मोदी सरकार की तयशुदा नीति: किसानों में फूट डालो और सांप्रदायिकता का ज़हर फैलाओः भाग-4
किसानों के लोकतांत्रिक आंदोलन के जवाब में सरकार अपनी तयशुदा प्रतिक्रिया का सहारा ले रही है- फूट डालो और दिलों में सांप्रदायिक नफरत के बीज बोओ।
चूंकि किसान आंदोलनकारियों की सबसे बड़ी तादाद पंजाब से है, इसलिए लगता है कि गोदी मीडिया के प्रमुखों के कानों में फूंक दिया गया है कि वे इसे पंजाबियों और विशेष रूप से सिखों के आंदोलन के रूप में चित्रित करें।
बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख और बीजेपी के दिल्ली के प्रवक्ताने यह प्रचारित किया कि किसानों का आंदोलन खालिस्तानी ताकतों द्वारा चलाया जा रहा है और इसके पीछे खालिस्तानी एजेंडा है।
जल्द ही इसका खंडन किया गया। दरअसल कई अन्य राज्यों, खासकर हरियाणा के किसानों के जत्थे आंदोलन में जुड़़ते गये हैं।
लेकिन इससे भी ज्यादा बुनियादी बात यह है कि आंदोलनकारियों की कोई भी मांग पंजाब से संबंधित नहीं है- और सिख समुदाय की धार्मिक पहचान से तो उनका उससे भी कम वास्ता है।
ऐसी कोई एक मांग भी नहीं है कि जिसमें नदियों के पानी के बंटवारे, सीमावर्ती क्षेत्रों के नियंत्रण, पवित्र स्थलों की स्थिति, धार्मिक प्रतीकों, और धार्मिक प्रतिबंधों की बात की गई हो।
संक्षेप में, आंदोलन की विकृत छविपेश की जा सके, इसकी लेशमात्र भी गुंजाइश नहीं है। दरअसल, इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे कुछ सबसे बड़े किसान और खेतिहर मजदूर संगठनों ने बहुत पहले ही इस तरह के मुद्दों को भटकाने वाला करार दिया था।
हालांकि ये नये कानून केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों पर थोपे गये हैं, लेकिन किसानों की मांगें केंद्र बनाम राज्यकी मांग नहीं हैं।
उनकी मुख्य मांग यह नहीं है कि राज्यों को यह अधिकार मिले कि वह केंद्र या दूसरे राज्यों की परवाह किये बिना अपनी फसलों का निर्यात कर सकें।
इसके बरक्स उनकी मांग है किकेंद्र राज्यों में पैदा की गयी फसलों की सरकारी खरीद जारी रखे और देश भर में उसका वितरण करे। अर्थात् उनकी मांगें पूरी तरह धर्म-निरपेक्ष हैं, वे भारत के विविध लोगों की आम वर्गीय मांगें हैं।
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वर्तमान सरकार के लिए परीक्षा की घड़ी
ये कानून आसमान से नहीं टपके हैं। हर कोई जो खेती के क्षेत्रमें तथाकथित ‘‘सुधारों’’ की प्रगतिसे वाकिफ रहा है, उसे पता है कि शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय हितों द्वारा दशकों से भी ज्यादा समय से इन कदमों को उठाने के लिए दबाव बनाया जा रहा है।
1990 के दशक में संयुक्त मोर्चा सरकार के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम द्वारा ‘‘लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली’’ की शुरुआत सार्वजनिक वितरण व्यवस्थापर पहली चोट थी।
कांग्रेस की अगुवाई वाली संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार ने भी इसी एजेंडे को सूक्ष्मता से आगे बढ़ाने की कोशिश की थी, लेकिन वह इसमें आने वाली कठिनाइयों से भी अच्छी तरह वाकिफ थी, इसलिए वह इसे लागू नहीं कर सकी।
निगमों के हित में इस तरह के ‘‘सुधार’’ कर पाने में संप्रग सरकार की नाकामी से असंतुष्ट देश के शासक वर्गों, प्रमुख रूप से भारत के कारपोरेटों ने 2014 के चुनाव में मोदी का साथ दिया।
इस तरह यह मुद्दा भारतीय कारपोरेट और अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के हितों की सेवा करने की वर्तमान सरकार की क्षमता का परीक्षण है।
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वर्ग संघर्ष आज भी प्रासंगिक क्यों है?
पिछले 6 वर्षों में भारत के लोकतांत्रिक हिस्सोंने वर्तमान शासन के तीखे हमलों का सामना किया है।
कुछ लोग लगातार एक या दूसरे विधानसभा या संसदीय चुनावों और उसके बाद होने वाले गठबंधनों को उम्मीदकी नजर से देखते रहे हैं कि शायद वह दमन के रथ को रोक देगा।
लेकिन उनकी उम्मीदें बार-बार धराशायी होती रही हैं, यहां तक किउन राज्यों में भी जहां चुनावी नतीजे उनकी आशा के अनुरूप थे।
फिर भी, भाजपा की शक्तिका यह लगातार विस्तार, वर्ग-संघर्षों को उभरने से नहीं रोक सका। दो साल पहले एक किसान मार्च के समय हमने कहा था, ‘‘दूसरे शब्दोंमें कहा जाय तो, मोदी सरकार की प्रतीत होने वाली अजेयता केवल चुनावी राजनीति और राज्य के विभिन्न अंगों में केन्द्रित है। इसके बरक्स वर्ग-संघर्षके मामले में, वह लोगों को अपने खिलाफ खड़े होने से रोक पाने में असमर्थ है और कई स्थानों पर लोग अपनी मांगों के आगे सरकार को झुकाने में भी कामयाब रहे हैं। यह तथ्य इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि हमें अपनी कोशिशों को कहां केंद्रित करना है।’’
भारत की विविधता पूर्ण परिस्थितियों में, किसान आज बहुत सारे सवालों पर तीखे संघर्ष कर रहे हैं। कई स्थानों पर वे साहूकारों, लागत विक्रेताओं, व्यापारियों और जमींदारों और कभी-कभी एक ही आदमी ये सारे काम कर रहा होता है, के हाथों शोषण का सामना कर रहे हैं। (समाप्त)
(ये लेख रिसर्च यूनिट फॉर पालिटिकल इकोनॉमी से लिया गया है जिसे ट्रेड यूनियन सॉलिडेरिटी कमेटी ने प्रकाशित किया है। मूल लेख को यहां पढ़ा जा सकता है।)
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