामंत ने लगभग 2.5 लाख मिल श्रमिकों के साथ बॉम्बे (बाद में मुंबई ) में कपड़ा मिल मालिकों के खिलाफ एक विशाल, अनिश्चितकालीन हड़ताल का नेतृत्व किया, जो 18 महीने तक चली थी।
इस अभूतपूर्व हड़ताल का उद्देश्य मिल श्रमिकों की विभिन्न मांगों के लिए था , जिसमें बढ़ी हुई मजदूरी, बेहतर काम करने की स्थिति,अनुबंधित मज़दूरों का नियमितीकरण, घर का किराया और सवैतनिक अवकाश शामिल थे।
हत्याः मिल मालिक और अंडरवर्ल्ड गठजोड़!
सरकारी दबाव और दमन से बेपरवाह सामंत (1932-1997) ने अपनी ट्रेड यूनियन गतिविधियों को लगातार जारी रखा।
16 जनवरी, 1997 को वह किसी भी अन्य दिन की तरह जब वह पवई में अपने घर से पंतनगर में अपने कार्यालय जाने के लिए निकले थे की घर से महज 50 मीटर की दूरी पर जब वह अपनी कार में जा रहे थे, जो मिल श्रमिकों द्वारा उन्हें उपहार में दी गई थी।
उन्हें एक साइकिल सवार ने रोक और फिर चार हमलावरों ने उन पर 17 राउंड फायरिंग की और तुरंत मौके से फरार हो गए।
सामंत को उनके बेटे के क्लिनिक ले जाया गया, जहां प्रारंभिक जाँच के बाद उन्हें मृत घोषित कर दिया गया.
अप्रैल 2007 में पुलिस ने सामंत हत्या मामले में तीन संदिग्धों को गिरफ्तार किया था। अक्टूबर 2007 में, एक अन्य संदिग्ध को पुलिस ने गोली मार दी थी।
इस बीच अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन को भी पुलिस ने इस मामले में एक आरोपी के रूप में नामित किया था।
शुक्रवार को मुंबई में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने छोटा राजन को सामंत हत्या मामले में सभी आरोपों से बरी कर दिया.
उस ऐतिहासिक हड़ताल से जुड़े विक्टोरिया मिल के एक मज़दूर का कहना था कि “सामंत मिल की जमीनों को बेचे जाने के खिलाफ थे जिसके कारण मिल मालिक और अंडरवर्ल्ड ने मिलकर उनकी हत्या कर दी।”
ट्रेड यूनियनों के उदय का काल
ये वो समय था जब आज का मुंबई कपड़ा मिलों से भरा हुआ था. इन मिलों के मज़दूर, शहर के श्रमिक कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा माने जाते थे।
और इस तरह ये मिलें विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले कई प्रमुख श्रमिक संगठनों के साथ मजबूत ट्रेड यूनियन और मज़दूर राजनीति के लिए एक बड़ा माहौल तैयार करते थे।
उदारीकरण से पहले के दौर में महाराष्ट्र में श्रमिकों के कल्याण और उत्थान के लिए आंदोलनों का एक लंबा इतिहास रहा है।
इन आंदोलनों की वजह से एसए डांगे, एसएम जोशी और जॉर्ज फर्नांडीस समेत कई कम्युनिस्ट और समाजवादी नेताओं और ट्रेड यूनियन दिग्गजों का उदय हुआ।
डॉक्टर से ट्रेड यूनियन नेता का सफर
लेकिन दत्ता सामंत इन सबसे एक अलग छवि रखते थे। पेशे से सामंत एमबीबीएस डॉक्टर थे पर बाद में उन्होंने देश की व्यापारिक राजधानी मुंबई में अब तक के सबसे बड़े मिल मज़दूरों के हड़ताल का नेतृत्व किया।
कोंकण क्षेत्र के रत्नागिरी के एक मध्यम वर्गीय महाराष्ट्रियन परिवार से ताल्लुक रखने वाले “डॉक्टर साहब”, जैसा कि सामंत लोकप्रिय रूप से जाने जाते थे, ने श्रमिकों की दुर्दशा से प्रेरित होकर ट्रेड यूनियन की ओर झुकना शुरू कर दिया।
मज़दूरों के बीच एक ट्रेड यूनियन नेता के तौर पर काम करने के दौरान एक ऐसा समय भी आया कि दत्ता सामंत की एक आवाज़ पर तब की बम्बई ठप हो जाती थी.
एक नेता के तौर पर सामंत मज़दूरों के लिए हमेशा सुलभ होते थे।
घाटकोपर के पंतनगर स्थित उनके कार्यालय में हमेशा भारी भीड़ रहती थी और मज़दूर अपनी समस्याओं को लेकर वहां कतार में खड़े रहते थे।
मिल की ज़मीनों पर थी मिल मालिकों की नज़र
1982 -83 की ऐतिहासिक हड़ताल का बहाना लेकर मुंबई के मिल मालिकों ने बड़ी संख्या में मुंबई की कपडा मिलों पर ताला लटका दिया।
जिसके बाद बुर्जुआ मिडिया ये दावा कर रही थी की पहले से ही घाटे में चल रही मिलों को इस हड़ताल ने हमेशा-हमेशा के लिए बंद होने पर मज़बूर किया और जिससे भारी संख्या में मज़दूरों को बेरोजगार होना पड़ा.
हालाँकि दत्ता सामंत का ये दावा था की तब भी मिलें भारी मुनाफे में थी लेकिन मज़दूरों के हक़ के सवाल पर चुप्पी साधे हुई थीं।
मज़दूरों का शोषण अपने चरम पर था वो बदतर हालात में जीने को मज़बूर थे।
सामंत ने बाद में बताया था कि मिल मालिक मज़दूरों को बीच मझधार में छोड़ कर भाग गए। मिलों से हुए भारी मुनाफे को उन्होंने अन्य जगह लगा दिया जैसे नए कमर्शियल काम्प्लेक्स, रियल स्टेट इत्यादि में।
उनका कहना था कि हड़ताल के दौरान पूरी दुनिया में हो रहे बदलाव को देखते हुए मिल मालिकों ने मिल की जमीनों पर अपनी नज़र गड़ा दी और रियल स्टेट से महंगे दामों में ज़मीनों का सौदा किया या बिल्डर बन गए।
उदारीकरण के बाद ट्रेड यूनियन आंदोलन
गौरतलब है कि ये 80 का वही दशक है जब दुनिया भर की सरकारों ने ट्रेड यूनियनों के साथ सीधे बात करने से अपने हाथ पीछे खींचने शुरू कर दिए थे।
इसका सीधा उदहारण हम 80 के दशक में दुनिया भर में हुए मज़दूरों के विभिन्न आंदोलनों में देख सकते हैं, फिर चाहे अमेरिका में हुए पार्टिको एयर ट्रैफिक कर्मियों की हड़ताल हो, इंग्लैंड में खनन मज़दूरों का आंदोलन हो या फिर बम्बई कपडा मिल मज़दूरों की हड़ताल हो।
ये वही दौर था जब उदारीकरण की प्रारंभिक धमक अपने उछाल पर थी। पूंजी के जोर के आगे मज़दूरों के सांगठनिक मांगों, उनके अधिकारों को बुरी तरह से रौंदने की शुरुआत हो चुकी थी।
सामंत अक्सर कहा करते थे कि “हमारी लड़ाई हमेशा मिल श्रमिकों के शोषण के खिलाफ थी। हमारी मांग उनके लिए अच्छी मजदूरी और बेहतर काम करने की सुविधा थी। जिन मिलों को बाद में बीमार बताया जा रहा था वो मज़दूरों की अथक परिश्रम का नतीजा थीं। इस मज़दूर निर्मित विकास को दलाल नेताओं और मिल मालिकों ने अपने निजी स्वार्थ को पूरा करने का अड्डा बना लिया था।”
आपातकाल के दौरान जेल
1975 के आपातकाल के दौरान उन्हें उग्रवादी ट्रेड यूनियन नेता बता गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।
1982 – 83 के ऐतिहासिक हड़ताल के बाद बुर्जुआ मिडिया के द्वारा उन्हें विलेन बनाने की तमाम कोशिशें की गईं।
बावजूद, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब पूरे देश में कांग्रेस समर्थन लहर के बीच 1984 के लोकसभा चुनाव हुआ तो दत्ता सामंत मुंबई दक्षिण मध्य निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में सांसदी जीतने में सफल रहे।
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