लॉकडाउन में शहरों से ‘खदेड़े गए’ वंचित तबकों के मजदूर करेंगे बिहार की किस्मत का फैसला
लॉकडाउन के दौरान दर-बदर हुए श्रमिक भले जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन चुनावी सत्ता के खिलाडिय़ों को उनकी ताकत और संख्याबल का सही अंदाजा है। सच यही है, बिहार चुनाव का रुख मोडऩे की नहीं, किसी की भी सरकार से हल जुतवाने की ताकत इन श्रमिकों के पास है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना में बिहार के 84 प्रतिशत जिलों का चयन हुआ और पूरे बिहार में घर पहुंचाने की जिम्मेदारी को प्रचार को भुनाया जा रहा है।
देशव्यापी तालाबंदी के बाद बिहार में मतदाता की मानसिक बनावट का सबसे बड़ा उलटफेर हुआ है। मौजूदा चुनाव के वक्त राज्य में बड़ी तादाद उन श्रमिकों की है, जो औद्योगिक व संपन्न शहरों से बेरोजगार होकर यहां मुश्किलों का सामना कर रहे हैं और आजीविका का कोई आसरा भी नहीं है या फिर बेहद कामचलाऊ है।
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यूनीसेफ और डवलपमेंट मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट (डीएमआई) की ओर से हुए अध्ययन ‘प्रवासी परिवारों पर कोविड-19 का प्रभाव’ में कई परतें उजागर हुई हैं, जिनका आभास भी आमतौर पर नहीं होता। बताया गया है कि लॉकडाउन के चलते प्रवासी परिवारों की आधी संख्या की आय बिल्कुल खत्म हो चुकी है, जबकि 30 प्रतिशत की आय नाममात्र को है। सिर्फ 12 फीसद ही ऐसे हैं, जिनकी आय पर मामूली असर हुआ और सात प्रतिशत पर कोई फर्क नहीं पड़ा।
अध्ययन में यह भी बताया गया है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों से जुड़े लोगों की नौकरी का नुकसान बाकियों के मुकाबले ज्यादा है। इन लोगों में हर पांचवें व्यक्ति ने कहा कि उनका गुजारा सरकारी योजनाओं से चल रहा है। लौटने वाले प्रवासियों में से लगभग 70 प्रतिशत सामाजिक रूप से वंचित वर्ग के हैं। सामाजिक श्रेणी के अनुसार 29 प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) से, 23 प्रतिशत अति पिछड़ी जाति (ईबीसी) से, 21 प्रतिशत सामान्य वर्ग से, 20 प्रतिशत अनुसूचित जाति (एससी) और 3 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति से हैं।
अध्ययन के अनुसार, बड़े शहरों में श्रमिकों के रिवर्स माइग्रेशन का वाले राज्य में सबसे ज्यादा हो सकता है। अनुमान है कि 10 जुलाई तक कुल 1.88 मिलियन प्रवासी मजदूर बिहार लौट आए थे। सरकार के आंकड़ों के हिसाबस से तालाबंदी के दौरान लगभग 20 लाख से ज्यादा प्रवासी श्रमिक बिहार लौट आए। सरकार ने इन्हीं में से 14 लाख के कौशल को जांचा।
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यूनिसेफ बिहार की सामाजिक नीति विशेषज्ञ डॉ. उर्वशी कौशिक ने कहा कि नौकरी छूटने और अनिश्चितता के कारण प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों के लिए अभूतपूर्व कष्ट और विनाशकारी परिणाम हुए हैं। इस स्थिति ने महिलाओं और बच्चों को चिंता, भय और सामाजिक ढांचे की कुरीतियों में धकेल दिया है, जबकि खाने, रहने, सेहत और मजदूरी न मिलने की समस्याएं से हर वक्त सामना है।
यूनिसेफ बिहार के प्रोग्राम मैनेजर शिवेंद्र पंड्या का कहना है कि अध्ययन में ये भी सामने आया कि 14-17 वर्ष की आयु के किशोरों अपने परिवारों के साथ बड़ी संख्या में पलायन किया। दिलचस्प बात यह है कि राज्य सरकार के पास इस बात का कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है कि बिहार के कितने मजदूर राज्य के बाहर कार्यरत हैं।
इस पर भी हाल ये है कि बिहार में 1,07,945 कोरोना संक्रमित केसों के अलावा 80 लाख से ज्यादा लोग बाढ़ से प्रभावित हैं, जिनमें हजारों लोगों को जिंदा रहने के लिए ऊंची जगहों या हाईवे के आसपास पनाह लेने को मजबूर होना पड़ा है।
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