जो सामाजिक दूरी अछूतों से थी, वही मज़दूरों के ख़िलाफ़ सोशल डिस्टेंसिंग बना दी गई
By अजीत सिंह
पूरा विश्व इस समय कोरोना महामारी से जूझ रहा है। इस महामारी से सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित हुई हैं। लेकिन इसका प्रभाव मेहनतकश जनता पर ज्यादा पड़ा है।
इस महामारी ने उस आबादी को बुरी तरह प्रभावित किया है, जो रोज केवल अपनी मेहनत बेचकर ज़िंदा रहते हैं, जिनको ये भी पता नहीं होता कि कल उनको दिहाड़ी मिलेगी भी या नहीं।
यह आबादी असंगठित क्षेत्र की आबादी है। उसके बाद वे फैक्ट्री मज़दूर हैं जिनको मंदी, महामंदी और महामारी के समय तो फैक्ट्रियों से निकाल दिया जाता है, लेकिन तेजी में फैक्ट्रियों में भर्ती कर रात दिन काम कराया जाता है।
तेजी के दौरान इन पर उत्पादन का दबाव अधिक होता है और ज़बरदस्ती ओवर टाईम कराया जाता है। यह फैक्ट्री मज़दूर बड़े पैमाने पर ठेकेदारों के अन्तर्गत काम करते हैं।
फैक्ट्री में काम करने वाली ये वो आबादी है जो मज़दूर होते हुए भी मज़दूरों के अधिकार से वंचित है। फैक्ट्री में इनकी सुनने वाला कोई नहीं होता है।
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फैक्ट्री अधिकारी, मैनेजर, इंजीनियर सब इनको हिकारत की नज़र से देखते हैं और इन पर अपनी धौंस जमाते हैं। यहां तक कि इनके साथ काम करने वाले स्थाई मज़दूर भी इनसे सामाजिक दूरी बना कर रखते हैं।
कोरोना महामारी के समय देश के मुखिया ने जब बीमारी के बचाव के लिए सामाजिक दूरी यानी सोशल डिस्टेंसिंग बनाने की बात कही तो स्वाभाविक रूप से ये सवाल खड़ा हो जाता है कि इस मज़दूर आबादी के साथ पहले से ही सामाजिक दूरी क़ायम है।
इस आबादी (असंगठित क्षेत्र, अस्थाई मज़दूर) को सभी हिकारत की नज़र से देखते हैं, क्योंकि इस मौजूदा व्यवस्था में शारीरिक व मानसिक श्रम के बीच भेद मौजूद हैं।
हाड़ तोड़ मेहनत करने वालों के प्रति हीन नज़रिया आज भी मौजूद है, जो हज़ारों साल से वर्ण व्यवस्था के कारण समाज में पहले से मौजूद था।
उस व्यवस्था भी समाज के सबसे मेहनत करने वाले तबके शूद्रों से सामाजिक दूरी क़ायम रखी जाती थी। व्यवस्था बदलने के साथ-2 उत्पादन संबंध भी बदल गए।
वर्ण व्यवस्था में जो सामाजिक दूरी का भेदभाव शूद्रों के साथ बरता जाता था, इस पूंजीवादी सामाज में वही सामाजिक दूरी मज़दूरों से बनाई जा रही है।
कोरोना महामारी ने व्यवस्था और शासकों का निक्कमापन साफ-साफ दिखा दिया है।
स्वास्थ्य सेवाओं का इस कदर भट्टा बैठा दिया गया है कि देश के शासक अब सामाजिक दूरी (शोसल डिस्टेंसिंग) की घोषणा कर उस आबादी की हत्या करने पर उतारु हैं, जिनके वोटों से वह संसद में बैठकर संविधान की कसमें खाते हैं।
देश के शासकों ने इस कदर सामाजिक दूरी पैदा कर दी है कि अब समाज दो गुटों में बंटा हुआ साफ दिखने लगा है। एक तरफ़ समाज में भूखे, गरीब और मज़दूर हैं, जिनके पास रोज खटने के सिवाय पेट भरने का कोई जुगाड़ नहीं है।
दूसरी तरफ़ समाज में वे अमीर पूंजीपति हैं जिनका उत्पादन के तमाम साधनों पर कब्जा है और जो केवल ग़रीब, लाचार, मज़दूर लोगों के खून पर ज़िंदा हैं। असल में डर बढ़ाती सामाजिक दूरी इन्ही शासकों की देन है।
इस सामाजिक दूरी का आंखों देखा मंजर लॉकडाउन में भी सामने आया। देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के बाद जब मज़दूर की मेहनत खरीदने वाला कोई नहीं रहा तो इनके सामने जीवन मरण का सवाल खड़ा हो गया।
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जिस गांव को छोड़कर वो शहरों की तरफ भागे हुए आए लॉकडाउन में भूख से न मरें इसके लिए गांव ही पनाह बन गया।
शहर की चमक-दमक इनकी भूख को शांत नहीं कर सकी और ना ही शासकों की लाखों-करोड़ों की घोषणाएं इनको दिलासा दे सकीं।
इन मज़दूरों ने सैकड़ों हजारों किलोमीटर का सफर तय करने की ठानी। इस यात्रा में बहुत से मज़दूरों ने पैदल चलते हुए दम तोड़ दिया, भूख से मर गए और बड़ी संख्या में दुर्घटनाओं में मारे गए।
इन सब का जिम्मेदार वह शासक वर्ग है जिसने माहामारी से निपटने के नाम पर सामाजिक दूरी (शोसल डिस्टेंसिंग) बनाए रखने की घोषणा की और देश के शासकों ने इस मेहनतकश जनता से वास्तव में सामाजिक दूरी बना ली।
इनको न खाना और राशन दिया गया, न घर पहुंचाने के लिए कोई साधन मुहैया कराए गए। सामाजिक दूरी रखने का परिणाम यह निकला कि घर को पैदल जाती गर्भवती महिला ने सड़क ही बच्चे को जन्म दिया।
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इस महिला ने उस सामाजिक दूरी की पीड़ा को सहा है जिसकी घोषणा मोदी ने किया और जिसका गुणगान उनके लगुए भगुए और कारपोरेट मीडिया करती है।
इस सामाजिक दूरी की पीड़ा उन छोटे छोटे बच्चों ने पैदल चल कर सही है, जिनको शासक वर्ग ने बुलेट ट्रेन व हवाई जहाज में बैठाने के सपने दिखाता है। शासकों ने धर्म, जात पांत व हैसियत के आधार पर हमेशा ही समाज में सामाजिक दूरी की दीवारें खड़ी की हैं।
मौजूदा शासक वर्ग बड़ी चतुराई से राष्ट्रवाद, धार्मिक पागलपन और देशभक्ति के नाम पर इन हत्यों को जायज और देशहित में ठहराएगा। परंतु शासक वर्ग द्वारा पैदा की गई ये सामाजिक दूरी का संकट मेहनतकशों को एकजुट होने के लिए तैयार करेगा।
महामारी, महामंदी, मंदी जैसे संकट बहुत तेज गति से मज़दूर वर्ग को एकजुट करेंगे।
इन सभी घटनाक्रमों को समझकर, इस व्यवस्था के और देश के शासकों को समझा जा सकता है कि किस प्रकार यह व्यवस्था और इसको चलाने वाले शासक वर्ग समाज में मौजूद किस वर्ग के साथ खड़े हैं। यह सवाल समय और परिस्थितियों के साथ साथ हल होगा।
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शासक वर्ग द्वारा की गई हत्याओं से मज़दूर वर्ग की आंधियां उन तमाम परतों को हटाकर देश के शासक वर्ग को उसका मुंहतोड़ जवाब देंगी।
मज़दूर वर्ग की एकता समाज में फैली उस सामाजिक दूरी, गरीब, ऊंच-नीच आदि तमाम भेदों को ख़त्म कर एक तर्कसंगत और बराबरी वाले समाज की नींव रखेगी। यही इतिहास का कार्यभार है।
(लेखक मारुति सुजुकी के पार्ट्स बनाने वाली कंपनी बेलसोनिका में यूनियन प्रतिनिधि हैं। लेख में प्रकाशित उनके ये निजी विचार हैं।)
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