कृषि-नीति बदलावों का राजनीतिक महत्वः ’ किसान बचेंगे या मोदी-6

कृषि-नीति बदलावों का राजनीतिक महत्वः ’ किसान बचेंगे या मोदी-6

By एसवी सिंह

कृषि बिल राष्ट्रपति के शुभ हस्ताक्षर होकर कानून बन चुके हैं। इन बदलावों का महत्व हम तब ही समझ पाएंगे जब हम पहले ‘किसान’ शब्द का सही अर्थ समझ जाएँ। किसान एक अस्पष्ट शब्द है जिसकी जगह दूसरे स्पष्ट अर्थ देने वाले शब्दों को इस्तेमाल करने से जान पूछकर बचा जाता है जिससे ये भ्रम बना रहे कि सब किसान एक जैसे हैं, उनके हित-अहित समान हैं।

अगर सही शब्द का प्रयोग हो तो ‘किसान’ बोलते ही जो करुणा, दया के तीव्र भावावेग उमड़ते हैं वे नहीं उमड़ेंगे। ‘किसान’ बोलते ही एक भूखा, कंगाल, हताश, कुंठित, दयनीय, हड्डियों का कंकाल जिसकी सारी चर्बी और मांस पेशियाँ निचुड़ चुकी हैं, ऐसे मनुष्य की तस्वीर जहन में आती है, सहानुभूति और दया का एक तीव्र भावावेश उमड़ उठता है जो तर्क विवेक को ढक लेता है।

ये तस्वीर सही है, झूठ नहीं है लेकिन यक्ष प्रश्न ये है कि क्या सारे किसान ऐसे ही हैं? उदाहरणार्थ ; पंजाब में अकाली दल के सारे एम एल ए- एम पी किसान हैं तथा बाकी पार्टियों के 90% नेता किसान हैं। क्या उनमें से एक भी ऐसा है? क्या वे ऐसी ही दया, सहानुभूति के पात्र हैं? क्या वे सब करोड़ों की कर छूट के हकदार हैं? उत्तर है; नहीं।

पिछला संसदीय चुनाव लड़ते वक़्त सुखबीर सिंह बादल ने जो हलफनामा दिया था उसके अनुसार उनकी आय 217.99 करोड़ है। उनकी पत्नी हरसिमरत कौर बादल की आय 217 करोड़ है। महाराष्ट्र से किसान सुप्रिया सुले की आय 165.42 करोड़ है। सत्रहवीं लोकसभा के सबसे धनी एम पी, म प्र के ऐसे ही एक गरीब किसान नकुल नाथ जो कमल नाथ के सुपुत्र हैं, उनकी आय मात्र 660 करोड़ रुपये है।

रीडिफडॉट कॉम में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक 2014-15 में कुल 4 लाख कंपनियों ने कृषि आय बताकर आयकर में जो छूट ली है उसका ब्यौरा इस प्रकार है; कावेरी सीड्स 186.63 करोड़, मोंसंतो इण्डिया 94.40 करोड़। कृपया नोट करें, कृषि कंपनियां भी उनकी ‘कृषि’ आय पर बिलकुल उसी तरह की छूट की हकदार हैं जैसे की व्यक्तिगत किसान।

इकनोमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के धनी किसानों पर उससे भी ज्यादा नकद पैसा मौजूद है जितनी काली कमाई बाहर के गुपचुप बैंकों में जमा है। उनकी कमाई ‘कृषि’ की है इसलिए उस पर टैक्स नहीं है, इसलिए उसे बाहर देशों के अदृश्य बैंकों में जमा करने की जरूरत नहीं है।

जमीन खरीद कर या फिर कृषि प्रोसेसिंग कंपनी खोलकर ‘किसान’ बन जाना और फिर कोई भी टैक्स देने से बच जाना, हमारे देश के टैक्स चोरों का सबसे लोकप्रिय हथकंडा है। दूसरा दृश्य खेती किसानी का क्या है? लघु किसान मतलब जिनके पास 5 एकड़ से कम कृषि भूमि है और सीमांत किसान जिनके पास मात्र 2.5 एकड़ से भी कम कृषि भूमि ही बची है; इनकी तादाद कुल किसानों की तादाद का 86% है और इनके पास खेती की जमीन कुल कृषि भूमि का मात्र 43.6% है।

इससे भी अहम बात ये है कि अकेले सीमांत किसान ही कुल किसानों का 67% हैं। औसत कृषि जोत लगातार घटती जा रही है। 2011-12 में 1.15 हेक्टेयर से घटकर 2015 -16 में ये 1.08 हेक्टेयर ही रह गई। कृषि भूमि मालिकाने के आधार पर हो रहे ध्रुवीकरण को ये नए कृषि कानून बहुत तीव्र कर देने वाले हैं।

लगभग 56 करोड़ सीमांत किसान किसी भी तरह जमीन के उस छोटे से टुकड़े से अब गुजारा नहीं कर पाएंगे और उनको ग्रामीण सर्वहारा के महासागर में ही समा जाना है। छोटा व्यवसायी चाहे व्यापार में हो या खेती में, पूंजीवाद में उसे मरना ही है।

खेती किसानी में अभी तक पूंजीवादी  आग की तपिश पूरी खुलकर देने से जान पूछकर बचा जाता रहा लेकिन अज पूंजीवाद को उसके मरणासन्न संकट ने उस जगह लाकर पटक दिया है कि वो ऐसी कोई ‘मेहरबानी’ करने की स्थिति में बचा ही नहीं।

लघु, सीमांत किसानों की मंजिल ग्रामीण सर्वहारा है, कितना भी अप्रिय लगे, इस तथ्य को नकारना सच्चाई से आंख मूंदने जैसा है। दूसरी तरफ़, धनी किसान वर्ग जो अब तक अपनी सुरक्षित आरामगाह में सुकून से शोषण का ‘सुख’ भोग रहा था उसके मज़े के दिन भी ग़ायब हो जाने वाले हैं।

मौजूदा कृषि नीति बदलावों के रूप में कृषि क्षेत्र में होने वाले  नव उदारीकरण के हमले का सबसे कष्टदायक प्रहार इसी वर्ग पर करने वाला है क्योंकि उन्हें अब दैत्याकार सरमाएदार बहुराष्ट्रीय कंपनियों से प्रतियोगिता की भट्टी में तपना होगा। पूंजीवाद सिर्फ अर्ध-सर्वहारा को ही सर्वहारा नहीं बनाता बल्कि कितने ही बड़े खिलाड़ी भी बह जाते हैं।

farmers at UP gate

पूंजी के सांद्रण और केन्द्रीकरण की प्रक्रिया को पलटा नहीं जा सकता। पश्चिमी देशों की ही तर्ज़ पर यहाँ भी निर्बाध पूंजीवाद खेती किसानी में भी वही हालात पैदा करेगा। पूंजीवाद का सार्वभौम मन्त्र है; ‘व्यवसाय में कौन जिएगा, कौन मरेगा; ये बाज़ार तय करेगा’

भारत एक विशाल देश है, कृषि व्यापार का कुल आकर लगभग 62 लाख करोड़ है जिसके लिए रिलायंस रिटेल, अडानी ग्रीन, टाटा संपन्न, आई टी सी, मोनसेंटो इण्डिया, कावेरी सीड्स, पतंजलि और ऐसी ही दूसरी कंपनियां इस बाज़ार को हड़पने के लिए लार टपका रही हैं और उनकी लाड़ली मोदी सरकार इस विशालकाय केक को तश्तरी में सजाकर उन्हें प्रस्तुत कर रही है।

मौजूदा कृषि नव उदारीकरण का एक निश्चित परिणाम ये होने वाला है कि ग्रामीण बुर्जुआ वर्ग और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग का वर्ग विभाजन स्पष्ट हो जाने वाला है, धुंधलका हट जाने वाला है।

(यथार्थ पत्रिका से साभार)

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