हाथरस का दलित परिवार छोड़ना चाहता है गांवः पीयूसीएल की नागरिक जांच में बताई मन की बात

हाथरस का दलित परिवार छोड़ना चाहता है गांवः पीयूसीएल की नागरिक जांच में बताई मन की बात

उत्तर प्रदेश के जिला महामाया नगर (अलीगढ़ प्रभाग) के अंतर्गत हाथरस की बघाना ग्राम पचायत के चंदपा थाना क्षेत्र के गांव बूलगढ़ी में 14 सितंबर, 2020 को अनुसूचित जाति (वाल्मीकि) से संबंधित भूमिहीन-गरीब किसान वर्ग की एक 19 वर्षीय लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार, हत्या और अनुसूचित जाति एव जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनयम, 1989 के अंतर्गत चार नामजद अभियुक्तों के विरुद्घ मामला दर्ज है। घटना के दो सप्ताह बाद 29 सितंबर अल-सुबह लगभग 5 बजे, नयी दिल्ली स्थित सफदरजंग अस्पताल में पीड़िता की मौत हुई थी। इस मामले की जांच अब इलाहाबाद उच्च न्यायालय की देखरेख में सीबीआई (केंद्रीय जांच ब्यूरो) कर रही है। इसके अतिरिक्त मामले से संबंधित अन्य मुकदमे सरकार ने दर्ज किए हैं, जो कि इस मामले में पुलिस व सरकार की भूमिका के खिलाफ जन विरोध से संबंधित हैं। इस संदर्भ में दर्ज प्राथमिकियों में सरकार की छवि धूमिल करने और प्रदेश में बड़ा दंगा कराने से संबंधित षड़यंत्र के आरोप में मथुरा जेल में वे चार आरोपी भी हैं, जिनके विरुद्घ दंगा भड़काने की साजिश, राजद्रोह, विदेशी फंडिंग से देश विरोधी गतिविधियों का संचालन करने के आरोप में प्राथमिकी दर्ज की गई है। इन मुकदमों की जांच विशेष टास्क फोर्स (एसटीएफ) द्वारा की जा रही है। सीबीआई जांच की परिधि से इन मुकदमों को राज्य सरकार के अधीन जांच एजेंसी के अंतर्गत रखा गया है।

पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों की लापरवाही, मृतका के शव को परिजनों की इच्छा के विपरीत तथा रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार किए बिना जलाने, मृतका के परिजनों को डराने, धमकाने व प्रलाेभित करने और फायरिंग कर जान से मारने की धमकी देने, मृतका के चरित्र और परिजनों के विरुद्घ अपवाद फैलाने के लिए संबंधित परिवादी पक्ष के बयानों के आधार पर प्रशासनिक अधिकारियों के विरुद्घ अंतर्गत धारा 4(1)अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम 1989 के अंतर्गत प्रथम दृष्ट्या साक्ष्य हैं। इसके बावजूद इन पर संज्ञान नहीं लिया जा रहा है। परिवादी पक्ष का एक बड़ा आरोप यह भी है कि मृतका के इलाज में लापरवाही बरती गई है, मृत्यु संदिग्ध अवस्था में हुई है। मामले के साक्ष्य मिटाने के लिए कोई बड़ी साजिश रही है, जिसमें अरोपियों के साथ पुलिस-प्रशासन और राजनेताओं की सांठगांठ रही है।

बलात्कार व हत्या से संबंधित मामले के अनेक तथ्य सरकारी व गैर सरकारी, नागरिक जांचों व मीडिया रिपोर्टों के जरिए सामने आ चुके हैं, उच्च न्यायालय की निगरानी में सीबीआई जांच से स्थिति और साफ होने की उम्मीद की जा रही है। तदापि, मृतका के परिजनों ने उत्तर प्रदेश सरकार और जांच एजेंसियों और सीबीआई के प्रति अविश्वास जाहिर करते हुए, मामला प्रदेश से बाहर स्थांतरित किए जाने और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित टीम द्वारा जांच और सुरक्षा की मांग की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई जांच को उच्च न्यायालय की निगरानी की व्यवस्था के जरिए समाधान निकाला है। उच्च न्यायालय ने जांच की निष्पक्षता और विश्वसनीयता से संबंधित निर्देश जारी करते हुए केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल द्वारा परिवादी परिजनों की सुरक्षा, उच्च न्यायालय की निगरानी में जांच, और मुकदमा प्रदेश के बाहर स्थांतरित किए जाने के संबंध में परिवादी की याचिका पर जांच के बाद विचार किया जाना तय किया है।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दावा किया था कि हाथरस मामले की आड़ में कई संगठन उत्तर प्रदेश में जातीय हिंसा फैलाने की साजिश रच रहे हैं। इसी आरोप में राजद्रोह जैसे संगीन धाराओं में केरल के मल्लपुरम निवासी पत्रकार सिद्दीक कप्पन‚ मुजफ्फरनगर निवासी अतीक उर रहमान‚ बहराइच निवासी मसूद अहमद और रामपुर निवासी आलम इन चार लोगों को गिरफ्तार करके मथ‌ुरा जेल में बंद किया गया है। उनके खिलाफ दंगा भड़काने की साजिश, देशद्रोह, विदेशी फंडिंग से देश विरोधी गतिविधियों का संचालन करने के आरोप हैं। सरकार का कहना है ये चारों पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) और कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (CFI) के सदस्य हैं। बक़ौल सरकार, पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) एक उग्रवादी इस्लामिक संगठन है, कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (CFI) उसका छात्र संगठन है। नागरिकता कानून (CAA) के विरोध में शाहीन बाग आंदोलन के दौरान हुई हिंसा के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे जिम्मेदार बताया था। इसके अलावा थाना चंदपा में ही कांग्रेस नेता श्यौराज जीवन के खिलाफ भड़काऊ बयानबाजी करने का एक मुकदमा दर्ज किया गया है। दोनों मुकदमों की विवेचना अब एसटीएफ ही कर रही है।

हाथरस कांड में पुलिस और सरकार की भूमिका के विरोध में जनविरोध को लेकर प्रदेश के कई जिलों में दर्जन भर से ज्यादा मुकदमे दर्ज किए गए हैं। इनमें भीम आर्मी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद, भाजपा नेता पूर्व विधायक राजवीर सिंह पहलवान, कांग्रेस के जिलाध्यक्ष चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, सवर्ण परिषद के राष्ट्रीय प्रचारक पंकज धवरैय्या सहित कई के खिलाफ अलग-अलग मुकदमे दर्ज हुए। आम चर्चा है कि इन मामलों में एसटीफ की जांच का दायरा सरकार बढ़ा भी सकती है। इसे लेकर नागरिकों में पुलिस व प्रशासन द्वारा भय व आतंक का माहौल तथा नागरिक अधिकारों के दमन के भी आरोप हैं।

पीयूसीएल की जांच

उत्तर प्रदेश पीयूसीएल की टीम के सदस्य मनीष सिन्हा, सीमा आज़ाद, आलोक, विदुषी, सिद्घांत राज, शशिकांत , के बी मौर्य, तौहीद, के एम भाई एवं कमलसिंह ने 4 अक्टूबर 2020 को हाथरस जाकर उच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुक्रम में सीबीआई द्वारा जारी जांच को लेकर नागरिक जांच की है। टीम में पीयूसीएल के वरिष्ठ सदस्य रामकुमार भी थे परंतु कारण वश वे मौके पर जांच में सम्मिलित नहीं हो सके। इस रिपोर्ट के साथ घटना से संबंधित तथ्यों का संक्षिप्त विवरण बतौर पृष्ठभूमि इस उद्देश्य संकलित है, पूरा प्रकरण, सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि और घटनाक्रम समझने में सहायक होगा, जारी जांच की कमजोरियों को भी समझा जा सकेगा।

पीयूसीएल की यह टीम 4 नवंबर मध्य दोपहर बूलगढ़ी पहुंची। गांव में सन्नाटा पसरा हुआ था। बूलगढ़ी में प्रवेश करते ही सीआरपीएफ के बंदूकधारी जवानों से घिरा एक घर नज़र आया। घर की छत पर तैनात सीआरपीफ का एक जवान हाथ में बंदूक थामे हमें घूर रहा था। नीचे चार-छह जवान थे। कार से उतरे ही एलआईयू का एक कारकुन हाथ में रजिस्टर थामे नमूदार हुआ। उसने हमारे नाम पते नोट किए। घर के प्रवेश से पहले एक खंडहरनुमा प्रांगण में सीआरपीएफ़ के जवानों ने हमसे पूछताछ की और नाम, पते, मोबाइल नंबर आदि विवरण एक रजिस्टर में दर्ज किए। उन्होंने हमारे परिचय पत्र देखे तथा उनके फोटो लिए।

मेटल डिटेक्टर से बारी-बारी गुजर कर हम मृतका के घर पहुंचे। लगभग साठ साल आयु, पके बाल, एक कृशकाय सज्जन उदास सवालिया निगाहों से हमें देख रहे थे। वे मृतका के पिता थे। हमने अपना परिचय और मकसद बताते हुए कहा, हम आपके दुःख में शरीक हैं। मामले के संबंध में नागरिक जांच कर रहे हैं। आपके मददगार के रूप में आए हैं। उन्होंने हमें घर में आने के लिए आमंत्रित किया। पक्की दीवार वाले दो कमरे और पक्की छत, लेकिन मिट्टी का कच्चा फर्श, गोबर से पुता आंगन; वहां पड़े एक तख्त और तीन चारपाइयों पर हम बैठे। पानी मांग के पिया। छत पर तैनात संतरी और छत की दीवार में लगा घूरता सीसीटीवी कैमरा, तैनात सुरक्षाकर्मियों के बीच हमने अपनी पड़ताल प्रारंभ की। घर में मृतका के पिता के अतिरिक्त मृतका के दोनों बड़े भाई, भाभी, एक बहन और घूंघट ओढ़े मृतका की मां थी। उन्होंने घटना के बारे में जो कुछ बताया उसमें कुछ ऐसा भी था, जो अब तक मीडिया में सामने नहीं आया है।

सुरक्षा के बारे में पूछने पर परिवादी पक्ष ने बताया, “जबसे सीआरपीएफ के जवान हैं, राहत है। इससे पहले जब तक, पुलिस-पीएसी के लोग थे हम बेहद डरे हुए थे। वे लोग ठाकुरों (आरोपियों) के घर में खाते-पीते थे, उनके साथ रिश्तेदारियां निकालते थे। हमारे (प्रतिवादी गण) प्रति उनका रवैया अपमानजक और प्रशासनिक अधिकारियों का व्यवहार दाब-धौंस वाला था।” अब तो सब ठीक है, पूछने पर मृतका के पिता ने कहा, “सीआरपीफ के लोग यहां कब तक रहेंगे! बेटी तो खो चुके हैं अब ये जो दो बेटे बचे हैं उनकी जान को लेकर चिंता रहती है। चारों और ठाकुरों के घर हैं। हम बाल्मिकी समाज के कुल चार घर हैं। पहले (लगभग 19 बरस पहले) जब हमारे पिता (मृतका के मरहूम दादा) पर इन्हीं (आरोपी परिवार) के लोगों ने जानलेवा हमला किया था, वे मरते-मरते बचे थे। उनके सिर में कर्इ टांके आए थे और गरदन पर दराती से वार किया गया था। मामला चला परंतु समय बीतने के साथ दबाव, आतंक, प्रलोभन और विवशताओं का फायदा उठाकर गवाहों से हलफनामा लगावा कर बयान तुड़वा दिए। अंत में हमने भी हार मान ली।” न्यायालय से इंसाफ के लिए मुकदमे बाजी के पैतरों, दबंगों व पुलिस-प्रशासन की सांठगांठ के अपने कटु अनुभवाें का हवाला देते हुए उन्होंने यही कहा “अब चिंता बच्चों की है।” उन्होंने रोते हुए हताश-निराश, भयभीत स्वर में कहा, “बेटी के भाग्य में शायद ऐसी ही माैत थी। हम नाली और गंदगी साफ करने वाले हैं। हमारी बेटी भी उसी गंदगी का शिकार हो गई। अब जो ये दो बच्चे हैं उनकी जान बचानी है। मैं उनसे यही कहता हूं कहीं बाहर बस जाओ।” हम अवाक् रह गए। आश्वासन देने की हिम्मत हममें भी नहीं थी। यह जरूर कहा कि आपके साथ अन्याय हुआ है और देश में आपके साथ बहुत लोग हैं। गांव पंचायत के प्रधान समेत ज्यादातर लोग ठाकुरों के साथ हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सामाजिक वातावरण और प्रशासन की मशीनरी के जरिए पीड़ित परिवार की रक्षा हो सकेगी इसमें अंदेशा स्वाभाविक है। भारतीय लोकतंत्र की इस जमीनी हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता। हमने पूछा कि प्रदेश सरकार द्वारा परिवार के एक व्यक्ति को नोकरी दिए जाने का आश्वासन दिया गया है। जवाब में बताया गया “अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है, 25 लाख रुपया जरूर बैंक में आ गया है।”

हाथरस का बूलगढ़ी गांव

हाथरस मुख्यालय से लगभग 12 किलोमीटर दूर स्थित बूलगढ़ी गांव की आबादी लगभग 500 से कुछ अधिक है। बूलगढ़ी भगना गांव का मजरा है। इसमें लगभग 66 घर हैं। यहां ठाकुर जाति का बाहुल्य है। गांव में ब्राह्मण, बनिया के अलावा नाई और प्रजापति जाति के लागों का भी एक-एक परिवार बसा है। मृतका के पिता ने बताया पीड़़ित परिवार के पास कोई पुश्तैनी भूमि नहीं थी। सूअर, बकरी, भैंस आदि मवेशी पाल करके, ठाकुरों के खेत में काम करके ही जीवन बसर होता था। लगभग बंधुआ मजदूर की स्थिति थी। सरकार की योजना के अंतर्गत 1997 में, उसे पांच बीघा कृषि भूमि का एक पट्टा मिला। भूमि पर ठाकुरों की लालची निगाह थी। वही दौर था, जब मृतका के दादा पर आरोपी परिवार के ठाकुरों ने जानलेवा हमला किया था। आरोपी परिवार में चार भाइयों के पास कुल मिलाकर लगभग 60-70 बीघा से अधिक ही भूमि है। वह गांव का दबंग परिवार है, गांव के अन्य ठाकुर परिवारों के साथ भी उनका विवाद चलता रहता है, जिसे लेकर कई मुकदमे भी कायम हुए हैं। आराेपियों का चाल-चलन दुरुस्त नहीं है। वे नशा भी करते हैं।

मृतका के पिता ने बताया परिवार के साथ खेती और सात मवेशियों, जिनमें दो भैंस हैं की देखभाल के आलावा पास में एक स्कूल में वे सफार्इ कर्मचारी के रूप में आंशिक तौर पर काम करते हैं। मृतका के दोनों भाई इंंटर तक पढ़े हैं। इनमें से सबसे बड़े भार्इ ने मोबाइल का काम भी सीखा है। वह नोएडा में एमसीएम मोबाइल कंपनी में कार्यरत रहे हैं। उससे छोटा नोएडा में डॉ लाल पथ लैब्स में सेवारत हैं। घटना के समय सबसे बड़ा भाई गांव में तथा दूसरा नोएडा में था। घटना का समाचार मिलते ही यह दूसरा भाई नोएडा से तुरंत लौट आया। वह ही अस्पताल में अपनी मां के साथ पीड़िता की सेवा-सुश्रूषा में था। मृतका ने भी गांव के प्राथमिक स्कूल तक पढ़ाई की थी। इसके बाद पढ़ाई आगे जारी नही रह सकी। ड्राॅप आउट का कारण पूछने पर बताया गांव में स्कूल नहीं है। आसपास जो स्कूल हैं, डेढ़-दो किलाेमीटर के फासले पर हैं। इसके बाद दबे स्वर में बताया, “हमारे वाल्मिकी परिवार में शिक्षा आसान नहीं है। काफी भेद-भाव रहता है। लड़कियों को दूर भेजने में आशंका रहती है। यही कारण है हमारे समाज में लड़कियों की शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है।” पूछने पर यह भी बताया हमारे समाज के लिए गांव में अलग श्मशान है। अन्य जाति के लोग वहां शवदाह नहीं करते हैं। छूआछूत की समस्या बरकरार है। यहां तक कि वाल्मीकि जाति के ही स्थानीय भाजपा विधायक, जो अब सांसद हैं, ठाकुरों के घर जाते हैं तो पानी पीने के लिए अपना गिलास साथ ले जाते हैं। जमीन पर बैठते हैं और बैठने के लिए अपनी दरी साथ ले जाते हैं।

हाथरस विधानसभा और लोकसभा दोनों अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। यहां मुख्य टक्कर बसपा और भाजपा में रहती है। बसपा का आधार मुख्य रूप से जाटव समाज में है। कल्याणसिंह के समय से यहां अतिपिछड़ी, दलित जातियों और सवर्ण जातियों का गठबंधन रहा है। लोकसभा और विधानसभा दोनों के चुनाव में यहां अति दलित वाल्मीकि समाज का प्रतिनिधि भाजपा के टिकट पर बाजी मार लेता है। दरअसल पश्चिम उत्तर प्रदेश में वाल्मीकि समाज का अच्छा खासा वोट बैंक है। पहले इस समाज में कांग्रेस का आधार था परंतु अब वाल्मीकि समाज भाजपा के पाले में है। मृतका के पूरे परिवार ने भाजपा को ही वोट दिया था।

घटना टाइमलाईन

चंदपा थाने में दर्ज प्राथमिकी के अनुसार घटना दिनांक 14 सितंबर, 2020, दिन लगभग 9 बजे, अंतर्गत धारा 307, 325 भारतीय दंड संहिता एवं अंतर्गत धारा 2 अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनयम, 1989 दर्ज की गर्इ थी। दिनांक 22 सितंबर, 2020 को मजिस्ट्रेट के समक्ष पीड़िता के कलमबंद बयान (अब मृत्युपूर्व बयान) के बाद मामले में विवेचना अधिकारी (IO) ब्रह्म सिंह पुलिस क्षेत्राधिकारी द्वारा अंतर्गत धारा 161दंप्रसं पीड़िता के दर्ज बयान के आधार पर मामले में सामूहिक बलात्कार से संबंधित धारा 376 D जोड़ दी गई है। दर्ज प्राथमिकी में आरोपी संदीप (18 वर्ष) के साथ तीन और नाम लवकुश (19 वर्ष) , रवि (28 वर्ष) और रामसिंह (30 वर्ष) का नाम आरोपी के रूप में जोड़ दिया गया है। लवकुश और संदीप दोस्त है तथा शेष दोनों आरोपी संदीप के परिवार से जुड़े हैं। सभी आरोपी ठाकुर जाति से संबंधित हैं। पीड़िता की मृत्यु दिनांक 29 सितंबर, 2020 को अल सुबह (लगभग 5 बजे) नयी दिल्ली स्थित सफदरगंज अस्पताल में हुई थी। मृतका को एक दिन पहले 28 सितंबर को अलीगढ़ स्थित जवाहर लाल मेडिकल काॅलेज से इलाज के लिए यहां रेफर किया गया था। स्थानीय भाजपा सांसद का कहना है कि उन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया था। वादी पक्ष का कहना है कि वह अलीगढ़ में ठीक हो रही थी उसे दिल्ली भेजे जाने में वे षड़यंत्र महसूस करते हैं। उनका कहना है कि दिल्ली में पहले भर्ती नहीं किया जा रहा था परंतु किसी के दबाव में भर्ती किया गया।

घटना का विवरण इस प्रकार है : पीड़िता अपनी मां के साथ बाजरे के खेत में जानवरों के लिए घास व चारा काट रही थी। दोनों के बीच फासला था। कुछ देर बाद मां ने लड़की को न पाकर सोचा कि वह पानी पीने घर चली गई होगी। घर लौटते वक्त रास्ते में उसे बिटिया की उल्टी पड़ी चप्पलें नजर आईं। उसने लड़की को ढूंढा तो पाया वह खेत में खड़ी फसल के बीच अर्द्घ नग्नावस्था में औंधे मुंह घायल पड़ी थी। उसका गला घोंटा गया था, हाथ-पैर काम नहीं कर कर रहे थे, आंखे लाल थीं, उनमें खून उतर आया था, जीभ दांतों के बीच भिंची थी, जीभ में जख्म थे और वह बाेलने में असमर्थ थी। मां ने शोर मचाया, अपने बड़े बेटे के साथ बिटिया को मोटरसाइकिल पर बिठाकर किसी तरह से निकट थाना चंदपा पहुंची। वहां एक चबूतरे पर बिटिया को लिटाया गया। बड़े बेटे ने कुछ पंक्तियों में घटना की प्रथम सूचना लिख कर दी। नियमानुसार थाना पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज करके उसकी प्रति परिवादी को नहीं दी। परिवादी का कहना है, पुलिस का व्यवहार सही नहीं था। थाने में पुलिस ने वादी से पहले कहा कि जिस तरह से मोटर साइकिल पर लाद कर लाए हो, वैसे ही अस्पताल ले जाओ। बाद में थाना पुलिस ने दो महिला पुलिस कर्मियों के साथ टेप्पो के जरिए पीड़िता को बागला संयुक्त जिला अस्पताल पहुंचाया। प्रारंभिक जांच और प्राथमिक उपचार के बाद वहां से पीड़िता को अलीगढ़ स्थित जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज एवं चिकित्सालय (जेएनएमसी) भेजा गया। दोनों महिला पुलिसकर्मी बागला संयुक्त जिला अस्पताल से थाने लौट गर्इं, पीड़िता को उसकी मां व भार्इ ही अलीगढ़ अस्पताल ले गए।

मजिस्ट्रेट के सम्मुख कलमबंद बयान

पीड़िता 14 सितंबर को जेएनएमसी अस्पताल के जनरल वार्ड में भर्ती की गर्इ। वह ग‌म्भीर रूप से घायल थी, जीभ चोटिल और सूजी हुई थी। वह बयान दे सकने की स्थिति में नहीं‍‍‍ थी। गला घोंटने के कारण आंखों में रक्तस्राव था, गर्दन और पीठ पर गंभीर चोटें थीं, वह ठीक से सांस नहीं ले पा रही थी, रीढ़ की हड्डी में चोट के कारण गर्दन के नीचे पूरा शरीर लगभग लकवाग्रस्त (क्वाड्रिलेजिया) था। जेएनएमसी अस्पताल न्यूरोसर्जरी विभाग के अध्यक्ष द्वारा सीएमओ को लिखे गए पत्र के अनुसार, पीड़िता की हालात अत्यंत गंभीर थी। उसे चिकित्सा के लिए न्यूरोसर्जरी, फॉरेंसिक, नेत्र चिकित्सा, प्रसूति और स्त्री रोग विभाग के लिए रेफर करके गहन चिकित्सा विभाग में स्थानांतरित किया गया।

अभियोजन पक्ष में वादी और जांच एजेंसियों के कथन में एक बड़ा अंतर है। यह बिंदु उच्च न्यायालय के अधीन सीबीआर्इ जांच के लिए आवश्यक है। जांच कमेटी को परिवादी, मृतका के दूसरे भार्इ और मृतका की मां ने बताया कि जेएनएमसी अस्पताल में पीड़िता की हालत ठीक हो रही थी। वह बोलने लगी थी। डॉक्टरों ने चाय और बिस्कुट खाने की भी अनुमति दे दी थी। उसने चारों अभियुक्तों के नाम बताए और घटना के बारे में बताया था। वादी ने 19 सितंबर को हाथरस पुलिस अधीक्षक कार्यालय जाकर लिखित तहरीर देकर चारों अभियुक्तों के नाम और सामूहिक बलात्कार के बारे में सूचित किया था। एसपी कार्यालय में वादी की तहरीर को रख लिया गया तथा मौखिक आश्वासन दिया गया कि जांच हो जाएगी। वादी के आवेदन की प्राप्ति और नकल उसे नहीं दी गई।

पीड़िता को बयान दे सकने की स्थिति देखकर जेएलएन मेडिकल कॉलेज, अलीगढ़ के न्यूरोसर्जरी विभागाध्य प्राे. एमएफ हुडा ने मजिस्ट्रेट के सम्मुख उसके बयान दर्ज किए जाने के लिए लिखा। ऐसे मामलों में डॉ.क्टर का यह आवश्यक दायित्व होता है। इस तरह, 22सितंबर को मजिस्ट्रेट के समक्ष पीड़ता के कलमबंद बयान दर्ज हुए (यही बयान पीड़िता का मृत्यु पूर्व बयान है)। जांच अधिकारी सीओ सादाबाद ब्रह्म सिंह ने अंतर्गत धारा 161 द.प्र.सं. पीड़िता का बयान दर्ज किया। इस बयान के आधार पर प्राथमिकी में दर्ज आरोप 307, 325 भारतीय दंड संहिता को तरमीम करके अंतर्गत 376 D (सामूहिक बलात्कार) कर दिया गया। पीड़ता के बय‌ान के आधार पर बलात्कार के चार आरोपियों में पहले से नामजद संदीप के साथ अब लवक‌ुश, रवि और रामसिंह जुड़ गए।

प्राथमिकी अंतर्गत धारा 2 अनुसूचित जाति एव जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनयम, 1989 पहले से दर्ज है। दिनांक 29 सितंबर’2020 को पीड़िता की मृत्य‌ु के बाद धारा 307 तरमीम करके धारा 302 भा.द.सं. कर दी गई है।

एमएलसी रिपोर्ट और फोरेंंसिक जांंच

अलीगढ़ में जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज अस्पताल में 22 सितंबर, 2020पीड़िता की डॉक्टरी जांच (मेडिको-लीगल परीक्षा रिपोर्ट – MLC) में दर्ज विवरण में डॉ. फैज अहमद के अनुसार “योनि छिद्र” पर बल प्रयोग, पूरा लिंग प्रवेश की प्रथम दृष्ट्या प‌ुष्टि हुई है। योनि में शुक्राणु (वीर्य) से संबंधित जांच के लिए नमूना विधि-न्यायिक (फोरेंसिक) जांच के लिए आगरा भेजा गया।

फोरेंसिक जांच रिपोर्ट में वजाइनल की सफाई में वीर्य के चिह्न नहीं पाए गए। फोरेंसिक जांच के लिए परीक्षण घटना के आठ दिन बाद 22 सितंबर को किया गया था। इसकी रिपोर्ट घटना के 11 दिन बाद 25 सितंबर को आई। बलात्कार के मामलों में फोरेंसिक जांच के लिए नमूने घटना के 72 घंटे के भीतर ले लिए जाने चाहिए, श‌ुक्राणु 90 घंटे बाद नहीं बचते हैं।

पुलिस और प्रशासन की भूमिका

इस मामले में पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका को लेकर भी अनेक सवाल हैं। प्रतिवादी पक्ष के बयानों के अनुसार पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत कर्त्तव्य उपेक्षा, दबाव व धमकाने और साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ सहित आरोप बनते हैं।

थानाध्यक्ष चंदपा को थाने से हटा कर पुलिस लाइन भेज दिया गया है, जो कि एक प्रकार का दंड माना जाता है। जिला पुलिस अधीक्षक विक्रांत वीर को भी निलंबित कर दिया गया है। जिलाधिकारी की भूमिका भी आलोचना में है, यहां तक कि उच्च न्यायालय ने भी जिलाधिकारी की भूमिका के बारे में पूछा है। विभागीय जांच के अलावा आरोपों के संबंध में पुलिस व अधिकारियों के खिलाफ कोर्इ प्राथमिकी या मुकदमा दर्ज नहीं किया गया है।

पुलिस और प्रशासन की भूमिका पर सबसे अधिक आपत्ति उन बयानों को लेकर है, जिनमें बलात्कार का खंडन पुलिस अधिकारियों ने किया। थानाध्यक्ष ने घटना की जांच के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करने और छानबीन करने की जगह इस प्रकार के बयान दिए कि प्राथमिकी में पीड़िता के भार्इ ने बलात्कार के बारे में नहीं लिखा था। फिर भी, पीड़िता “जबरदस्ती” किया जाना बता रही थी। आम प्रचलन में ऐसे मामलो में जबरदस्ती का मतलब बलात्कार ही होता है। पुलिस अधीक्षक ने भी प्रेस को बयान दिया कि घटना बलात्कार की नहीं है, जबकि एमएलसी रिपोर्ट में गुप्तांगों पर बलप्रयोग किए जाने के निशान बताए गए थे। यहां तक की फोरेंसिक रिपोर्ट को लेकर भी पुलिस अधीक्षक के बयान आलोचना का विषय हैं। अतिरिक्त महानिदेशक प्रशांत कुमार (कानून एवं व्यवस्था) ने फोरेंसिक जांच में विजाइनल स्वाब में स्पर्म की अनुपस्थिति और पाेस्ट मार्टम में पीड़िता की मृत्यु का कारण गर्दन की चोट के कारण गुमचोट का हवाला देते हुए मामले में बलात्कार का खंडन किया है। जब अभियोजन का ऐसा आचरण हो तब न्याय की कितनी उम्मीद शेष रह जाती है।

प्राथमिकी नामजद होने के बावजूद आरोपी संदीप को पुलिस ने 19सितंबर तक आजाद घूमने दिया और मामले की छानबीन में कोई सक्रियता नहीं दिखायी। घटना के समय पीड़िता जो कपड़े पहने थी, साक्ष्य के लिए उन्हें नहीं लिया गया। पीड़ता के साथ जिला संयुक्त चिकित्सालय तक गर्इ महिला सिपाहियों को भी वापस बुला लिया गया था। पीड़िता को इलाज के लिए अलीगढ़ रेफर किए जाने के बाद, पुलिस हिफाजत में उसे वहां पहुंचाने व वहां उसकी सुरक्षा का कोई प्रबंध नहीं किया गया।

पोस्टमार्टम

पोस्टमार्टम के लिए पिता की अनुमति के समय ही मृतका का चेहरा दिखाया गया। इसके बाद किसी भी परिजन को मृतका को देखने नहीं दिया गया।

मृत्यु के बारे में वादीगण को 29 सितंबर सुबह 5 बजे सूचित किया गया था। पोस्टमार्टम सुबह 11बजे तक हो गया था। पिता व अन्य परिजन शव लेने के लिए देर रात तक इंतजार में सफदर गंज अस्पताल में बैठे रहे। उन्हें मृतका की देह सुपुर्द करना तो दूर देखने तक नहीं दी गर्इ। यहां तक कि मीडिया को भी लाश की भनक नहीं लगने दी गर्इ। आधी रात को पुलिस ने परिवादी पक्ष को जबरदस्ती एक पुलिस वेन में लादा और गांव बूलगढ़ी लाए। मृतका की देह दूसरी गाड़ी में थी। वादीगण को इस बारे में कुछ बताया नहीं गया था। गांव में श्मशान में पुलिस बल तैनात था। शव जलाने के लिए पिता व भार्इ को श्मशान चलने के लिए कहा गया। पिता व भार्इ ने इंकार करते हुए मृत देह को घर ले जाने और परिजनों को अंतिम दर्शन के बाद दिन में रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार करने के लिए कहा।

परिवादी गण का कहना है, “गांव में परिवार, खानदान व बिरादरी के लगभग 50-60 लोग जमा थे, जिनमें अधिकांश महिलाएं थीं। बहुत गुहार करने के बावजूद उन्हें मृतका को देखने नहीं दिया गया। महिलाओं को धक्के देकर हटा दिया गया। यहां तक कि महिलाओं को खेत के कांटेदार तारों पर ढकेला। गोली चलाए जाने की धमकी दी।” इस प्रकार शव को परिवार की इच्छा के विपरीत बल प्रयोग करके स्वयं पुलिस ने ही जला दिया। परंपरा के अनुसार अंतिम संस्कार नहीं करने दिया।

मृतका के भाई का कहना है उसकी बहन के साथ पहला अपराध बलात्कार व हत्या का है दूसरा अपराध उसे बिना अंतिम संस्कार जलाए जाने का है। यह दूसरा अपराध पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों ने किया है।

जाति मूलक अपमानसूचक डांट के साथ जिलाधिकारी ने कहा, “करोना में मर जाती तो मुआवजा मिल जाता क्या?”..“मीडिया तो चली जाएगी हम यहीं रहेंगे!””मुआवजा लेना है या नहीं!”

घटना के बाद कई दिनों तक पीड़ित परिवार को ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से घर में एक तरह से नजरबंद कर दिया गया। पीडि़त परिवार से किसी को मिलने पर रोक लगा दी गई और जबरदस्त पुलिस घेरा बैठा दिया गया। यहां तक कि प्रेस व मीडिया चैनल व नागरिक सामाजिक व राजनीतिक लोगों को भी प्रतिबंधित किया गया।

मृतका के चरित्र पर लांछन के लिए दुष्प्रचार

आरोपी संदीप ने जेल से हाथरस पुलिस अधीक्षक को संबोधित करते हुए 7 अक्टूबर को एक पत्र लिखा था जिसे तुरंत मीडिया में लीक कर दिया गया। इस पत्र में संदीप सहित चारों आरोपियों के अंगूठा निशान हैं।

स्वयं को निर्दोष बताते हुए पत्र में आरोपी ने मृतका के साथ दोस्ती का हवाला देते हुए लिखा है, “उसके साथ मेरी दोस्ती थी। मुलाकात के साथ मेरी और उसकी कभी-कभी फोन पर भी बात होती थी, लेकिन हमारी दोस्ती उसके परिवार वालों को पसंद नहीं थी। घटना के दिन मेरी उससे मुलाकात हुई। उसके साथ उसकी मां और भाई भी थे उनके कहने पर मैं तुरंत अपने घर चला आया तथा वहां पर अपने पिता के साथ पशुओं को पानी पिलाने लगा। बाद में मुझे गांव वालों से पता चला मेरी और उसकी दोस्ती को लेकर उसकी मां और भाई ने उसे (मृतका को) मारा-पीटा जिससे उसे गंभीर चोटें आईं जिससे वह बाद में मर गई। मैंने कभी भी उसके साथ मार-पीट या गलत काम नहीं किया।’’

जांच ऐजेंसियों ने इस कहानी को आगे और बढ़ाते हुए मीडिया को रोचक सामग्री के रूप में यह पत्र उपलब्ध कराया, साथ ही इस बारे में अपनी जांच के विवरण भी मीडिया में जारी किए ताकि यह कहानी बल पकड़ सके। प्रकाशित मीडिया रिपोर्टों में जांच एजेंसियों के हवाले से बताया गया कि संबंधित (मृतका के भाई वादी) फोन नंबर पर “13 अक्टूबर 2019 से मार्च 2020 तक (छह माह में) 104 बार बातचीत हुई। पूरा कॉल ड्यूरेशन करीब 5 घंटे का है। इनमें 62 कॉल संदीप ने तो 42 कॉल पीड़ित के भाई की तरफ से एक-दूसरे को किए गए।”

जांच टीम के सूत्रों का हवाला देते हुए मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि सीडीआर में दोनों के बीच बातचीत में करीब 60 कॉल रात के समय का होना पाया गया है।”

इसे रंग देते हुए मीडिया मे मनगढंत तरीके से प्रचारित किया गया कि फ़ोन मृतका के भाई का जरूर था परंतु उसकी पत्नी (मृतका की भाभी) के पास रहता था और उसके जरिए आरोपी और मृतका छुपकर बात किया करते थे।

परिवादी गण का कहना है कि घर में केवल एक मोबाइल है। यह मोबाइल पीड़िता के भाई का है। मोबाइल नंबर नरेगा से जुड़ा हुआ है। छह महीनों में हुई कुछ कालों के समय को जोड़कर इस रूप में पेश किया जा रहा है कि आरोपी और मृतका के बीच गोपनीय वार्ता हुआ करती थी। वास्तविकता यह है कि मृतका को तो स्वयं मोबाइल चलाना भी ठीक से नहीं आता था। पीड़िता की भाभी ने बताया कि उसकी ननद (मृतका) ने घटना के कुछ दिन पहले बताया था कि आरोपी संदीप उसे छेड़ता है। वह डर के कारण घर से अकेले बाहर निकलने से बचती थी। आरोपी लंपट और नशा-पत्ती करने वाले बदमाश किस्म के लोग हैं। उनकी मृतका पर बुरी नज़र थी।

परिवादी गण का आरोप है कि अभियोजन एजेंसियां साक्ष्य आधारित छानबीन करने की जगह साक्ष्य गढ़ने के मकसद से इस प्रकार के सवाल करते हैं कि जवाबों के आधार पर किसी प्रकार “प्रेम प्रसंग” और मानहत्या की पुष्टि हो सके।

घटना बलात्कार व हत्या की है। समय दिन का है। खेत में पीड़िता घायल अवस्था में पड़ी मिली है। गांव के अन्य लोगों ने भी देखा है। मृतका के भाई और मां पीड़िता को मोटर साइकिल पर बैठाकर तुरंत थाने ले गए और प्राथमिकी दर्ज कराकर अस्पताल ले गए तथा लगातार इलाज कराते रहे। पीड़िता का मजिस्ट्रेट के सामने बयान भी है। इसके बाद इस जघन्य मामले में आराेपी के पत्र को जांच का प्रस्थान बिंदु बनाना किस किस्म का अन्वेषण है?

जांच एजेंसियां और अब सीबीआई घटनास्थल का कई बार दौरा कर चुकी हैं, बार-बार क्राइम सीन रिक्रिएशन करके देखा जा रहा है। परिवादीगण का कहना है “हमारे रिश्तेदारों, जिन घरों में बेटियां ब्याही है उनके परिवारों और गांव व क्षेत्र में लोगों से आरोपी और मृतका के संबंधों और मृतका के चरित्र के बारे में पूछताछ की जा रही है।” इस सबके दौरान आवश्यक है सीबीआई देेखे कि परिवादी गणों का मनोबल तोडने, उन्हें हताश करने और सत्यानुसंधान की दिशा से भ्रमित करने का प्रयास नहीं हो।

नागरिक जांच में अनेक नागरिकों का कथन है प्रशासन एवं सवर्णवादी दबंगों के द्वारा आरोपियों के पक्ष में मृतका के चरित्र को लेकर अफवाह एवं मिथ्या दुष्प्रचार किया जा रहा है। मीडिया का एक हिस्सा, जिसमें सवर्ण तत्व हावी हैं, इस प्रकार के दुष्प्रचार और अफवाह फैलाने में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सहायक भूमिका अदा कर रहे हैं। कोशिश यह भी की जा रही है कि सामूहिक बलात्कार की इस घटना की जांच की दिशा को मानहत्या के रूप में परिवादी पक्ष के खिलाफ मोड़ दिया जाए और इस तरह से आतंकित करके परिवादीगण का मनोबल तोड़ कर उन्हें खामोश कर दिया जाए।

नागरिक जांच के नतीजे और सिफ़ारिशें

परिवादी की सुरक्षा के अतिरिक्त निर्भया फंड से वादीगण के पुनर्वास की व्यवस्था की जाए।

परिवादी के परिवार के एक सदस्य को सरकार द्वारा नौकरी का वायदा तुरंत पूरा किया जाए।

सीबीआई और प्रदेश सरकार को निर्देशित किया जाए, मृतका के चरित्र पर लांछन लगाने वाली अफ़वाहों और दुष्प्रचार को अविलंब रोके तथा इसे अपराधिक कार्य मान कर कार्रवाई करे।

कर्त्तव्य में लापरवाही बरतने वाले पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों पर विभागीय कार्यवाही के साथ अभियोग पंजीकृत करके विधि अनुसार कार्यवाही की जाए।

जिलाधिकारी और उच्च अधिकारियों के बयान कि पीड़िता का बलात्कार नहीं हुआ है, जांच में दखलंदाजी मानते हुए उनके खिलाफ कार्वाई की जाए।

राजद्रोह सहित सरकार की छवि खराब करने और हाथरस कांड के नाम पर जातिगत दंगा की साजिश में मथुरा जेल में बंद चार आरोपियों सहित हाथरस बलात्कार मामले से संबंधित अन्य जिन मामलों में एसटीएफ जांच कर रही है, उच्च न्यायालय के अंतर्गत जारी सीबीआई जांच के दायरे में लाया जाए।

उत्तर प्रदेश में कानून और व्यवस्था की स्थिति विशेष रूप से बहुत खराब है। सांप्रदायिक घुवीकरण, दलित उत्पीड़न और महिला उत्पीड़न में उत्तर प्रदेश देश के अन्य राज्यों की तुलना में बेहद बदतर स्थिति में है। आरएस और हिंदुत्ववादी संगठन यहां सामानांतर सत्ता चला रहे हैं। नौकरशाही लगातार असमंजस में रहती है। मनमानी व निरंकुशता का राज है। सरकारी अधिकारी, सरकार और हिंदुत्वादी गुंडों के तुष्टिकरण में निकम्मे हो गए हैं। मुख्यमंत्री योगी हाथरस के इस सामूहिक बलात्कार कांड के बाद जनआक्रोश को सरकार की छवि खराब करने का षड़यंत्र और जातिगत दंगे फैलाने की योजना का भ्रम जाल फैलाकर तथ्यों को झुठला नहीं सकते। सत्य की बानगी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों की ताजा रिपोर्ट से देखी जा सकती है:

उत्तर प्रदेश 2018 में अपराधों के मामलों में सबसे आगे रहा है। उत्तर प्रदेश में 2018 में महिलाओं के खिलाफ अपराध (हर तरह के) 59,445 मामले दर्ज हुए थे, जबकि 2017 में 57,011 और 2016 में 49,262 केस दर्ज हुए थे। इनमें उत्तर प्रदेश में 2018 में यौन हिंसा और बलात्कार के 3,946 मामले दर्ज ह‌ुए हैं। मतलब कि प्रदेश मेे हर रोज 11 बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं । यूपी सरकार निर्भया फंड के तहत साल 2013 से 2019 में मिले बजट को भी नहीं खर्च कर पाई है। उत्तर प्रदेश में 324.8 करोड़ रुपए आए थे, जिसमें से 216.75 करोड़ रुपए खर्च हुए जो पूरे बजट का करीब 65 फीसदी ही है। उत्तर प्रदेश की तरह दूसरे राज्य भी निर्भया फंड को खर्च करने में नाकाम साबित हुए। इस फंड के तहत रेप पीड़ितों की आर्थिक मदद और पुर्नवास किया जाता है।

उत्तर प्रदेश दलित उत्पीड़न संबंधित अपरोधों में सबसे आगे है। 2019 के दौरान भारत में अनुसूचित जातिजनजाति (एससी, एसटी) समुदाय के लोगों के खिलाफ अपराध के कुल 45,935 मामले दर्ज किए गए, जिसमें से 11,829 मामले अकेले उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए हैं। यह संख्या देश में कुल मामलों की तुलना में 25.8 फीसदी है, जो कि सर्वाधिक है।

इस तथ्य के बाद प्रदेश में कानून और व्यवस्था की स्थिति के विरोध में आंदोलित जनता पर रासुका या दमनकारी उपायों का प्रयोग तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री याेगी आदित्य नाथ द्वारा प्रदेश में सरकार की छवि बिगाड़ने और जातिगत दंगे कराने के लिए साजिश का आरोप दरअसल कानून के राज और नागरिक अधिकारों का दमन और लोकतंत्र विरोधी है।

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Workers Unity Team

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