नितीश सरकार के चौथी बार आने से क्यों है डरे हुए हैं बिहार के दलित और भूमिहीन?
By संदीप राउज़ी
अगर नितीश सरकार बिहार में फिर से लौटती है तो लाखों भूमिहीन दलितों के घर पर बुलडोज़र चलना तय है।
जल ज़मीन हरियाली के नाम पर नितीश सरकार ने उन ज़मीनों को खाली करने का नोटिस जारी कर दिया है, जिन पर भूमिहीन दलित पिछड़ी आबादी अपना घर बनाकर रह रही है और उसके पास ज़मीन का आरज़ी सरकारी कागज़ भी है।
प्रवासी मज़दूरों के नज़र से बिहार चुनाव को देखने की कोशिश में वर्कर्स यूनिटी की टीम ने ख़ासकर दक्षिणी बिहार का दौरा किया और पाया कि बीजेपी के गठबंधन के बाद नितीश कुमार अपने पारंपरिक वोटरों का भी ग़ुस्सा झेलने को अभिशप्त हो गए हैं।
दक्षिणी बिहार में रोहतास ज़िले से लेकर भोजपुर ज़िले तक दलित, महादलित, पिछड़ा वर्ग के लोगो को इस बात का डर है कि मौजूदा सरकार लौटी तो उनका घर ढहा दिया जाएगा।
जल ज़मीन हरियाली की स्कीम असल में गांवों में सरकारी ज़मीन को हरा भरा करने के लिए लाई गई है, लेकिन लोगों का कहना है कि इसका असल मकसद भूमिहीनों को उनके आशियाने से भी बेदखल करना है क्योंकि मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान को वो बराबर चुनौती दे रहे हैं।
भोजपुर ज़िले के आरा शहर से कुछ दूरी पर स्थित बथानी टोला गांव में उन दलित परिवारों को घर खाली करने के लिए नोटिस भेजा जा चुका है।
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95 बीघा दंबंगों को कब्ज़े में
बथानी टोला के हीरा लाल चौधरी ने बताया कि “1996 में जब रणवीर सेना ने दलित बस्ती में जनसंहार किया था तो तत्कालीन लालू यादव की सरकार ने भूमिहीन दलितों को रहने के लिए सरकारी ज़मीन दी थी। ये ज़मीन सड़क के किनारे गढ़्ढे थे, जिन्हें पाटकर लोगों ने अपने घर बनाए। अब नितीश सरकार ने इसे खाली करने का नोटिस भेजा गया है।”
स्थानीय लोगों का कहना है कि बथानी टोला के आस पास के गांवों में कई जगह सरकारी कर्मचारियों ने आकर जेसीबी से खुदाई की है। यहां तक कि जहां घर बने हैं उनके बगल की खाली ज़मीन को खोद कर गढ्ढा कर दिया गया है और लोगों को जल्द से जल्द मकान खाली करने को कहा गया है।
यहीं के रहने वाले कपिल का कहना था कि आदमी डूबने भर का गड्ढ़ा खोद देने से बारिश में पानी भर गया और घर के पास होने से बच्चों के उसमें डूबने का डर लगा रहता है।
आरा के पास बथानी टोला में 11 जुलाई 1996 को भूमिहारों और राजपूतों से हथियारबंद संगठन रणवीर सेना के कातिलों ने हमला करके 21 लोगों की हत्या कर दी थी। उस समय सरकार ने मुआवज़ा और घर के लिए ज़मीन दी थी, जिसकी रजिस्ट्री नहीं हुई है, केवल एक सरकारी पर्चा है।
यहीं के स्थानीय लोगों ने बताया कि बथानी टोला में ही उच्च जातियों के दबंगों का 95 बीघे सरकारी जमीन पर कब्ज़ा है लेकिन नितीश सरकार की नज़र भूमिहीन ग़रीबों की मामूली दो तीन डिसमिल ज़मीन पर है।
कपिल कहते हैं कि ये सब बीजेपी के इशारे पर हो रहा है, जोकि आम तौर पर सवर्णों की पार्टी है और उनके साथ भूमिहीन किसानों का संघर्ष लंबे समय से चला आ रहा है।
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जो टूटे घर थे, उन्हें भी तोड़ने का आदेश
ये सिर्फ बथानी टोला का मामला नहीं है। यहां से क़रीब 50 किलोमीटर दक्षिण में रोहतास ज़िले में भी भूमिहीन दलितों को नोटिस पहुंच चुका है। कुछ गांवों में घर ढहाने के लिए जेसीबी पहुंच गई थी लेकिन प्रतिरोध के चलते खाली करने की समय सीमा बढ़ा दी गई।
रोहतास के बाराडीहा गांव में पासवान, कुर्मी, कोइरी, दलितों की अच्छी खासी संख्या है। वहां पहले से ही ग़रीबी में गुजर बसर कर रहे लोग नोटिस मिलने से हैरान हैं।
यहां लोगों के पास रहने को जगह तक नहीं है, पक्का मकान तो बमुश्किल कुछ लोगों के पास ही है। यहां से बड़ी संख्या में लोग बाहर कमाने जाते हैं, जो लॉकडाउन में लौट कर घर आ गए हैं।
यहां महिलाएं वर्कर्स यूनिटी की टीम को अपना घर दिखाने ले गईं। एक महिला ने दिखाया कि एक कमरे में भैंस भी रहती है और वहीं चारपाई भी पड़ी है, वहीं खाना बनता है।
एक अन्य महिला ने बताया कि टूटे हुए खपरैल के घर में पांच परिवार रहते हैं। यहां कुल दो कमरे हैं जिनमें पशु भी रहते हैं। अब उन्हें खाली करने का नोटिस मिला है।
गांव की दलित भूमिहीन आबादी इस बात से चिंतित है कि एनडीए की सरकार फिर आ गई तो क्या होगा, कहां जाएंगे।
बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी, जेडीयू और राजद के बीच हार जीत की बाज़ी खेली जा रही है और चिराग पासवान की लोजपा, उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी, ओवैसी की एआईएमआईएम, मायावती की बसपा, पप्पू यादव और दलित नेता चंद्रशेखर आज़ाद के आ जाने से चुनाव इतने कोणों का हो चुका है कि बहुत साफ़ दावे करने वाले भी हैरान हैं।
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नितीश सरकार आऩे का डर
लेकिन इन समीकरणों और दावों के बीच असली मुद्दे, जिनसे बहुतों की ज़िंदगी पर असर पड़ेगा, उनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की तरह हो गई है।
अगर ज़मीनी मुद्दों की कोई बात कर रहा है तो वामपंथी दल हैं, ख़ासकर सीपीआई एमएल, इसकी ये भी एक वजह है कि उनका काम दलित भूमिहीन आबादी के बीच ज़्यादा है।
सीपीआई एमएल के राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य का कहना है कि महा गठबंधन की सरकार आती है तो सबसे पहला काम होगा, इस निष्कासन के आदेश को वापस लेना।
लेकिन भूमिहीन आबादी की समस्या सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। उनके पास खेतों में काम करने की श्रम शक्ति है लेकिन उनके पास खेत नहीं हैं। लॉकडाउन ने इस त्रासदी को और बढ़ा दिया है क्योंकि न लोग बाहर जाकर कमाई कर पा रहे हैं और न घर पर कोई खेत है कि वहां आजीविका के लिए कुछ कर सकें।
ज़मीन बंदोबस्त के तमाम दावों के बावजूद, हालात बहुत नहीं बदले। जब पिछली बार नितीश सरकार ने वादा किया था कि भूमिहीन लोगों को घर बनाने के लिए सरकार तीन डिसमिल ज़मीन देगी लेकिन दूसरा चुनाव आते आते जिस ज़मीन पर लोग रह रहे हैं उसे भी खाली कराने का आदेश आ गया।
बिहार में जातिगत आधार पर ध्रुवीकरण बहुत है, लेकिन इसके पीछे ग़ैर बराबरी की खाई का बहुत बड़ा फैक्टर है। यहां आकर दिखता है कि जाति का एक आधार ज़मीन भी है और तमाम जातीय संघर्ष में ज़मीन एक प्रमुख कारण रहा है लेकिन इन पंद्रह सालों में इस पर नितीश सरकार ने सिर्फ वादों के अलावा एक इंच भी राहत प्रदान नहीं की है।
(लेखक वर्कर्स यूनिटी केे संस्थापक संपादक हैं।)
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