मैक्सिको पर भी थोपे गए थे ऐसे ही कृषि क़ानून, कुछ सालों में ही भुखमरी की नौबत आ गईः भाग-3
कृषि क़ानून को लेकर दी जा रहीं चेतावनियां अटकलबाजी या डराने वाली अफवाह भर नहीं हैं। वे दुनिया भर में कृषि पर निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के प्रभावों की पड़ताल के आधार पर निकाले गये ठोस नतीजे हैं।
उदाहरण के लिए, यह ठीक वही मॉडल है जो 1990 के दशक से और खास तौर पर 1994 से (उत्तरी अमरीकी मुक्त व्यापार संगठन के तहत) मैक्सिको पर थोपा गया था।
मेक्सिको की सरकारी व्यापार एजेंसी (एफ.सी.आई. जैसी संस्था) को खत्म कर दिया गया। कृषि-उत्पादन को दी जाने वाली तमाम सरकारी सहायता धीरे-धीरे खत्म कर दी गयी।
मैक्सिको की मुख्य खाद्य फसल मक्का पर सरकारी सब्सिडी धीरे-धीरे खत्म कर दी गयी और इसके एवज में चुने हुए किसानों और उपभोक्ताओं के खातों में सीधे सहायता हस्तांतरित की गयी।
मैक्सिको में, जो मक्का उत्पादन का गढ़ था और जहां मक्का की बहुत सारी किस्मों का बड़ा खजाना मौजूद था, उस देश में अमरीकी मक्का का आयात तीन गुना बढ़ गया।
मैक्सिको में पारिवारिक जोतों यानि छोटे किसानों की संख्या घटकर आधी से भी कम रह गयी।
कृषि में रोजगारों में तेजी से गिरावट आयी, और अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में पर्याप्त विकास के अभाव में खेती से उजड़े हुए किसानों को कोई दूसरे रोजगार भी नहीं मिल पाये।
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बेरोज़गारी और ग़रीबी से बढ़ा पलायन
इस तरह पूरे देश में बेरोजगारी आसमान छूने लगी। गरीबी रेखा के नीचे आबादी बढ़ गयी। आधी से ज्यादा आबादी अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने में और आबादी का पांचवां हिस्सा दो जून की रोटी का जुगाड़ करने में असमर्थ हो गया।
नतीजा क्या निकला? मांग के अभाव में मैक्सिको के सकलघरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि की दर घटकर लैटिन अमरीका के देशों की न्यूनतम दर के लगभग से भी कम हो गयी।
बेरोजगार हताश किसानों ने अपने पड़ोसी देश अमरीका में घुसने की कोशिश की जिससे प्रवासियों की संख्या में 80 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
तैयार खाद्य पदार्थों (जैसे मक्के से बनी टारटिल्ला रोटी) के दामों में भारी वृद्धि हुई। मक्के के आटे के पूरे बाजार पर मैक्सिको की सिर्फदो कपंनियों (जिनमें से ग्रुपो मासेका लगभग 85 प्रतिशत बाजार पर काबिज है) का कब्जा हो गया।
यही वर्चस्वभारत में अंबानी, अडानी और वॉलमार्ट हासिल करना चाहते हैं और हाल फिलहाल की मोदी की नीतियां उसी ओर संकेत कर रही हैं।
मजदूर के रूप में शोषण के शिकार हैं, कहीं वन विभाग के अधिकारियों द्वारा उनको जंगलके पुश्तैनी अधिकारों से बेदखलकिया जा रहा है, कहीं भ्रष्टस्थानीय अधिकारी निजी कंपनियों के साथ सांठ-गांठ करके उन्हेंलूटरहे हैं, कहीं उनके सार्वजनिक संसाधनों पर निजी हितों का कब्जा हो रहा है, कहीं दानवाकार कारपोरेट परियोजनायें उन्हें विस्थापित कर रही हैं, कहीं तरह-तरह से उनके जल संसाधनों की लूट हो रही है और पर्यावरण का विनाश किया जा रहा है।
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किसान आंदोलन से निकलती मुक्ति की धारा
दिल्ली में चल रहे मेहनतकश किसानों के संघर्ष को संघर्षों की इस व्यापक धारा के अंग के रूप में देखने की आवश्यकता है जो अपने भीतर भारतीय समाज की मुक्ति की एक बड़ी संभावना संजोए है।
कृषि की दुर्दशा से निपटने की शासक वर्गों की तमाम योजनाएं, ‘‘कृषि’’ को दुरुस्त करने के सवाल को खेती करने वाले किसानों के संकट के सवाल से अलग करके देखती हैं।
वे कृषि क्षेत्रमें परिवर्तन के एक एजेंटके रूप में किसान की भूमिका को नजरंदाज करते हैं; बल्कि दरअसल, वर्चस्ववादी ताकतें, ऐसे किसी भी रूपांतरण में किसानों को प्रमुख बाधा समझती हैं।
जो परिवर्तन वे चाहते हैं, उसे देखते हुए, उनसे इसके सिवाय कोई और उम्मीद की भी नहीं जानी चाहिए।
अब यह उन लोगों पर निर्भर है जो खेती के संकट को एक अलग नजरिए से देखते हैं कि वे किसानों, खासकर छोटे और सीमांत किसानों और भूमिहीन खेत मजदूरों को बदलाव का आधार बनायें और उनकी उत्पादक, संगठनात्मक, सामूहिक और परिवर्तनकामी क्षमताओं की मुक्ति के मार्ग में मौजूद बाधाओं का पता लगायें।
(ये लेख रिसर्च यूनिट फॉर पालिटिकल इकोनॉमी से लिया गया है जिसे ट्रेड यूनियन सॉलिडेरिटी कमेटी ने प्रकाशित किया है। मूल लेख को यहां पढ़ा जा सकता है।)
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